अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
ए॒तास्त्वा॒जोप॑ यन्तु॒ धाराः॑ सो॒म्या दे॒वीर्घृ॒तपृ॑ष्ठा मधु॒श्चुतः॑। स्त॑भान पृ॑थि॒वीमु॒त द्यां नाक॑स्य पृ॒ष्ठेऽधि॑ स॒प्तर॑श्मौ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता: । त्वा॒ । अ॒ज॒ । उप॑ । य॒न्तु॒ । धारा॑: । सो॒म्या: । दे॒वी: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । म॒धु॒ऽश्चुत॑: । स्त॒भा॒न् । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठे । अधि॑ । स॒प्तऽर॑श्मौ ॥५.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
एतास्त्वाजोप यन्तु धाराः सोम्या देवीर्घृतपृष्ठा मधुश्चुतः। स्तभान पृथिवीमुत द्यां नाकस्य पृष्ठेऽधि सप्तरश्मौ ॥
स्वर रहित पद पाठएता: । त्वा । अज । उप । यन्तु । धारा: । सोम्या: । देवी: । घृतऽपृष्ठ: । मधुऽश्चुत: । स्तभान् । पृथिवीम् । उत । द्याम् । नाकस्य । पृष्ठे । अधि । सप्तऽरश्मौ ॥५.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 15
विषय - प्रकाशमय व आनन्दमय लोक में
पदार्थ -
१. हे (अज) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले जीव! (एता:) = ये (सोम्या:) = सोम सम्बन्धी [वीर्य की] (धारा:) = धारणशक्तियाँ (त्वा उपयन्तु) = तुझे समीपता से प्रात हों। ये धाराएँ (देवी:) = सब रोगों की विजिगीषावाली है-नीरोग बनानेवाली हैं, (घृतपृष्ठा:) = ज्ञानदीप्ति से सिक्त करनेवाली हैं [प्रष् सेचने] और (मधुश्चत:) = हृदय में माधुर्य को क्षरित [संचरित] करनेवाली हैं। शरीर में सुरक्षित सोम हमें नीरोग, ज्ञानदीप्त व मधुर स्वभावाला बनाता है। २. इस सोमरक्षण के द्वारा तू (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवी को (उत) = और (द्याम्) = मस्तिष्करूप धुलोक को (स्तभान) = थाम। तू सोम-रक्षण करता हुआ शरीर को शक्ति-सम्पन्न व मस्तिष्क को ज्ञान-सम्पन्न बना। ऐसा करता हुआ तू (नाकस्य पृष्ठे) = आनन्दमय लोक के आधार में स्थित हो तथा (सप्तरश्मौ अधि) = सत छन्दोमयी ज्ञान किरणोंवाली इस वेदवाणी में स्थित हो।
भावार्थ -
सोमरक्षण के द्वारा हम जीवन को नीरोग, ज्ञानदीत व मधुर बनाएँ। शरीर व मस्तिष्क का धारण करते हुए प्रकाशमय व आनन्दमय लोकों में विचरे।
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