अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 13
अ॒जो ह्यग्नेरज॑निष्ट॒ शोका॒द्विप्रो॒ विप्र॑स्य॒ सह॑सो विप॒श्चित्। इ॒ष्टं पू॒र्तम॒भिपू॑र्तं॒ वष॑ट्कृतं॒ तद्दे॒वा ऋ॑तु॒शः क॑ल्पयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ज: । हि । अ॒ग्ने: । अज॑निष्ट । शोका॑त् । विप्र॑: । विप्र॑स्य । सह॑स: । वि॒प॒:ऽचित् । इ॒ष्टम् । पू॒र्तम् । अ॒भिऽपू॑र्तम् । वष॑ट्ऽकृतम् । तत् । दे॒वा: । ऋ॒तु॒ऽश: । क॒ल्प॒य॒न्तु॒ ॥५.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकाद्विप्रो विप्रस्य सहसो विपश्चित्। इष्टं पूर्तमभिपूर्तं वषट्कृतं तद्देवा ऋतुशः कल्पयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअज: । हि । अग्ने: । अजनिष्ट । शोकात् । विप्र: । विप्रस्य । सहस: । विप:ऽचित् । इष्टम् । पूर्तम् । अभिऽपूर्तम् । वषट्ऽकृतम् । तत् । देवा: । ऋतुऽश: । कल्पयन्तु ॥५.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 13
विषय - अज, विप्र, विपश्चित्
पदार्थ -
१. (अग्ने:) = प्रकाशमय अग्रणी प्रभु की (शोकात्) = दीप्ति से यह उपासक भी (हि) = निश्चय से (अजः अजनष्टि) = गति के द्वारा बुराई को परे फेंकनेवाला बनता है। प्रभु की दीसि इसके जीवन को पवित्र बना डालती है। यह (विप्रस्य) = [वि+प्रा] विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्रभु के (सहस:) = बल से (विप्रः) = अपना पूरण करनेवाला (विपश्चित) = ज्ञानी बनता है। २. यह 'अज, विप्र, विपश्चित्' गति-[कर्म]-शील, अपना पूरण करनेवाला [उपासना], ज्ञानी [ज्ञान] देव बनता है। ये (देवा:) = देव (वषट् कृतम्) = जिसमें स्वार्थ की आहुति दे दी जाती है, (तत् इष्टम्) = उस यज्ञ को तथा (अभिपूर्तम्) = मनुष्यों व पशु-पक्षियों-दोनों के पूरण करनेवाले (पूर्तम्) = वापी, कूप तड़ागादि के निर्माणरूप कार्य को (ऋतुश:) = प्रत्येक ऋतु में-ऋतु की आवश्यकता के अनुसार (कल्पयन्तु) = सिद्ध करें। इष्ट व पूर्त के द्वारा ये संसार को सुखमय बनाने के लिए यनशील हों।
भावार्थ -
प्रभु की दीप्ति जीवों को 'अज'-गति द्वारा बुराई को परे फेंकनेवाला बनाती है। 'सर्वतः पूर्ण प्रभु की शक्ति से यह जीव पूर्ण व ज्ञानी [विप्र-विपश्चित्] बनता है। इन देवपुरुषों को चाहिए कि ऋतु के अनुसार 'इष्ट और पूर्त' को सिद्ध करते हुए संसार का पूरण करें इसे सुखमय बनाएँ।
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