अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
य इन्द्र॑ इव दे॒वेषु॒ गोष्वे॑ति वि॒वाव॑दत्। तस्य॑ ऋष॒भस्याङ्गा॑नि ब्र॒ह्मा सं स्तौ॑तु भ॒द्रया॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । इन्द्र॑:ऽइव । दे॒वेषु॑ । गोषु॑ । एति॑ । वि॒ऽवाव॑दत् । तस्य॑ । ऋ॒ष॒भस्य॑ । अङ्गा॑नि । ब्र॒ह्मा । सम् । स्तौ॒तु॒ । भ॒द्रया॑ ॥४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
य इन्द्र इव देवेषु गोष्वेति विवावदत्। तस्य ऋषभस्याङ्गानि ब्रह्मा सं स्तौतु भद्रया ॥
स्वर रहित पद पाठय: । इन्द्र:ऽइव । देवेषु । गोषु । एति । विऽवावदत् । तस्य । ऋषभस्य । अङ्गानि । ब्रह्मा । सम् । स्तौतु । भद्रया ॥४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
विषय - ब्रह्मा सं स्तौतु भद्रया
पदार्थ -
१. (यः) = जो प्रभु (देवेषु इन्द्रः इव) = देवों में इन्द्र के समान हैं। इन्द्रियाँ देव हैं, इनका अधिष्ठाता जीवात्मा 'इन्द्र' है। जैसे इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव है, उसी प्रकार प्रभु सूर्यादि देवों का अधिष्ठाता है। ये प्रभु (गोषु) = वेदवाणियों में (विवावदत्) = खूब ही ज्ञानोपदेश करते हुए (एति) = गति करते हैं-हमें प्राप्त होते हैं। २. (तस्य) = उस (ऋषभस्य) = सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु के (अङ्गानि) = अङ्गों का (ब्रह्मा) = चतुर्वेदवेत्ता विद्वान् (भद्रया संस्तौतु) = कल्याणी वेदवाणी द्वारा स्तवन करे।
भावार्थ -
प्रभु सूर्यादि देवों के इसप्रकार अधिष्ठाता है, जैसेकि जीवात्मा इन्द्रियों का। वे प्रभु वेदवाणी द्वारा हमें कर्त्तव्य का उपदेश देते हैं। ब्रह्मा प्रभु का वर्णन करने में आनन्द का अनुभव करे।
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