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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 6/ मन्त्र 17
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    ऋ॒तून्ब्रू॑म ऋतु॒पती॑नार्त॒वानु॒त हा॑य॒नान्। समाः॑ संवत्स॒रान्मासां॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तून् । ब्रू॒म॒: । ऋ॒तु॒ऽपती॑न् । आ॒र्त॒वान् । उ॒त । हा॒य॒नान् । समा॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒रान् । मासा॑न् । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतून्ब्रूम ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान्मासांस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतून् । ब्रूम: । ऋतुऽपतीन् । आर्तवान् । उत । हायनान् । समा: । सम्ऽवत्सरान् । मासान् । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 17

    भावार्थ -
    (ऋतून्) ऋतुओं (ऋतुपतीन्) ऋतुपतियों, (आर्त्तवान्) ऋतु पर होने वाले विशेष वृक्ष आदि पदार्थों और घटनाओं और उन (हायनान्) हायनों, अयन के परिवर्तन कालों का, (समाः) समान दिन रात्रि वाले कालों का और समाओं और (संवत्सरान्) संवत्सरों का (ब्रूमः) वर्णन करते हैं (ते नः) वे हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) पाप से मुक्त करें। ‘हायन, समा, संवत्सर’—ये वर्ष के ही पर्याय हैं। परन्तु इन शब्दों का प्रयोग चान्द्र, सौर और प्रायः सावन भेद से किया जाता है। अतः उन तीनों का एक साथ ग्रहण किया गया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंतातिर्ऋषिः। चन्द्रमा उत मन्त्रोक्ता देवता। २३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, १–१७, १९-२२ अनुष्टुभः, १८ पथ्यापंक्तिः। त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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