अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 23
नास्यास्थी॑नि भिन्द्या॒न्न म॒ज्ज्ञो निर्ध॑येत्। सर्व॑मेनं समा॒दाये॒दमि॑दं॒ प्र वे॑शयेत् ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्य॒ । अस्थी॑नि । भि॒न्द्या॒त् । न । म॒ज्ज्ञ: । नि: । ध॒ये॒त् । सर्व॑म् । ए॒न॒म् । स॒म्ऽआ॒दाय॑ । इ॒दम्ऽइ॑दम् । प्र । वे॒श॒ये॒त् ॥५.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्यास्थीनि भिन्द्यान्न मज्ज्ञो निर्धयेत्। सर्वमेनं समादायेदमिदं प्र वेशयेत् ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्य । अस्थीनि । भिन्द्यात् । न । मज्ज्ञ: । नि: । धयेत् । सर्वम् । एनम् । सम्ऽआदाय । इदम्ऽइदम् । प्र । वेशयेत् ॥५.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 23
विषय - स्वस्थ व दृढ़ शरीर का प्रभु के प्रति अर्पण
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि (अस्य) = इस शरीर की (अस्थीनि) = हड्डियों को (न भिन्द्यात्) = न तोड़े। इस शरीर की अस्थियों को दृढ़ बनाये। (मज्ज्ञः न निर्धयेत) = मज्जाओं को भी पी न जाए-इन्हें सारशून्य न कर दे। इसप्रकार (एनम्) = इस शरीर को (सर्वम्) = पूर्ण व स्वस्थ [Whole] (समादाय) = लेकर (इदम् इदम्) = इस शरीर को इस प्रभु में ही (प्रवेशयेत्) = प्रविष्ट कर दे। अपने को पूर्णरूप से प्रभु में अर्पित करनेवाला बने।
भावार्थ -
हम स्वस्थ व दृढ़ शरीरवाले बनकर इस स्वस्थ व दृढ़ शरीर को प्रभु के प्रति समर्पण करनेवाले बनें।
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