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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
    सूक्त - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त

    ए॒तद्वो॒ ज्योतिः॑ पितरस्तृ॒तीयं॒ पञ्चौ॑दनं ब्र॒ह्मणे॒ऽजं द॑दाति। अ॒जस्तमां॒स्यप॑ हन्ति दू॒रम॒स्मिंल्लो॒के श्र॒द्दधा॑नेन द॒त्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तत् । व॒: । ज्योति॑: । पि॒त॒र॒: । तृ॒तीय॑म् । पञ्च॑ऽओदनम् । ब्र॒ह्मणे॑ । अ॒जम् । द॒दा॒ति॒ । अ॒ज: । तमां॑स‍ि । अ॑प । ह॒न्ति॒ । दू॒रम् । अ॒स्मिन् । लो॒के । श्र॒त्ऽदधा॑नेन । द॒त्त: ॥५.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतद्वो ज्योतिः पितरस्तृतीयं पञ्चौदनं ब्रह्मणेऽजं ददाति। अजस्तमांस्यप हन्ति दूरमस्मिंल्लोके श्रद्दधानेन दत्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतत् । व: । ज्योति: । पितर: । तृतीयम् । पञ्चऽओदनम् । ब्रह्मणे । अजम् । ददाति । अज: । तमांस‍ि । अप । हन्ति । दूरम् । अस्मिन् । लोके । श्रत्ऽदधानेन । दत्त: ॥५.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. हे (पितर:) = पालन करनेवाले जीवो! (एतत्) = यह (वः) = तुम्हारे लिए (तृतीयं ज्योति:) = तृतीय ज्योति है। प्रकृति व जीव के ज्ञान के पश्चात् प्रभु का ज्ञान 'तृतीय ज्योति' है। ये प्रभु (पञ्चौदनम्) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान का भोजन करनेवाले (अजम्) = गति के द्वारा बुराई को परे फेंकनेवाले जीव को (ब्रह्मणे ददाति) = ज्ञान के लिए दे देते हैं। इसे निरन्तर ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहने की प्रवृत्तिवाला बनाते हैं। २. (अस्मिन् लोके) = इस लोक में अहधानेन-श्रद्धायुक्त मन से (दत्त:) = उस प्रभु के प्रति दिया हुआ [दत्तं यस्य अस्ति] (अज:) = यह जीव (तमांसि दरम् अपहन्ति) = अन्धकारों को अपने से दूर फेंकता है। जब जीव प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता है तब उसका सब अज्ञान-अन्धकार विलीन हो जाता है।

    भावार्थ -

    प्रभु का ज्ञान ही 'तृतीय ज्योति' है। इसे प्रास करनेवाला अपने को प्रभु के प्रति दे डालता है। प्रभु के प्रति अपने को दे डालनेवाला उपासक अज्ञान-अन्धकार को अपने से दूर फेंकता है।

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