अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
सूक्त - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - त्रिपदानुष्टुप्
सूक्तम् - अज सूक्त
अ॒जो॒स्यज॑ स्व॒र्गोसि॒ त्वया॑ लो॒कमङ्गि॑रसः॒ प्राजा॑नन्। तं लो॒कं पुण्यं॒ प्र ज्ञे॑षम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ज: । अ॒सि॒ । अज॑ । स्व॒:ऽग: । अ॒सि॒ । त्वया॑ । लो॒कम् । अङ्गि॑रस: । प्र । अ॒जा॒न॒न् । तम् । लो॒कम् । पुण्य॑म् । प्र । ज्ञे॒ष॒म् ॥५.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अजोस्यज स्वर्गोसि त्वया लोकमङ्गिरसः प्राजानन्। तं लोकं पुण्यं प्र ज्ञेषम् ॥
स्वर रहित पद पाठअज: । असि । अज । स्व:ऽग: । असि । त्वया । लोकम् । अङ्गिरस: । प्र । अजानन् । तम् । लोकम् । पुण्यम् । प्र । ज्ञेषम् ॥५.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 16
विषय - अज-स्वर्ग
पदार्थ -
१. हे (अज) = [अज गतिक्षेपणयोः] गतिशील जीव! तू (अजः असि) = गति के द्वारा बुराइयों को अपने से दूर फेंकनेवाला है। बुराइयों को दूर फेंककर (स्वर्ग: असि) = प्रकाश व सुख की ओर जानेवाला है। (त्वया) = तेरे साथ (अङ्गिरस:) = अङ्ग-अङ्ग में रसवाले ये गतिशील लोग (लोकं प्रजानन्) = उस प्रकाशमय प्रभु को जान पाते हैं। तैरे साथ ज्ञानचर्चा करते हुए वे अङ्गिरस् प्रभु का ज्ञान प्राप्त करते हैं। २. मनुष्य यही कामना करे कि (तम्) = उस (लोकम्) = प्रकाशमय (पुण्यम्) = पवित्र प्रभु को (प्रज्ञेषम्) = मैं जान पाऊँ। अन्ततः यह ज्ञान ही मनुष्य का कल्याण करनेवाला है।
भावार्थ -
जीव 'अज' है, 'स्वर्ग' है। उसे गतिशील बनकर बुराई को अपने से परे फेंक कर प्रकाश प्राप्त करना है। उसके साथ ज्ञानचर्चा करते हुए अन्य लोग भी प्रभु को जान पाएँ। दम 'धान' की एक ही कामना हो कि 'मैं रम प्रकाशमय पवित्र प्रभु को प्राप्त कर पा'।
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