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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 12
    सूक्त - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त

    ई॑जा॒नानां॑ सु॒कृतां॑ लो॒कमीप्स॒न्पञ्चौ॑दनं ब्र॒ह्मणे॒ऽजं द॑दाति। स व्याप्तिम॒भि लो॒कं ज॑यै॒तं शि॒वो॒ऽस्मभ्यं॒ प्रति॑गृहीतो अस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒जा॒नाना॑म् । सु॒ऽकृता॑म् । लो॒कम् । ईप्स॑न् । पञ्च॑ऽओदनम् । ब्र॒ह्मणे॑ । अ॒जम् । द॒दा॒ति॒ । स: । विऽआ॒प्तिम् । अ॒भि । लो॒कम् । ज॒य॒ । ए॒तम् । शि॒व: । अ॒स्मभ्य॑म् । प्रति॑ऽगृहीत:। अ॒स्तु॒ ॥५.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईजानानां सुकृतां लोकमीप्सन्पञ्चौदनं ब्रह्मणेऽजं ददाति। स व्याप्तिमभि लोकं जयैतं शिवोऽस्मभ्यं प्रतिगृहीतो अस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईजानानाम् । सुऽकृताम् । लोकम् । ईप्सन् । पञ्चऽओदनम् । ब्रह्मणे । अजम् । ददाति । स: । विऽआप्तिम् । अभि । लोकम् । जय । एतम् । शिव: । अस्मभ्यम् । प्रतिऽगृहीत:। अस्तु ॥५.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 12

    पदार्थ -

    १. (ईजानानाम्) = यज्ञशील (सुकृताम्) = पुण्यकर्मा लोगों के (लोकम् ईप्सन्) = लोक को चाहता हुआ व्यक्ति (पञ्चौदनम्) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान का भोजन ग्रहण करनेवाले (अजम्) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले अपने को (बह्मणे ददाति) = ब्रह्म के लिए दे डालता है। जो भी पुण्यलोक की कामना करता है, वह अपने को ब्रह्म के प्रति दे डालता है। २. (स:) = वह  (व्याप्तिम् अभि) = [वि आसि] सुखविशेष की प्राप्ति का लक्ष्य करके (एतं लोकं जय) = इस लोक को जीतनेवाला बन । इस लोक के विजय के बिना उस परमानन्द की प्राति सम्भव नहीं। वह (प्रतिगृहीत:) = प्रत्येक पिण्ड [वस्तु] में ग्रहण किया गया-प्रत्येक वस्तु में विद्यमान प्रभु (अस्मभ्यं शिवः अस्तु) = हमारे लिए कल्याणकर हो।

    भावार्थ -

    उत्तम लोकों को प्राप्त करने की इच्छा से हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। परमानन्द की प्राप्ति के लिए इस लोक की विजय आवश्यक है। प्रत्येक पिण्ड में विद्यमान प्रभु हमारा कल्याण करें।

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