अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
अ॒यं पि॑पान॒ इन्द्र॒ इद्र॒यिं द॑धातु चेत॒नीम्। अ॒यं धे॒नुं सु॒दुघां॒ नित्य॑वत्सां॒ वशं॑ दुहां विप॒श्चितं॑ प॒रो दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । पिपा॑न: । इन्द्र॑: । इत् । र॒यिम् । द॒धा॒तु॒ । चे॒त॒नीम् । अ॒यम् । धे॒नुम् । सु॒ऽदुघा॑म् । नित्य॑ऽवत्साम् । वश॑म् । दु॒हा॒म् । वि॒प॒:ऽचित॑म् । प॒र: । दि॒व:॥४.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं पिपान इन्द्र इद्रयिं दधातु चेतनीम्। अयं धेनुं सुदुघां नित्यवत्सां वशं दुहां विपश्चितं परो दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । पिपान: । इन्द्र: । इत् । रयिम् । दधातु । चेतनीम् । अयम् । धेनुम् । सुऽदुघाम् । नित्यऽवत्साम् । वशम् । दुहाम् । विप:ऽचितम् । पर: । दिव:॥४.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
विषय - चेतनी रयि
पदार्थ -
१. (अयम्) = यह (पिपान:) = सदा से आप्यायित [वृद्ध] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (इत्) = निश्चय से (चेतनी रयिम्) = चेतना प्राप्त करानेवाले ज्ञानेश्वर्य को (दधातु) = धारण करे। प्रभुकृपा से हमें वह ज्ञानेश्वर्य प्राप्त हो जो हमें चेतना प्राप्त करानेवाला है। २. (अयम्) = यह (दिवः पर:) = ज्ञान के दृष्टिकोण से सर्वोत्कृष्ट [पर]-सर्वज्ञ प्रभु (वशं विपश्चितम्) = इन्द्रियों को वश में करनेवाले ज्ञानी को (धेनुं दुहाम्) = वेद-धेनु को दुहे। 'वश विपश्चित' के लिए प्रभु वेदज्ञान दें। इसके लिए उस वेद-धेनु का दोहन करें जोकि (सुदुघाम्) = उत्तमता से दोहन के योग्य है तथा (नित्यवत्साम्) = सदा वत्सवाली है, अर्थात् सदा नवसूतिका होने से सदा ही ज्ञान-दुग्ध देनेवाली है।
भावार्थ -
हम इन्द्रियों को वश में करनेवाले व ज्ञान में रुचिवाले हों। प्रभु हमें चेतानेवाला ज्ञानेश्वर्य प्राप्त कराएँ और वेदधेनु हमारे लिए सदा नित नया ज्ञान देनेवाली हो।
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