अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
ब्रा॑ह्म॒णेभ्य॑ ऋष॒भं द॒त्त्वा वरी॑यः कृणुते॒ मनः॑। पुष्टिं॒ सो अ॒घ्न्यानां॒ स्वे गो॒ष्ठेऽव॑ पश्यते ॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒णेभ्य॑: । ऋ॒ष॒भम् । द॒त्त्वा । वरी॑य: । कृ॒णु॒ते॒ । मन॑: । पुष्टि॑म् । स: । अ॒घ्न्याना॑म् । स्वे । गो॒ऽस्थे । अव॑ । प॒श्य॒ते॒ ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणेभ्य ऋषभं दत्त्वा वरीयः कृणुते मनः। पुष्टिं सो अघ्न्यानां स्वे गोष्ठेऽव पश्यते ॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणेभ्य: । ऋषभम् । दत्त्वा । वरीय: । कृणुते । मन: । पुष्टिम् । स: । अघ्न्यानाम् । स्वे । गोऽस्थे । अव । पश्यते ॥४.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 19
विषय - ऋषभ-दान
पदार्थ -
१. (ब्राह्मणेभ्य:) = ब्रह्म-जिज्ञासुओं के लिए (ऋषभं दत्वा) = सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु को प्रभु का ज्ञान देकर यह उपदेष्टा (मन: वरीयः कृणते) = अपने हृदय को विशाल [उदार] बनाता है। ज्ञान का आदान-प्रदान इन ज्ञानियों के मनों को उदार व पवित्र करता है। २. (स:) = वह ज्ञानोपदेष्टा (स्वे गोष्ठे) = अपने गोष्ट में [An assembly], अपनी सभाओं में (अध्यानाम्) = इन अहन्तव्य वेदवाणियों की (पुष्टिम्) = पुष्टि को (अवपश्यते) = देखता है। इनकी सभाओं में इन ज्ञान की वाणियों की ही चर्चा होती है और उस प्रकार इन्हीं का प्रसार होता है।
भावार्थ -
हम गोष्ठियों में अहन्तव्य वेदवाणियों की ही चर्चा करें। ब्रह्मज्ञान का आदान प्रदान करते हुए विशाल व पवित्र हृदयोंवाले बनें।
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