अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
आज्यं॑ बिभर्ति घृ॒तम॑स्य॒ रेतः॑ साह॒स्रः पोष॒स्तमु॑ य॒ज्ञमा॑हुः। इन्द्र॑स्य रू॒पमृ॑ष॒भो वसा॑नः॒ सो अ॒स्मान्दे॑वाः शि॒व ऐतु॑ द॒त्तः ॥
स्वर सहित पद पाठआज्य॑म् । बि॒भ॒र्ति॒ । घृ॒तम् । अ॒स्य॒ । रेत॑: । सा॒ह॒स्र: । पोष॑: । तम् । ऊं॒ इति॑ । य॒ज्ञम् । आ॒हु॒: । इन्द्र॑स्य । रू॒पम् । ऋ॒ष॒भ: । वसा॑न: । स: । अ॒स्मान् । दे॒वा॒: । शि॒व: । आ । ए॒तु॒ । द॒त्त: ॥४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आज्यं बिभर्ति घृतमस्य रेतः साहस्रः पोषस्तमु यज्ञमाहुः। इन्द्रस्य रूपमृषभो वसानः सो अस्मान्देवाः शिव ऐतु दत्तः ॥
स्वर रहित पद पाठआज्यम् । बिभर्ति । घृतम् । अस्य । रेत: । साहस्र: । पोष: । तम् । ऊं इति । यज्ञम् । आहु: । इन्द्रस्य । रूपम् । ऋषभ: । वसान: । स: । अस्मान् । देवा: । शिव: । आ । एतु । दत्त: ॥४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
विषय - 'शिवः दत्तः' प्रभु
पदार्थ -
१. (अस्य) = इस प्रभु की (घृतम्) = ज्ञान-दीप्ति हमारे जीवनों में (आज्यम्) = कान्ति को [अब्ज कान्तौ] (बिभर्ति) = धारण करती है। [अस्य] (रेत:) = प्रभु के द्वारा हमारे शरीरों में उत्पन्न किया हुआ वीर्य (साहस्त्र: पोष:) = सहस्रों प्रकार से हमारा पोषण करनेवाला है। (तम् उ) = उस प्रभु को ही निश्चय से (यज्ञम्) = पूजनीय व संगति करने योग्य (आहुः) = कहते हैं। यह प्रभु का मेल ही हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त कराता है। २. (स:) = वह (ऋषभ:) = सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली के (रूपम्) = रूप को (वसान:) = धारण करता हुआ (अस्मान् आ एतु) = हमें सर्वथा प्राप्त हो। हे (देवा:) = विद्वानो! वे प्रभु (शिव:) = कल्याणकर हैं, और (दत्त:) = [दत्तम् अस्य अस्ति] सब आवश्यक वस्तुओं को देनेवाले हैं।
भावार्थ -
प्रभु का ज्ञान हमारे जीवनों को कान्त बनाता है। प्रभु से दी गई शक्ति हमारा बहुत प्रकार से रक्षण करती है। वे प्रभु ही उपास्य हैं। परमैश्वर्यवाले वे प्रभु हमें प्राप्त हों। वे प्रभु सब आवश्यक वस्तुओं को देनेवाले हैं और हमारा कल्याण करनेवाले हैं।
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