अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 27
या पूर्वं॒ पतिं॑ वि॒त्त्वाऽथा॒न्यं वि॒न्दतेऽप॑रम्। पञ्चौ॑दनं च॒ ताव॒जं ददा॑तो॒ न वि यो॑षतः ॥
स्वर सहित पद पाठया । पूर्व॑म् । पति॑म् । वि॒त्त्वा । अथ॑ । अ॒न्यम् । वि॒न्दते॑ । अप॑रम् । पञ्च॑ऽओदनम् । च॒ । तौ । अ॒जम् । ददा॑त: । न । वि । यो॒ष॒त॒: ॥५.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
या पूर्वं पतिं वित्त्वाऽथान्यं विन्दतेऽपरम्। पञ्चौदनं च तावजं ददातो न वि योषतः ॥
स्वर रहित पद पाठया । पूर्वम् । पतिम् । वित्त्वा । अथ । अन्यम् । विन्दते । अपरम् । पञ्चऽओदनम् । च । तौ । अजम् । ददात: । न । वि । योषत: ॥५.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 27
विषय - प्रभुस्मरणपूर्वक सखा का वरण
पदार्थ -
१. (या) = जो युवति (पूर्वम्) = सबका पालन व पूरण करनेवाले [ पालनपूरणयोः] (पतिम्) = रक्षक प्रभु को (वित्त्वा) = प्राप्त करके (अथ) = अब (अन्यम्) = दूसरे (अपरम्) = और पति को (विन्दते) = प्राप्त करती है, अर्थात् यह युवति सर्वरक्षक प्रभु को साक्षी बनाकर लौकिक सखा [पति] को स्वीकार करती है, (च) = और यदि (तौ) = वे दोनों पति-पत्नी (पञ्चौदनम्) = पाँचों भूतों को अपना ओदन बना लेनेवाले (अजम्) = अजन्मा प्रभु के प्रति (ददात:) = अपने को दे डालते हैं, प्रभु के प्रति अपना समर्पण कर देते हैं तो (न वियोषत:) = कभी पृथक् नहीं होते। इन्हें विधुरता व वैधव्य का कष्ट नहीं सहना पड़ता-इनका परस्पर प्रेम बना रहता है।
भावार्थ -
प्रभुस्मरणपूर्वक एक युवति अपने जीवनसाथी को चुनती है और गृहस्थ में यदि ये दोनों प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हैं, तो ये एक-दूसरे से पृथक् नहीं होते-इनका परस्पर प्रेम बना रहता है।
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