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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त

    पञ्चौ॑दनः पञ्च॒धा वि क्र॑मतामाक्रं॒स्यमा॑न॒स्त्रीणि॒ ज्योतीं॑षि। ई॑जा॒नानां॑ सु॒कृतां॒ प्रेहि॒ मध्यं॑ तृ॒तीये॒ नाके॒ अधि॒ वि श्र॑यस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पञ्च॑ऽओदन: । प॒ञ्च॒ऽधा । वि । क्र॒म॒ता॒म् । आ॒ऽक्रं॒स्यमा॑न: । त्रीणि॑ । ज्योतीं॑षि । ई॒जा॒नाना॑म् । सु॒ऽकृता॑म् । प्र । इ॒हि॒ । मध्य॑म । तृ॒तीये॑ । नाके॑ । अधि॑ । वि । श्र॒य॒स्व॒ ॥५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पञ्चौदनः पञ्चधा वि क्रमतामाक्रंस्यमानस्त्रीणि ज्योतींषि। ईजानानां सुकृतां प्रेहि मध्यं तृतीये नाके अधि वि श्रयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पञ्चऽओदन: । पञ्चऽधा । वि । क्रमताम् । आऽक्रंस्यमान: । त्रीणि । ज्योतींषि । ईजानानाम् । सुऽकृताम् । प्र । इहि । मध्यम । तृतीये । नाके । अधि । वि । श्रयस्व ॥५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. प्रभु ने जीव को पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच ज्ञानरूप भोजनों को प्राप्त करने के लिए दी हैं, अतः जीव पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता हुआ 'पञ्चौदन' कहलाता है। यह (पञ्चौदन:) = पञ्चौदन जीव (त्रीणि) = तीन (ज्योतींषि) = ज्योतियों को (आक्रस्यमान:) = आक्रान्त [प्राप्त] करने की इच्छा करता हुआ (पञ्चधा विक्रमताम्) = पाँच प्रकार से विक्रमवाला हो, अर्थात् पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान-प्राप्ति में लगा रहे। प्रकृति का ज्ञान 'प्रथम ज्योति' है, जीव का ज्ञान 'द्वितीय ज्योति' तथा परमात्मा का ज्ञान 'तृतीय ज्योति' है। इसे इन तीनों ही ज्योतियों को प्राप्त करना है। यह सम्भव तभी होगा जबकि ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान-प्राप्ति को ही मुख्य उद्देश्य बनाये रक्खेंगी। इनका विषयों की ओर झुकाव होते ही ज्ञान-प्राप्ति का क्रम समाप्त हो जाता है। २. अतः ज्ञान-प्राप्ति में लगा हुआ तू (ईजानानाम्) = यज्ञशील (सुकृताम्) = पुण्यकर्मा लोगों के (मध्यं प्रेहि) = मध्य में प्राप्त हो। तू भी यज्ञशील व सुकर्मा बनकर अपने को (तृतीये नाके अधिविश्रयस्व) = प्रकृति व जीव से ऊपर तृतीय आनन्दमय ब्रह्मलोक में स्थापित कर ।

    भावार्थ -

    हम पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानप्राप्ति के कार्य में लगे रहें। यज्ञशील व पुण्यकर्मा बनकर ब्रह्मलोक में विचरण करनेवाले बनें।

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