अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 38
सूक्त - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - एकावसाना द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अज सूक्त
तास्ते॑ रक्षन्तु॒ तव॒ तुभ्य॑मे॒तं ता॑भ्य॒ आज्यं॑ ह॒विरि॒दं जु॑होमि ॥
स्वर सहित पद पाठता: । ते॒ । र॒क्ष॒न्तु॒ । तव॑ । तुभ्य॑म् । ए॒तम् । ताभ्य॑: । आज्य॑म् । ह॒वि: । इ॒दम् । जु॒हो॒मि॒ ॥५.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
तास्ते रक्षन्तु तव तुभ्यमेतं ताभ्य आज्यं हविरिदं जुहोमि ॥
स्वर रहित पद पाठता: । ते । रक्षन्तु । तव । तुभ्यम् । एतम् । ताभ्य: । आज्यम् । हवि: । इदम् । जुहोमि ॥५.३८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 38
विषय - अज व ओदनों का पाचन
पदार्थ -
१. हे जीवो! (अजं च पचत) = उल्लिखित 'नैदाघ', 'कुर्वन्', "संयन्', 'पिन्वन्', 'उद्यन्' व 'अभिभू' नामक वृत्तियों से जीवात्मा का ठीकरूप में परिपाक करो (च) = और (पञ्च ओदनान) = पाँचों जानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञान-भोजनों का भी परिपाक करो। (सर्वा:) = सब (सान्तर्देशा:) = अन्तर्देशोसहित (दिश:) = दिशाएँ-दिशाओं में स्थित प्राणी (संमनस:) = उत्तम मनवाले होकर (सध्रीची:) = सम्मिलित गतिवाले होकर (ते) = तेरे (एतम्) = इस ज्ञान को (प्रतिगृह्णन्तु) = ग्रहण करनेवाले हों। ज्ञान परिपक्व व्यक्ति जब ज्ञान का प्रसार करे तब सब दिशाओं में स्थित प्राणी उस ज्ञान के ग्रहण की रुचिवाले हों। २. (ता:) = वे सब दिशाएँ (ते) = तेरी हों-तुझे उन दिशाओं की अनुकूलता प्राप्त हो। (तव) = तेरे (एतम्) = इस ज्ञान को [ज्ञान के ओदन को] (तुभ्यम्) = तेरे लिए (रक्षन्तु) = रक्षित करें। मैं (ताभ्य:) = उन सब दिशाओं के लिए उनकी अनुकूलता के लिए (इदम्) = उस (आग्यम्) = घृत को और (हवि:) = हवियों को (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। अग्निहोत्र से वायु शुद्ध होकर नीरोगता प्राप्त होती है। ज्ञान-प्राति के लिए नीरोगता की नितान्त आवश्यकता है।
भावार्थ -
हम तपस्या की अग्नि में आत्मा का परिपाक करें तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञानों को प्राप्त करें। इस ज्ञान को सब दिशाओं में स्थित मनुष्य ग्रहण करें। हमें इन दिशाओं की अनुकूलता प्राप्त हो। अग्निहोत्र द्वारा ये सब दिशाएँ शुद्ध वायुबाली होकर नीरोगता को सिद्ध करें।
विशेष -
॥ इति विंशः प्रपाठकः ।। विशेष-पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान के भोजन का परिपाक करनेवाला 'ब्रह्मा' अगले दो सूक्कों का ऋषि है अथैकविंश: प्रपाठकः