अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
अपा॑नति॒ प्राण॑ति॒ पुरु॑षो॒ गर्भे॑ अन्त॒रा। य॒दा त्वं प्रा॑ण॒ जिन्व॒स्यथ॒ स जा॑यते॒ पुनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । अ॒न॒ति॒ । प्र । अ॒न॒ति॒ । पुरु॑ष: । गर्भे॑ । अ॒न्त॒रा । य॒दा । त्वम् । प्रा॒ण॒ । जिन्व॑सि । अथ॑ । स: । जा॒य॒ते॒ । पुन॑: ॥६.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अपानति प्राणति पुरुषो गर्भे अन्तरा। यदा त्वं प्राण जिन्वस्यथ स जायते पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठअप । अनति । प्र । अनति । पुरुष: । गर्भे । अन्तरा । यदा । त्वम् । प्राण । जिन्वसि । अथ । स: । जायते । पुन: ॥६.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 14
विषय - प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
(गर्भे अन्तरा) गर्भ और विराट् हिरण्यगर्भ दोनों में (पुरुषः) पुरुष आत्मा (अपानति प्राणति) श्वास छोड़ता और श्वास लेता है। अर्थात् वही प्राण और अपान दोनों वायुओं का व्यापार करता हैं। हे (प्राण) प्राण ! (यदा त्वं जिन्वसि) जब तू उस गर्भस्थ बालक को परितृप्त और परिपुष्ट कर देता है (अथ) तब (सः पुनः) वह फिर (जायते) बालक रूप में उत्पन्न होता है। हिरण्यगर्भ में वह महान् पुरुष प्राण डालता है और तब इसमें नाना लोक उत्पन्न होते हैं।
टिप्पणी -
(द्वि० तृ० च०) ‘गर्भे अन्तः। या वा त्वं प्राणजीव सदम्ब वायसेत्वत्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥
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