अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
श॑त॒याजं॒ स य॑जते॒ नैनं॑ दुन्वन्त्य॒ग्नयः॑। जिन्व॑न्ति॒ विश्वे॒ तं दे॒वा यो ब्रा॑ह्म॒ण ऋ॑ष॒भमा॑जु॒होति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश॒त॒ऽयाज॑म् । स: । य॒ज॒ते॒ । न । ए॒न॒म् । दु॒न्व॒न्ति॒ । अ॒ग्नय॑: । जिन्व॑न्ति । विश्वे॑ । तम् । दे॒वा: । य: । ब्रा॒ह्म॒णे । ऋ॒ष॒भम् । आ॒ऽजु॒होति॑ ॥४.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
शतयाजं स यजते नैनं दुन्वन्त्यग्नयः। जिन्वन्ति विश्वे तं देवा यो ब्राह्मण ऋषभमाजुहोति ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽयाजम् । स: । यजते । न । एनम् । दुन्वन्ति । अग्नय: । जिन्वन्ति । विश्वे । तम् । देवा: । य: । ब्राह्मणे । ऋषभम् । आऽजुहोति ॥४.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
विषय - 'प्रभुस्मरण' व 'स्वस्थ, पवित्र जीवन'
पदार्थ -
१. (यः ब्राह्मणे) = जो ब्रह्मज्ञान के निमित्त (ऋषभम् आजुहोति) = उस सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु को अपने में अर्पित करता है, अर्थात् प्रभु को अपने हृदय में स्थापित करने के लिए यत्नशील होता है, (स:) = वह (शतयाजं यजते) = शतवर्षपर्यन्त यज्ञों को करनेवाला होता है। (एनम्) = इस प्रभु स्मरणपूर्वक यज्ञ करनेवाले व्यक्ति को (अग्नयः) = अग्नियाँ न (दुवन्ति) = सन्तप्त नहीं करती, अर्थात् यह आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक तापों से पीड़ित नहीं होता। २. (तम्) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले को (विश्वेदेवा:) = सूर्य-चन्द्रमा आदि सब देव (जिन्वन्ति) = प्रीणित करनेवाले होते हैं। सूर्य-चन्द्रमा आदि सब देवों की अनुकूलता से यह यज्ञशील उपासक पूर्ण स्वस्थ बनता है|
भावार्थ -
हम ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए हदय में प्रभु का ध्यान करें। ऐसा करने पर हमारा जीवन यज्ञमय होगा। हम कष्टानियों से पीड़ित नहीं होंगे और सूर्यादि सब देवों की अनुकूलता से हमें पूर्ण स्वास्थ्य प्रास होगा।
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