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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त

    इन्द्रा॑य भा॒गं परि॑ त्वा नयाम्य॒स्मिन्य॒ज्ञे यज॑मानाय सू॒रिम्। ये नो॑ द्वि॒षन्त्यनु॒ तान्र॑भ॒स्वाना॑गसो॒ यज॑मानस्य वी॒राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑य । भा॒गम् । परि॑ । त्वा॒ । न॒या॒मि॒ । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । यज॑मानाय । सू॒रिम् । ये । न॒: । द्वि॒षन्ति॑ । अनु॑ । तान् । र॒भ॒स्व॒ । अना॑गस: । यज॑मानस्य । वी॒रा: ॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय भागं परि त्वा नयाम्यस्मिन्यज्ञे यजमानाय सूरिम्। ये नो द्विषन्त्यनु तान्रभस्वानागसो यजमानस्य वीराः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय । भागम् । परि । त्वा । नयामि । अस्मिन् । यज्ञे । यजमानाय । सूरिम् । ये । न: । द्विषन्ति । अनु । तान् । रभस्व । अनागस: । यजमानस्य । वीरा: ॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (भागम्) = सेवीय [भज सेवायाम्] (सूरिम्) = ज्ञानी प्रभु को (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय, (यजमानाय) = यज्ञशील (त्वा) = तेरे लिए (अस्मिन् यज्ञे) = इस जीवन-यज्ञ में (परिनयामि) = प्राप्त कराता हूँ। जितेन्द्रिय व यज्ञशील पुरुष ही प्रभु-प्राप्ति का पात्र बनता है। २. (ये) = जो (न:) = हमें (द्विषन्ति) = अप्रीति से वर्तते है, अर्थात् जो दोष हमारे लिए हानिकर होते हैं, (तान् अनु) = उन्हें लक्ष्य करके (रभस्व) = [clasp, embrace] उस प्रभु का आलिंगन करनेवाला बन। प्रभु का आलिंगन इन सब अप्रीतिकर दोषों को दूर कर देगा। इस निर्दोष जीवनवाले (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुष के (वीरा:) = वीर सन्तान (अनागस:) = निर्दोष होते हैं। वे सन्तान यज्ञशील बनते हैं।

    भावार्थ -

    हम जितेन्द्रिय व यज्ञशील बनते हुए उस भजनीय, ज्ञानी प्रभु को प्रास करें। प्रभु का आलिंगन हमारे जीवन को निर्दोष बनाएगा। निर्दोष यज्ञशील पुरुष के सन्तान भी निष्पाप ही बनते हैं।

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