अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 20
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
परि॑सृष्टं धारयतु॒ यद्धि॒तं माव॑ पादि॒ तत्। गर्भं॑ त उ॒ग्रौ र॑क्षतां भेष॒जौ नी॑विभा॒र्यौ ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ऽसृष्टम् । धा॒र॒य॒तु॒ । यत् । हि॒तम् । मा । अव॑ । पा॒दि॒ । तत् । गर्भ॑म् । ते॒ । उ॒ग्रौ । र॒क्ष॒ता॒म् । भे॒ष॒जौ । नी॒वि॒ऽभार्यौ᳡ । ६.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
परिसृष्टं धारयतु यद्धितं माव पादि तत्। गर्भं त उग्रौ रक्षतां भेषजौ नीविभार्यौ ॥
स्वर रहित पद पाठपरिऽसृष्टम् । धारयतु । यत् । हितम् । मा । अव । पादि । तत् । गर्भम् । ते । उग्रौ । रक्षताम् । भेषजौ । नीविऽभार्यौ । ६.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 20
विषय - नीविभायौँ [भेषजौ]
पदार्थ -
१. स्त्री (परिसृष्टं धारयत) = पति द्वारा प्रदत्त वीर्य को अपने अन्दर धारण करे, (यत् हितम्) = जो वीर्य गर्भस्थिति के लिए धारण किया गया है, (तत् मा अवपादि) = वह नष्ट न हो जाए। हे स्त्रि! (ते गर्भम्) = तेरे इस गर्भ को-गर्भस्थ बालक को (उग्रौ भेषजौ) = उद्गुर्ण बलवाले ये ओषधरूप श्वेत व पीत सर्षप (रक्षताम्) = रक्षित करें। ये दोषों को दूर करनेवाले सर्वप (नीविभायौँ) = तेरे मूलधनरूप इस आहित वीर्य को सुन्दरता से भरण करनेवाले हैं।
भावार्थ -
श्वेत व पीत सर्षप प्रबल भेषज हैं। इनका प्रयोग पति-प्रदत्त वीर्य का स्त्रीगर्भ में धारण करने में सहायक होता है और धारित गर्भ को नष्ट नहीं होने देता।
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