अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 28
स॑मा॒नलो॑को भवति पुन॒र्भुवाप॑रः॒ पतिः॑। यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नऽलो॑क: । भ॒व॒ति॒ । पु॒न॒:ऽभुवा॑ । अप॑र: । पति॑: । य: । अ॒जम् । पञ्च॑ऽओदनम् । दक्षि॑णाऽज्योतिषम् । ददा॑ति ॥५.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
समानलोको भवति पुनर्भुवापरः पतिः। योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥
स्वर रहित पद पाठसमानऽलोक: । भवति । पुन:ऽभुवा । अपर: । पति: । य: । अजम् । पञ्चऽओदनम् । दक्षिणाऽज्योतिषम् । ददाति ॥५.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 28
विषय - समानलोकता
पदार्थ -
१. प्रभु को अपना प्रथम पति समझनेवाली युवति जब एक लौकिक पति का वरण करती है तब यह 'पुनर्भूः' कहलाती है। प्रभु से भिन्न (य:) = जो (अपरः पतिः) = दूसरा लौकिक पति है, वह (पुनर्भुवा) = उस पुनर्भू युवति के साथ (समानलोकः भवति) = समान लोक में रहनेवाला होता है। होता यह तभी है यदि वह (पञ्चौदनम्) = पाँचों भूतों को अपना ओदन बना लेनेवाले (दक्षिणाग्योतिषम्) = दान की ज्योतिवाले (अजम्) = अजन्मा प्रभु को (ददाति) = अपने को दे डालता है, प्रभु के प्रति अपना समर्पण कर देता है।
भावार्थ -
प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला युवक अपने जीवन-साथी [पनी] के साथ समान लोक में निवास करनेवाला होता है।
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