अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
दे॒वानां॑ भा॒ग उ॑पना॒ह ए॒षो॒पां रस॒ ओष॑धीनां घृ॒तस्य॑। सोम॑स्य भ॒क्षम॑वृणीत श॒क्रो बृ॒हन्नद्रि॑रभव॒द्यच्छरी॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । भा॒ग: । उ॒प॒ऽना॒ह: । ए॒ष: । अ॒पाम् । रस॑: । ओष॑धीनाम् । घृ॒तस्य॑ । सोम॑स्य । भ॒क्षम् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । श॒क्र: । बृ॒हन् । अद्रि॑: । अ॒भ॒व॒त् । यत् । शरी॑रम् ॥४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां भाग उपनाह एषोपां रस ओषधीनां घृतस्य। सोमस्य भक्षमवृणीत शक्रो बृहन्नद्रिरभवद्यच्छरीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । भाग: । उपऽनाह: । एष: । अपाम् । रस: । ओषधीनाम् । घृतस्य । सोमस्य । भक्षम् । अवृणीत । शक्र: । बृहन् । अद्रि: । अभवत् । यत् । शरीरम् ॥४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
विषय - शरीरं बृहन् अद्रिः
पदार्थ -
१. वे प्रभु (देवानां भाग:) = दिव्यवृत्ति के सब पुरुषों से सेवनीय हैं [भज सेवायाम्]। (एष:) = यह (उपनाह:) = [नह बन्धने] संसार के सब पिण्डों को एक सूत्र में बाँधनेवाला है-सूत्रों का सूत्र है। (अपाम्) = जलों का, (ओषधीनाम्) = ओषधियों का (घृतस्य) = घृत का (रस:) = रस प्रभु ही हैं। २. (शक्रः) = वे शक्तिशाली प्रभु हम पुत्रों के लिए (सोमस्य भक्षम्) = सोम के भोजन को (अवृणीत) = वरते हैं, अर्थात् प्रभु हमारे लिए सौम्य भोजनों को ही नियत करते हैं। इस भोजन से (यत् शरीरम्) = जो यह शरीर है, वह (बृहन् अद्रि:) = एक बड़े पर्वत की भाँति (अभवत्) = हो जाता है। यह शरीर पत्थर के समान दृढ़ हो जाता है। सौम्य भोजनों से उत्पन्न शक्ति शरीर में सुरक्षित होती हुई शरीर को सुदृढ़ बनाती है।
भावार्थ -
प्रभु दिव्यवृत्तिवाले पुरुषों से उपासनीय हैं, सब लोकों को एक सूत्र में बाँधनेवाले हैं। जल, ओषधि व घृत में रसरूप में रह रहे हैं। सौम्य भोजनों के द्वारा हमारे शरीरों को सुदृढ़ बनाते हैं।
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