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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - जगती सूक्तम् - ऋषभ सूक्त

    बृह॒स्पतिः॑ सवि॒ता ते॒ वयो॑ दधौ॒ त्वष्टु॑र्वा॒योः पर्या॒त्मा त॒ आभृ॑तः। अ॒न्तरि॑क्षे॒ मन॑सा त्वा जुहोमि ब॒र्हिष्टे॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑: । स॒वि॒ता । ते॒ । वय॑: । द॒धौ॒ । त्वष्टु॑: । वा॒यो: । परि॑ । आ॒त्मा । ते॒ । आऽभृ॑त: । अ॒न्तरि॑क्षे । मन॑सा । त्वा॒ । जु॒हो॒मि॒ । ब॒र्हि: । ते॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । स्ता॒म् ॥४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिः सविता ते वयो दधौ त्वष्टुर्वायोः पर्यात्मा त आभृतः। अन्तरिक्षे मनसा त्वा जुहोमि बर्हिष्टे द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पति: । सविता । ते । वय: । दधौ । त्वष्टु: । वायो: । परि । आत्मा । ते । आऽभृत: । अन्तरिक्षे । मनसा । त्वा । जुहोमि । बर्हि: । ते । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । स्ताम् ॥४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. (बृहस्पति:) = वह आकाशादि महान् लोकों का स्वामी, (सविता) = सर्वोत्पादक प्रभु (ते वय: दधौ) = तेरे लिए उत्कृष्ट जीवन को धारण करता है। उस (त्वष्टुः) = सर्वनिर्माता (वायो:) = गति द्वारा बुराइयों का गन्धन [हिंसन] करनेवाले प्रभु से (ते आत्मा) = तेरा आत्मा (परि आभृतः) = समन्तात् पुष्ट किया गया है। २. हे प्रभो! मैं (अन्तरिक्षे) = अपने हृदयान्तरिक्ष में (मनसा) = मनन के द्वारा (त्वा) = आपके (प्रति जुहोमि) = अपने को अर्पित करता हूँ। (ते) = आपके बनाये हुए (उभे द्यावापृथिवी) = ये दोनों मस्तिष्क व शरीर (बर्हि:) = [बृहि वृद्धी] वृद्धिवाले (स्ताम्) = हों। आपके अनुग्रह से मैं अपने मस्तिष्क व शरीर को वृद्धियुक्त कर पाऊँ।

     

    भावार्थ -

    वह बृहस्पति, सविता' प्रभु हमें उत्कृष्ट जीवन प्राप्त कराएँ। त्वष्टा, वायु' हमारे आत्मा का पोषण करें। हम मनन द्वारा प्रभु को हृदय में धारण करें-हमारे मस्तिष्क व शरीर दोनों वृद्धिशील हों।

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