अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 19
यं ब्रा॑ह्म॒णे नि॑द॒धे यं च॑ वि॒क्षु या वि॒प्रुष॑ ओद॒नाना॑म॒जस्य॑। सर्वं॒ तद॑ग्ने सुकृ॒तस्य॑ लो॒के जा॑नी॒तान्नः॑ सं॒गम॑ने पथी॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । ब्रा॒ह्म॒णे । नि॒ऽद॒धे । यम् । च॒ । वि॒क्षु । या: । वि॒ऽप्रुष॑: । ओ॒द॒नाना॑म् । अ॒जस्य॑ । सर्व॑म् । तत् । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒के । जा॒नी॒तात् । न॒: । स॒म्ऽगम॑ने । प॒थी॒नाम् ॥५.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
यं ब्राह्मणे निदधे यं च विक्षु या विप्रुष ओदनानामजस्य। सर्वं तदग्ने सुकृतस्य लोके जानीतान्नः संगमने पथीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । ब्राह्मणे । निऽदधे । यम् । च । विक्षु । या: । विऽप्रुष: । ओदनानाम् । अजस्य । सर्वम् । तत् । अग्ने । सुऽकृतस्य । लोके । जानीतात् । न: । सम्ऽगमने । पथीनाम् ॥५.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 19
विषय - 'आदित्य, रुद्र व वसु' ब्रह्मचारियों का ज्ञान
पदार्थ -
१. (यम्) = जिस आत्मज्ञान को प्रभु ने (ब्राह्मणे निदधे) = ब्रह्मज्ञानी में [आदित्य ब्रह्मचारी में] स्थापित किया है, (च) = और (यम्) = जीव के कर्तव्यों के जिस ज्ञान को (विक्षु) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली प्रजाओं में [रुद्र ब्रह्मचारियों में] रक्खा है तथा (या) = जो (अजस्य) = जीवात्मा के (ओदनानाम्) = प्रकृति विज्ञानों के (विपुषः) = जलकण हैं, [जिन्हें कि वसु ब्रह्मचारी प्राप्त करते हैं], हे (अग्ने) = प्रभो! (तत् सर्वम्) = वह सब-ब्रह्मज्ञान, जीव-कर्तव्यज्ञान व प्रकृति विज्ञान (न:) = हमें भी (जानीतान्) = जाने, अर्थात् हमें भी प्रास हो। २. यह ज्ञान हमें उस समय प्राप्त हो जबकि हम (सुकृतस्य लोके) = पुण्य के लोक में निवास करनेवाले बनें तथा (पथीनां संगमने) = मार्गों पर सम्यक् गमन करनेवाले हों। पुण्य-कर्मों को करते हुए व मार्ग-भ्रष्ट न होते हुए हम उस सब ज्ञान विज्ञान को प्राप्त करें।
भावार्थ -
प्रभु जो आत्मज्ञान आदित्य ब्रह्मचारियों को प्राप्त कराते हैं, जिस जीवनकर्तव्य ज्ञान को रुद्र ब्रह्मचारियों को देते हैं तथा जो प्रकृतिविज्ञान के बिन्दु बसु ब्रह्मचारियों को प्राप्त होते हैं, हम पुण्य-कर्म करते हुए व शुभ-मार्ग पर बढ़ते हुए, उस सब ज्ञान को प्राप्त करें।
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