अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
अ॒जो अ॒ग्निर॒जमु॒ ज्योति॑राहुर॒जं जीव॑ता ब्र॒ह्मणे॒ देय॑माहुः। अ॒जस्तमां॒स्यप॑ हन्ति दू॒रम॒स्मिंल्लो॒के श्र॒द्दधा॑नेन द॒त्तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ज: । अ॒ग्नि: । अ॒जम् । ऊं॒ इति॑ । ज्योति॑: । आ॒हु॒: । अ॒जम् । जीव॑ता । ब्र॒ह्मणे॑ । देय॑म् । आ॒हु॒: । अ॒ज: । तमां॑सि । अप॑ । ह॒न्ति॒ । दू॒रम् । अ॒स्मिन् । लो॒के । श्र॒त्ऽदधा॑नेन । द॒त्त: ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अजो अग्निरजमु ज्योतिराहुरजं जीवता ब्रह्मणे देयमाहुः। अजस्तमांस्यप हन्ति दूरमस्मिंल्लोके श्रद्दधानेन दत्तः ॥
स्वर रहित पद पाठअज: । अग्नि: । अजम् । ऊं इति । ज्योति: । आहु: । अजम् । जीवता । ब्रह्मणे । देयम् । आहु: । अज: । तमांसि । अप । हन्ति । दूरम् । अस्मिन् । लोके । श्रत्ऽदधानेन । दत्त: ॥५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
विषय - अज-'अग्नि + ज्योति'
पदार्थ -
१. (अजः) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाला यह जीव (अग्नि:) = अग्नि है, यह प्रगतिशील होता है, (उ) = और (अजम्) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले को (ज्योति: आहु:) = प्रकाश कहते हैं। यह अज प्रकाशमय जीवनवाला होता है। (जीवता) = जीवन को धारण करनेवाले पुरुष से (अजम्) = इस अज को-जीवात्मा को (ब्रह्मणे) = प्रभु व ज्ञान के लिए (देयम् आहुः) = देने योग्य कहते हैं। हमें चाहिए कि हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें और ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहें। २. (अस्मिन् लोके) = इस लोक में (अत् दधानेन दत्त:) = श्रद्धायुक्त पुरुष से प्रभु के प्रति अर्पित किया हुआ (अज:) = आत्मा-गति के द्वारा बुराइयों को दूर करनेवाला व्यक्ति (तमांसि दूरम् अपहन्ति) = अन्धकारों को अपने से दूर फेंकता है।
भावार्थ -
हम गति द्वारा बुराइयों को दूर फेंकते हुए गतिशील व ज्योतिर्मय जीवनवाले बनें। प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हुए श्रद्धामय जीवनवाले बनकर अज्ञान-अन्धकार को अपने से दूर फेंकें।
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