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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त

    आ न॑यै॒तमा र॑भस्व सु॒कृतां॑ लो॒कमपि॑ गच्छतु प्रजा॒नन्। ती॒र्त्वा तमां॑सि बहु॒धा म॒हान्त्य॒जो नाक॒मा क्र॑मतां तृ॒तीय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒य॒ । ए॒तम् । आ । र॒भ॒स्व॒ । सु॒ऽकृता॑म् । लो॒कम् । अपि॑ । ग॒च्छ॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । ती॒र्त्वा । तमां॑सि । ब॒हु॒ऽधा । म॒हान्ति॑ । अ॒ज: । नाक॑म् । आ । क्र॒म॒ता॒म् । तृ॒तीय॑म् ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नयैतमा रभस्व सुकृतां लोकमपि गच्छतु प्रजानन्। तीर्त्वा तमांसि बहुधा महान्त्यजो नाकमा क्रमतां तृतीयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नय । एतम् । आ । रभस्व । सुऽकृताम् । लोकम् । अपि । गच्छतु । प्रऽजानन् । तीर्त्वा । तमांसि । बहुऽधा । महान्ति । अज: । नाकम् । आ । क्रमताम् । तृतीयम् ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (एतम्) = गतमन्त्र में वर्णित इस 'युवा [प्रभु]' को (आनय) = अपने हृदयदेश में प्राप्त करा और (आरभस्व) =  कर्त्तव्य-कर्मों का आरम्भ कर, प्रभु-स्मरणपूर्वक कर्तव्य कर्मों में लग जा। (प्रजानन्) = ज्ञानवाला होता हुआ पुरुष (सुकृतां लोकम्) = पुण्यकर्मा लोगों के लोक को (अपि गच्छतु) = प्रास हो। २. (महान्ति तमांसि) = महान् अन्धकारों को (बहुधा) = नाना प्रकार से (तीर्त्वा) = तैरकर (अज:) = गति के द्वारा बुराइयों को अपने से परे फेंकनेवाला यह 'पञ्चौदन' [पाँचों इन्द्रियों से ज्ञान का भोजन ग्रहण करनेवाला] जीव (तृतीयं नाकम्) = प्रकृति व जीव से ऊपर उठकर दु:ख के अभाववाले तृतीय सुखमय [आनन्दस्वरूप] प्रभु में (आक्रमताम्) = विचरण करे। प्रकृति के भोगों से हम ऊपर उठे तथा जीव के प्रति भी मोह [राग-द्वेष] से दूर हों। इसप्रकार हम आनन्दमय प्रभु में विचरनेवाले बनें।

    भावार्थ -

    प्रभु-स्मरणपूर्वक कर्तव्य-कर्मों को करते हुए। हम पुण्यकर्मा लोगों के लोकों को प्राप्त करें। अन्धकार से ऊपर उठकर हम प्राकृतिक भोगों व जीव के प्रति राग-द्वेष में न उलझते हुए तृतीय स्थान में स्थित आनन्दमय प्रभु को प्राप्त करें।

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