अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
ए॒तं वो॒ युवा॑नं॒ प्रति॑ दध्मो॒ अत्र॒ तेन॒ क्रीड॑न्तीश्चरत॒ वशाँ॒ अनु॑। मा नो॑ हासिष्ट ज॒नुषा॑ सुभागा रा॒यश्च॒ पोषै॑र॒भि नः॑ सचध्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । व॒: । युवा॑नम् । प्रति॑ । द॒ध्म॒: । अत्र॑ । तेन॑ । क्रीड॑न्ती: । च॒र॒त॒ । वशा॑न् । अनु॑ । मा । न॒: । हा॒सि॒ष्ट॒ । ज॒नुषा॑ । सु॒ऽभा॒गा॒: । रा॒य: । च॒ । पोषै॑: । अ॒भि । न॒: । स॒च॒ध्व॒म् ॥४.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं वो युवानं प्रति दध्मो अत्र तेन क्रीडन्तीश्चरत वशाँ अनु। मा नो हासिष्ट जनुषा सुभागा रायश्च पोषैरभि नः सचध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । व: । युवानम् । प्रति । दध्म: । अत्र । तेन । क्रीडन्ती: । चरत । वशान् । अनु । मा । न: । हासिष्ट । जनुषा । सुऽभागा: । राय: । च । पोषै: । अभि । न: । सचध्वम् ॥४.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 24
विषय - आत्मक्रीड़
पदार्थ -
१. हे जीवो! (व:) = तुम्हें (अत्र) = यहाँ-इस जीवन में (एतं युवानं प्रतिदध्म:) = इस [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों से पृथक् करनेवाले तथा अच्छाइयों से मिलानेवाले प्रभु के प्रति धारण-करते हैं, अर्थात् प्रभु से तुम्हारा मेल कराते हैं। (तेन) = उस प्रभु के साथ (क्रीडन्ती:) = क्रीड़ा करते हुए तुम (वशान् अनु चरत्) = इन्द्रियों को वश में करने के अनुपात में प्रभु के साथ गति करो। जितना-जितना तुम इन्द्रियों को वश में करोगे, उतना-उतना ही प्रभु के साथ विचरनेवाले बनोगे। आत्मक्रीड़ बनो, इन्द्रियों को वश में करो तथा प्रभु के साथ विचरो। २. यह आत्मवशी प्रार्थना करता है कि-हे (सुभागा:) = उत्तम ऐश्वर्यवाली वेदवाणियो! आप (नः) = हमें (जनुषा मा हासिष्ट) = जन्म से ही मत छोड़ो, अर्थात् जन्म से ही हमारा तुम्हारे साथ सम्बन्ध बना रहे (च) = तथा (रायः पोषैः) = धन के पोषणों के साथ (न:) = हमें (सचध्वम्) = समवेत करो।
भावार्थ -
हम प्रभु के साथ मेल बनाये रक्खें, आत्मक्रीड़ बनते हुए जितेन्द्रिय बनें । जन्म से ही वेदवाणियों के साथ हमारा सम्बन्ध हो और हम धनों का पोषण प्राप्त
विशेष -
विशेष-वैदवाणियों में अपने को परिपक्व करनेवाला यह 'भृगु' बनता है। अगले सूक्त का ऋषि यह भृगु ही है -