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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 22
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त

    द्व्यास्याच्चतुर॒क्षात्पञ्च॑पादादनङ्गु॒रेः। वृन्ता॑द॒भि प्र॒सर्प॑तः॒ परि॑ पाहि वरीवृ॒तात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्विऽआ॑स्यात् । च॒तु॒:ऽअ॒क्षात् । पञ्च॑ऽपादात् । अ॒न॒ङ्गु॒रे: । वृन्ता॑त् । अ॒भ‍ि । प्र॒ऽसर्प॑त: । परि॑ । पा॒हि॒ । व॒री॒वृ॒तात् ॥६.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्व्यास्याच्चतुरक्षात्पञ्चपादादनङ्गुरेः। वृन्तादभि प्रसर्पतः परि पाहि वरीवृतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्विऽआस्यात् । चतु:ऽअक्षात् । पञ्चऽपादात् । अनङ्गुरे: । वृन्तात् । अभ‍ि । प्रऽसर्पत: । परि । पाहि । वरीवृतात् ॥६.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 22

    पदार्थ -

    १. (धास्यात्) = दो मुखवाले, (चतुरक्षात्) = चार आँखोंवाले, (पञ्चपादात्) = पाँच पाँववाले, (अनङ्गुरे:) = अंगुलियों से रहित (वृन्तात् अभिप्रसर्पत:) = लता-पुञ्ज से निकलकर हमारी ओर आते हुए अथवा [वृन्तवद् वृन्तं शिरः, पादाग्रं वा] सिर से आगे बढ़े हुए [अवाग् भूयाभिगच्छतः] (वरीवृतात्) = सब अङ्गों को व्याप्त करनेवाले इस कृमि से, हे ओषधे! तू (परिपाहि) = हमारा रक्षण कर।

    भावार्थ -

    कई कृमि बड़े विचित्र-से होते हैं। उनके दो मुख, चार आँखे व पाँच पाँव होते हैं, इनकी अंगुली नहीं दिखती। सिर के बल आगे बढ़े हुए इन कृमियों से यह सर्षप हमारा रक्षण करे।

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