अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
साह॒स्रस्त्वे॒ष ऋ॑ष॒भः पय॑स्वा॒न्विश्वा॑ रू॒पाणि॑ व॒क्षणा॑सु॒ बिभ्र॑त्। भ॒द्रं दा॒त्रे यज॑मानाय शिक्षन्बार्हस्प॒त्य उ॒स्रिय॒स्तन्तु॒माता॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठसा॒ह॒स्र: । त्वे॒ष: । ऋ॒ष॒भ: । पय॑स्वान् । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । व॒क्षणा॑सु । बिभ्र॑त् । भ॒द्रम् । दा॒त्रे । यज॑मानाय । शिक्ष॑न् । बा॒र्ह॒स्प॒त्य: । उ॒स्रिय॑: । तन्तु॑म् । आ । अ॒ता॒न् ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
साहस्रस्त्वेष ऋषभः पयस्वान्विश्वा रूपाणि वक्षणासु बिभ्रत्। भद्रं दात्रे यजमानाय शिक्षन्बार्हस्पत्य उस्रियस्तन्तुमातान् ॥
स्वर रहित पद पाठसाहस्र: । त्वेष: । ऋषभ: । पयस्वान् । विश्वा । रूपाणि । वक्षणासु । बिभ्रत् । भद्रम् । दात्रे । यजमानाय । शिक्षन् । बार्हस्पत्य: । उस्रिय: । तन्तुम् । आ । अतान् ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
विषय - 'साहस्त्र:-उत्रियः' प्रभु
पदार्थ -
१. (साहस्त्र:) = सहस्रों शिरों, बाहुओं, पादों, चक्षुओं व अनन्त सामथ्र्यों से युक्त (त्वेष:) = कान्तिमान् (ऋषभ:) = [ऋष गतौ दर्शने च] सर्वव्यापक व सर्वेद्रष्टा, (पयस्वान्) = प्रशस्त आप्यायनवाले आनन्दरस से परिपूर्ण वे प्रभु (विश्वा रूपाणि) = समस्त लोकों व प्राणियों को (वक्षणासु बिभ्रत्) = अपनी कोखों में धारण किये हुए हैं। यह सारा ब्रह्मण्ड प्रभु के एक देश में हैं। २. वे प्रभु (दात्रे) = दानशील अथवा आत्म-समर्पण करनेवाले (यजमानाय) = यज्ञशील उपासक के लिए (भद्रं शिक्षन्) = कल्याण करनेवाले हैं। वे (बार्हस्पत्यः) = आकाश आदि महान् लोकों के स्वामी (उस्त्रिय:) = सब लोकों को अपने अन्दर बसानेवाले (तन्तुम्) = इस ब्रह्माण्ड तन्तु को (आतान्) = चारों ओर विस्तृत कर रहे हैं [अतानीत]।
भावार्थ -
वे प्रभु 'साहन, त्वेष, ऋषभ व पयस्वान्' हैं। वे सब लोकों को अपनी कोख में धारण किये हुए हैं। समर्पण करनेवाले यजमान का वे कल्याण करते हैं। वे सब लोकों के स्वामी, सबको अपने में बसानेवाले प्रभु, इस संसार-तन्तु का विस्तार करते हैं।
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