अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 22
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
अ॒ष्टाच॑क्रं वर्तत॒ एक॑नेमि स॒हस्रा॑क्षरं॒ प्र पु॒रो नि प॒श्चा। अ॒र्धेन॒ विश्वं॒ भुव॑नं ज॒जान॒ यद॑स्या॒र्धं क॑त॒मः स के॒तुः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्टाऽच॑क्रम् । व॒र्त॒ते॒ । एक॑ऽनेमि । स॒हस्र॑ऽअक्षरम् । प्र । पु॒र: । नि । प॒श्चा । अ॒र्धेन॑ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । ज॒जान॑ । यत् । अ॒स्य॒ । अ॒र्धम् । क॒त॒म: । स: । के॒तु: ॥६.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टाचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं कतमः स केतुः ॥
स्वर रहित पद पाठअष्टाऽचक्रम् । वर्तते । एकऽनेमि । सहस्रऽअक्षरम् । प्र । पुर: । नि । पश्चा । अर्धेन । विश्वम् । भुवनम् । जजान । यत् । अस्य । अर्धम् । कतम: । स: । केतु: ॥६.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 22
विषय - प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
(अष्टाचक्रम्) आठ चक्रों और (एकनेमि) एक नेमि अर्थात् चक्रधारा से युक्त है, (सहस्राक्षरम्) उसमें सहस्रों अक्ष अर्थात् धुरे हैं। (प्र पुरः नि पश्चा) वह आगे जाता और पीछे को भी लौट आता है। वह प्राणरूप प्रजापति (अर्धेन विश्वं भुवनं जजान) अर्ध भाग से समस्त विश्व को उत्पन्न करता है। और (यद् अस्य अर्धम्) इसका जो अर्ध है (सः केतुः) वह ज्ञानमय (कतमः) कौनसा है ?
शरीर का प्राण उस महाप्राण का एक प्रतिदृष्टान्त है। इस शरीर में त्वचा रुधिर आदि सात और ओज आठवीं धातु आठ ‘चक्र’ हैं, ये शरीर को बनाती हैं, उन पर ‘प्राण’ ही ‘एक नेमि’ अर्थात् हाल चढ़ा है। मन के संकल्प विकल्प रूप सहस्रों उसमें अक्ष हैं। वह प्राण बाहर और भीतर जाता है। आधे से इस शरीर को थामता और आधे से वह स्वयं आत्मरूप है। अर्थात् एकांश से कर्ता और एकांश से भोक्ता है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड में पृथिव्यादि पञ्चभूत काल दिशा और मन अथवा प्रकृति, महत् और अहंकार ये आठ संसार के प्रवर्तक ‘चक्र’ हैं। उन पर एक ‘नेमि’ उनका वशयिता ‘प्राण’ परमेश्वर है। वह (प्र पुरो नि पश्चा) इस संसार को आगे ढकेलता और पीछे प्रलय में ले जाता है। उसका अर्ध = विभूतमत् अंश समस्त विश्व को उत्पन्न करता है और दूसरा ‘अर्ध’ विभूतिमान् स्वरूप ज्ञानमय है जो ‘कतमः’ अज्ञेय है। न जाने कौनसा और कैसा है ? अथवा ‘कतमः’ अतिशय सुख स्वरूप ‘परमानन्द’ है।
टिप्पणी -
‘एकचक्रं वर्त्तत एकनेमि’ इति अथर्व० १०। ८। ७॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥
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