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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 24
    सूक्त - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - पञ्चपदानुष्टुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बार्हताविराड्जगती सूक्तम् - अज सूक्त

    इ॒दमि॑दमे॒वास्य॑ रू॒पं भ॑वति॒ तेनै॑नं॒ सं ग॑मयति। इषं॒ मह॒ ऊर्ज॑मस्मै दुहे॒ यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम्ऽइ॑दम् । ए॒व । अ॒स्य॒ । रू॒पम् । भ॒व॒ति॒ । तेन॑ । ए॒न॒म् । सम् । ग॒म॒य॒ति॒ । इष॑म् । मह॑: । ऊर्ज॑म् । अ॒स्मै॒ । दु॒हे॒ । य: । अ॒जम् । पञ्च॑ऽओदनम् । दक्षि॑णाऽज्योतिषम् । ददा॑ति ॥५.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमिदमेवास्य रूपं भवति तेनैनं सं गमयति। इषं मह ऊर्जमस्मै दुहे योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्ऽइदम् । एव । अस्य । रूपम् । भवति । तेन । एनम् । सम् । गमयति । इषम् । मह: । ऊर्जम् । अस्मै । दुहे । य: । अजम् । पञ्चऽओदनम् । दक्षिणाऽज्योतिषम् । ददाति ॥५.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 24

    पदार्थ -

    १. (इदम् इदम् एव) = यह यह ही, अर्थात् प्रत्येक प्राणी ही (अस्य रूपं भवति) = इस प्रभु का रूप होता है। (तेन एनं संगमयति) = उस प्रभु के साथ इस आत्मा को यह मिला देता है, अर्थात् प्राणियों की सेवा में लीन होकर यह अपने को प्रभु के साथ युक्त कर लेता है। प्राणियों की सेवा ही इसका प्रभुपूजन हो जाती है। 'सर्वभूतहिते रत:' ही तो प्रभु का सच्चा भक्त है। २. (यः) = जो उस (पञ्चौदनम्) = पाँचौं भूतों से बने जगत् को ओदन के रूप में प्रलयकाल के समय अपने अन्दर ले-लेनेवाले (दक्षिणाज्योतिषम्) = दान की ज्योतिवाले [सर्वन दानों के प्रकाशवाले] (अजम्) = अजन्मा प्रभु के प्रति (ददाति) = अपने को दे डालता है, (अस्मै) = इसके लिए प्रभु (इषम्) = प्रेरणा, (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति तथा (मह:) = तेजस्विता प्रदान करते हैं।

    भावार्थ -

    सब प्राणियों में प्रभु के रूप को देखते हुए हम अपने को प्रभु में संगत कर दें। हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करेंगे तो प्रभु हमें 'प्ररेणा, बल व तेजस्विता' प्राप्त कराएँगे।

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