अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 32
सूक्त - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - दशपदा प्रकृतिः
सूक्तम् - अज सूक्त
यो वै कु॒र्वन्तं॒ नाम॒र्तुं वेद॑। कु॑र्व॒तींकु॑र्वतीमे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रिय॒मा द॑त्ते। ए॒ष वै कु॒र्वन्नाम॒र्तुर्यद॒जः पञ्चौ॑दनः। निरे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रियं॑ दहति॒ भव॑त्या॒त्मना॒ यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । वै । कु॒र्वन्त॑म् । नाम॑ । ऋ॒तुम् । वेद॑ । कु॒र्व॒तीम्ऽकु॑र्वतीम् । ए॒व । अप्रि॑यस्य । भ्रातृ॑व्यस्य । श्रिय॑म् । आ । द॒त्ते॒ । ए॒ष: । वै । कु॒र्वन् । नाम॑ । ऋ॒तु: । यत् । अ॒ज: । पञ्च॑ऽओदन:॥५.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वै कुर्वन्तं नामर्तुं वेद। कुर्वतींकुर्वतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वै कुर्वन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । वै । कुर्वन्तम् । नाम । ऋतुम् । वेद । कुर्वतीम्ऽकुर्वतीम् । एव । अप्रियस्य । भ्रातृव्यस्य । श्रियम् । आ । दत्ते । एष: । वै । कुर्वन् । नाम । ऋतु: । यत् । अज: । पञ्चऽओदन:॥५.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 32
विषय - नैदाघ, कुर्वन, संयन्
पदार्थ -
१. (यः) = जो (वै) = निश्चय से (नैदाघम् नाम ऋतं वेद) = 'नैदाघ' नामवाली ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन:) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान-भोजन को ग्रहण करनेवाला अज: गति के द्वारा बुराई को परे फेंकनेवाला जीव ही (वै) = निश्चय से (नैदाघः नाम ऋतुः) = नैदाघ नामक ऋतु हैं। यह जीव नियमपूर्वक गतिवाला होने से ऋतु है [ऋ गतौ] अपने को ज्ञान व तपस्या की अग्नि में खूब ही दग्ध करनेवाला होने से नैदाघ' है। (यः) = जो नैदाघ (पञ्चौदनम्) = प्रलयकाल के समय पाँचों भूतों से बने संसार को अपना ओदन बना लेनेवाले (दक्षिणाग्योतिषम्) = दान की ज्योतिवाले-सर्वत्र प्रकट दानोंवाले (अजम्) = अजन्मा प्रभु के प्रति (ददाति) = अपने को दे डालता है, वह (अप्रियस्य भ्रातृव्यस्य) = अप्रीतिकर शत्रुभूत 'काम' की (श्रियं निर्दहति एव) = शोभा को, दग्ध ही कर देता है और (आत्मना भवति) = अपने साथ होता है, अर्थात् अपना सन्तुलन नहीं खोता, शान्त रहता है। २. (यः वै कुर्वन्तं नाम ऋतुं वेद) = जो 'कुर्वन्' नामवाली ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन: अजः) = पञ्चौदन अज ही (वै) = निश्चय से कुर्वन् नाम ऋतु: कुर्वन् नामक ऋतु है। नियमित गतिवाला होने से ऋतु है तथा निरन्तर क्रियाशील होने से 'कुर्वन्' है। यह (अप्रियस्य भातृव्यस्य) = अप्रीतिकर शत्रुभूत 'क्रोध' की (कुर्वती कुर्वतीम्) = उन-उन कार्यों को करती हुई (श्रियम् आदते) = श्री को छीन लेता है। क्रोध को श्रीशून्य [पराजित-विनष्ट] करके यह अपने कर्तव्य-कर्मों को करने में लगा रहता है। ३. (यः संयन्तं नाम ऋतुं वेद) = जो 'संयन्' नामवाली ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन: अज:) = पञ्चौदन अज ही (वै) = निश्चय से (संयन् नाम ऋतु:) = संयन् नामवाला ञातु है। नियमित गति के कारण ऋतु है, तो संयम के कारण 'संयन्' है। यह पुरुष (अप्रियस्य भातृव्यस्य) = अप्रीतिकर लोभ' रूप शत्रु की संयती (संयतीम् एव) = हमें बारम्बार बाँधनेवाली (श्रियम्) = श्री को आदते छीन लेता है। लोभ को विनष्ट करके यह इन्द्रियों का संयम करता हुआ सचमुच 'संयन्' बनता है।
भावार्थ -
हम अपने को ज्ञान व तपस्या में दग्ध करके 'नैदाघ' बनें, निरन्तर कर्म करते हुए 'कुर्वन्' बनें, संयम को सिद्ध करते हुए 'संयन्' हों। "नैदाघ' बनकर काम पर विजय करें, 'कुर्वन्' बनते हुए 'क्रोध' से दूर रहें तथा 'लोभ' को नष्ट करके 'संयन्' हों। इन सब बातों के लिए प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें।
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