अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
अ॑मो॒तं वासो॑ दद्या॒द्धिर॑ण्य॒मपि॒ दक्षि॑णाम्। तथा॑ लो॒कान्त्समा॑प्नोति॒ ये दि॒व्या ये च॒ पार्थि॑वाः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मा॒ऽउ॒तम् । वास॑: । द॒द्या॒त् । हिर॑ण्यम् । अपि॑ । दक्षि॑णाम् । तथा॑ । लो॒कान् । सम् । आ॒प्नो॒ति॒ । ये । दि॒व्या: । ये । च॒ । पार्थि॑वा: ॥५.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अमोतं वासो दद्याद्धिरण्यमपि दक्षिणाम्। तथा लोकान्त्समाप्नोति ये दिव्या ये च पार्थिवाः ॥
स्वर रहित पद पाठअमाऽउतम् । वास: । दद्यात् । हिरण्यम् । अपि । दक्षिणाम् । तथा । लोकान् । सम् । आप्नोति । ये । दिव्या: । ये । च । पार्थिवा: ॥५.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 14
विषय - 'अमोतं वास:+हिरण्यम्'-दक्षिणा [प्रभुदक्षिणा]
पदार्थ -
१. जीव को कर्मानुसार यह शरीर प्राप्त होता है। यह शरीर एक वस्त्र है जोकि हमारे कर्मों से बुना गया है [वासांसि जीर्णानि यथा विहाय]। इस (अमा उतम्) = हमारी गतियों [अम गतौ] से बुने गये (वास:)=- शरीररूप वस्त्र को तथा (हिरण्यम् अपि) = [हिरण्यं वै वीर्यम, हिरण्यं वै ज्योतिः] अपनी शक्ति व ज्योति को भी (दक्षिणां दद्यात्) = दक्षिणारूप से प्रभु को दे दे। वस्तुतः प्रभु ही तो हमारे जीवन-यज्ञ को चला रहे हैं, अत: इस 'शरीर, शक्ति व ज्योति' को प्रभु के प्रति दक्षिणारूप में देना ही चाहिए। इन्हें प्रभु का ही समझना न कि अपना। २. (तथा) = वैसा करने पर, अर्थात् 'शक्ति व ज्योति' सहित शरीर को प्रभु के प्रति अर्पण करने पर यह उपासक (लोकान) = उन सब लोकों को (समाप्नोति) = प्राप्त करता है, ये (दिव्या:) = जो दिव्य लोक हैं (च) = और ये (पार्थिवाः) = जो पार्थिव लोक हैं। दिव्य लोक मस्तिष्क है और पार्थिक लोक यह शरीर है। प्रभु के प्रति अपना समर्पण कर देनेवाले व्यक्ति का शरीर शक्ति से पूर्ण होता है तथा इसका मस्तिष्क ज्योति से देदीप्यमान होता है।
भावार्थ -
हम कर्मानुसार प्राप्त इस शरीर को, शरीर की शक्ति व ज्योति को हमारे जीवन यज्ञ का संचालन करनेवाले प्रभु के प्रति दक्षिणारूप में दे दें। ऐसा करने पर मस्तिष्क व शरीर दोनों ही उत्तम बनते हैं।
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