अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
उत्क्रा॒मातः॒ परि॑ चे॒दत॑प्तस्त॒प्ताच्च॒रोरधि॒ नाकं॑ तृ॒तीय॑म्। अ॒ग्नेर॒ग्निरधि॒ सं ब॑भूविथ॒ ज्योति॑ष्मन्तम॒भि लो॒कं ज॑यै॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । क्रा॒म॒ । अत॑: । परि॑ । च॒ । इत् । अत॑प्त: । त॒प्तात् । च॒रो: । अधि॑ । नाक॑म् । तृ॒तीय॑म् । अ॒ग्ने: । अ॒ग्नि: । अधि॑ । सम् । ब॒भू॒वि॒थ॒ । ज्योति॑ष्मन्तम् । अ॒भि । लो॒कम् । ज॒य॒ । ए॒तम् ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्क्रामातः परि चेदतप्तस्तप्ताच्चरोरधि नाकं तृतीयम्। अग्नेरग्निरधि सं बभूविथ ज्योतिष्मन्तमभि लोकं जयैतम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । क्राम । अत: । परि । च । इत् । अतप्त: । तप्तात् । चरो: । अधि । नाकम् । तृतीयम् । अग्ने: । अग्नि: । अधि । सम् । बभूविथ । ज्योतिष्मन्तम् । अभि । लोकम् । जय । एतम् ॥५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
विषय - तप्त चरु व ज्योतिर्मय लोक
पदार्थ -
१. हे जीव! (चेत) = यदि तू (अत:) = ज्ञानाग्नि में परिपाकरूप इस कार्य से (परि अतम:) = सब प्रकार से सन्तस [दुःखी] नहीं हो गया, अर्थात् आचार्यकुल में निवास की तपस्या से तू व्याकुल व निर्विण्ण नहीं हो गया तो (तप्तात् चरो:) = खूब दीप्त ज्ञान के भोजन से [चर गती, गति:-ज्ञानम्] (तृतीयं नाकम्) = प्रकृति और जीव से ऊपर तृतीय आनन्दमय ब्रह्मलोक में (अधि उत्क्राम) = प्रकृष्ट गतिवाला हो। २. हे साधक! तू (अग्नि: अधि) = अग्निरूप आचार्य से (अग्रिः संबभूविथ) = अग्नि ही बन गया है। आचार्य ज्ञानाग्नि से दीप्त था, तू भी ज्ञानाग्नि से दीस बना है, अत: अब (एतम्) = इस (ज्योतिष्यन्तम्) = प्रकाशमय (लोकम् अभिजय) = लोक को जीतनेवाला बन।
भावार्थ -
आचार्यकुल मे तपस्यापूर्वक निवास करता हुआ ब्रह्मचारी यदि अपने को ज्ञानाग्नि में खूब परिपक्व करता है तो इस संसार में प्राकृतिक भोगों व पारस्परिक कलहों का शिकार न होकर मोक्ष को प्राप्त करता है और अपने गृहस्थ को भी ज्योतिर्मय बना पाता है।
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