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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ऋषभ सूक्त

    शृङ्गा॑भ्यां॒ रक्ष॑ ऋष॒त्यव॑र्तिं हन्ति॒ चक्षु॑षा। शृ॒णोति॑ भ॒द्रं कर्णा॑भ्यां॒ गवां॒ यः पति॑र॒घ्न्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शृङ्गा॑भ्याम् । रक्ष॑: । ऋ॒ष॒ति॒ । अव॑र्तिम् । ह॒न्ति॒ । चक्षु॑षा । शृ॒णोति॑ । भ॒द्रम् । कर्णा॑भ्याम् । गवा॑म् । य: । पति॑: । अ॒घ्न्य: ॥४.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शृङ्गाभ्यां रक्ष ऋषत्यवर्तिं हन्ति चक्षुषा। शृणोति भद्रं कर्णाभ्यां गवां यः पतिरघ्न्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शृङ्गाभ्याम् । रक्ष: । ऋषति । अवर्तिम् । हन्ति । चक्षुषा । शृणोति । भद्रम् । कर्णाभ्याम् । गवाम् । य: । पति: । अघ्न्य: ॥४.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 17

    पदार्थ -

    १.(य:) = जो भी (गवां पति:) वेदवाणियों का स्वामी बनता है, वह (अघ्न्य:) = विषय-वासनाओं से अहन्तव्य होता है। यह वैषयिक वृत्तियोंवाला नहीं बनता। (कर्णाभ्यां भद्रं शृणोति) = कानों से भद्र को ही सुनता है। यह निन्दा की बातों को सुनने में रुचि नहीं लेता। (शृंगाभ्याम्) = [शृणाति] शरीरस्थ दोषों को विनष्ट करनेवाले प्राणापानरूप शृंगों से (रक्ष:) = सब रोगकृमियों को (ऋषति) = नष्ट कर देता है तथा (चक्षुषा) = ज्ञानदृष्टि से (अवर्ति हन्ति) = दौर्भाग्य [bad fortune, poverty, distress, want] को दूर भगाता है।

    भावार्थ -

    वेदवाणियों का अध्येता 'विषयों में नहीं फँसता, कानों से सदा शुभ सुनता है, प्राणसाधना द्वारा रोगकृमियों का विनाश करता है तथा ज्ञानदृष्टि से दीर्भाग्य को दूर करता है।

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