अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 26
सूक्त - भृगुः
देवता - अजः पञ्चौदनः
छन्दः - पञ्चपदानुष्टुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बार्हताभुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अज सूक्त
पञ्च॑ रु॒क्मा ज्योति॑रस्मै भवन्ति॒ वर्म॒ वासां॑सि त॒न्वे भवन्ति। स्व॒र्गं लो॒कम॑श्नुते॒ यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ । रु॒क्मा । ज्योति॑: । अ॒स्मै॒ । भ॒व॒न्ति॒ । वर्म॑ । वासां॑सि । त॒न्वे᳡ । भ॒व॒न्ति॒ । स्व॒:ऽगम् । लो॒कम् । अ॒श्नु॒ते॒ । य: । अ॒जम् । पञ्च॑ओदनम् । दक्षि॑णाऽज्योतिषम् । ददा॑ति ॥५.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्च रुक्मा ज्योतिरस्मै भवन्ति वर्म वासांसि तन्वे भवन्ति। स्वर्गं लोकमश्नुते योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्च । रुक्मा । ज्योति: । अस्मै । भवन्ति । वर्म । वासांसि । तन्वे । भवन्ति । स्व:ऽगम् । लोकम् । अश्नुते । य: । अजम् । पञ्चओदनम् । दक्षिणाऽज्योतिषम् । ददाति ॥५.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 26
विषय - दीसि-ही-दीप्ति तथा स्वर्ग-प्राप्ति
पदार्थ -
१. (य:) = जो (पञ्चौदनम्) = पाँचों भूतों से बने संसार को प्रलयकाल में अपना ओदन बना लेता है उस (दक्षिणायोतिषम्) = दान की ज्योतिवाले-सर्वत्र दानों व प्रकाशवाले (अजम्) = अजन्मा प्रभु के प्रति (ददाति) = अपने को दे डालता है, (अस्मै) = अपने को प्रभु के लिए अर्पण करनेवाले इस पुरुष के लिए (पञ्च रुक्मा) = पाँचों कर्मेन्द्रियों यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हुई-हुई देदीप्यमान [रुच दीप्ती] भवन्ति-हो जाती हैं। (पञ्च वस्त्रा) = 'अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय कोशरूप पाँचों वस्त्र (नवानि) = नये व स्तुत्य हो जाते हैं। (पञ्च धेनवः) = ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाली पाँचों ज्ञानेन्द्रियों (कामदुघा) = कमनीय ज्ञानदुग्ध को देनेवाली व सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली हो जाती हैं। २. (पञ्च रुक्मा) = देदीप्यमान पाँचों इन्द्रियाँ (अस्मै) = इसके लिए (ज्योतिः भवन्ति) = प्रकाश-ही-प्रकाश हो जाती हैं। (वासांसि) = पाँचों कोशरूप वस्त्र (तन्वे) = इसके शरीर के लिए व शक्ति-विस्तार के लिए (वर्म भवन्ति) = कवच बन जाते हैं। इन कवचों से आवृत्त हुआ-हुआ यह किन्हीं भी वासनारूप शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होता। इसप्रकार यह स्वर्ग लोकम् (अश्नुते) = स्वर्गलोक को प्राप्त करता है-आनन्दमय जीवनवाला व मोक्ष को प्राप्त करनेवाला बनता है|
भावार्थ -
प्रभू के प्रति समर्पण करने से पाँचों कर्मेन्द्रियाँ दीप्त होती हैं, पाँचों कोश स्तुत्य बनते हैं, पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ कमनीय व ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाली होती हैं। यह समर्पक स्वर्ग व आनन्दमय लोक को प्रास करता है।
इस भाष्य को एडिट करें