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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - सूर्य्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः छन्दः - जगती,स्वराट पङ्क्ति,स्वराट संकृति,भूरिक आकृति,भूरिक त्रिष्टुप् स्वरः - मध्यमः, पञ्चमः, स्वरः
    1

    सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे दत्त॒ स्वाहा शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ द॒त्तापः॑ स्व॒राज॑ स्थ राष्ट्र॒दा राष्ट्र॒म॒मुष्मै॑ दत्त। मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्तां॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य वन्वा॒नाऽअना॑धृष्टाः सीदत स॒हौज॑सो॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य॒ दध॑तीः॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्य॑ऽत्वचसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्यऽत्व॒चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मान्दाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒दाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। मान्दाः॑। स्थः॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्र॒ज॒ऽक्षितः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त। स्वाहा॑। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्रज॒ऽक्षितः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शक्व॑रीः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शक्व॑रीः। स्थ॒। राष्ट्रदा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वि॒श्व॒भृत॒ इति विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वि॒श्व॒भृत॒ इति॑ विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। आपः॑। स्व॒राज॒ इति॑ स्व॒ऽराजः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। मधु॑मतीभि॒रिति॒ मधु॑मतीऽभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रियाय॑। व॒न्वा॒नाः। अना॑धृष्टाः। सी॒द॒त॒। स॒हौज॑स॒ इति॑ स॒हऽओ॑जसः। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रिया॑य। दध॑तीः ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तापः स्वराज स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त । मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम्महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय वन्वानाः ऽअनाधृष्टाः सीदत सहौजसो महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय दधतीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यत्वचस इति सूर्यऽत्वचसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। सूर्यत्वचस इति सूर्यऽत्वचसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। सूर्यवर्चस इति सूर्यऽवर्चसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। सूर्यवर्चस इति सूर्यऽवर्चसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। मान्दाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। मान्दाः। स्थः। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। व्रजक्षित इति व्रजऽक्षितः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। व्रजक्षित इति व्रजऽक्षितः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। वाशाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। वाशाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। शविष्ठाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शविष्ठाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शक्वरीः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शक्वरीः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। जनभृत इति जनऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। जनभृत इति जनऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। विश्वभृत इति विश्वऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। विश्वभृत इति विश्वऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। आपः। स्वराज इति स्वऽराजः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। मधुमतीरिति मधुऽमतीः। मधुमतीभिरिति मधुमतीऽभिः। पृच्यन्ताम्। महि। क्षत्रम्। क्षत्रियाय। वन्वानाः। अनाधृष्टाः। सीदत। सहौजस इति सहऽओजसः। महि। क्षत्रम्। क्षत्रियाय। दधतीः॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (विद्यान नागरिक राष्ट्रातील राजा, राजपुरुष, विद्वज्जन, महिला आदी नागरिकांकडून राष्ट्रनिर्मितीविषयी अपेक्षा व्यक्त करीत आहे) हे राजपुरुषहो, तुम्ही (सूर्य्यत्वचस:) आपल्या न्यायवृत्ती आणि न्याय्य व्यवहाराने सूर्याप्रमाणे सर्वांच्या तेजाला क्षीण वा मंद करणारे आहात (तेवढी पात्रता तुमच्या अंगी आहे) तुम्ही (स्वाहा) सत्य आणि न्यायपूर्ण आचरणाने (राष्ट्रदा:) राज्याला सुराज्य देणारे (स्थ) आहात. म्हणून (मे) मला (राष्ट्रम्) एक आदर्श राज्य (दत्त) द्या. हे विद्याध्ययन करणार्‍या लोकहो, तुम्ही (सूर्यत्वचस:) सूर्याच्या प्रखर तेजाप्रमाणे प्रकांड पंडित आणि (राष्ट्रदा:) राज्याला उत्कर्ष देणारे (स्य)आहात, म्हणून (अमुष्मै) विद्या-ज्ञानात सूर्यवत प्रकाशमान त्या विद्यावान पुरुषाला (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त) द्या (त्याच्या हाती राज्य सोपवा वा त्यास मदत करा) हे विद्वज्जनहो, (सूर्यवचस:) तुम्ही सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असून (स्वाहा) सत्यवाणीद्वारा (राष्ट्रदा:) राज्य देणारे (सुशासन करणारे) (स्थ) आहात, यामुळे (मे) तेजस्वी असलेल्या मला (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त:) द्या तसेच तुम्ही (सूर्यवचस:) सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान (कीर्तीमान) असून (राष्ट्रदा:) कीर्तिमान राज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या प्रकाशमान पुरुषाला (राजाला वा राष्ट्राध्यक्षाला) (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त) द्या (त्यास सहकार्य व मार्गदर्शन करा) हे विद्वज्जनहो, तुम्ही (मान्दा:) सर्व मनुष्यांना आनंद देणारे आणि (स्वाहा) आपल्या सत्यवचनांनी (प्रामाणिक आश्वासनांनी) (राष्ट्रदा:) जनतेला उत्तम राष्ट्र (स्थ) देणारे आहात, म्हणून (मे) सर्वांना आनंद देणार्‍या अशा मला (राष्ट्रम्) एक आनंदपूर्ण राज्य (दत्त) द्या (मला एक आनंदमय व सुखपूर्ण राष्ट्र पाहून द्या) हे विद्वज्जन, तुम्ही (मान्दा:) मनुष्यांना सुख देणारे होऊन (स्वाहा) सत्यवचन बोलत (राष्ट्रदा:) सुराष्ट्र निर्माण करणारे आहात (तुमच्याकडे ती पात्रता आहे) म्हणून मला (राष्ट्रम्) एक सुंदर राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (मान्दा:) सर्व प्राण्यांना सुखी करणारे होऊन (राष्ट्रदा:) राज्य देणारे (स्थ) आहात. म्हणून (अमुष्मै) त्या इतर सुखदाता व्यक्तीला (राष्ट्रम्) हे राष्ट्र (दत्त) द्या (तुमच्याप्रमाणे त्यालाही सुखी राष्ट्र निर्माण करण्यास सहकार्य करा) तुम्ही (वज्रक्षित:) गौ आदी पशूसाठी योग्य व सुखदायी स्थानाचे (गौशाला, आदींचे) निर्माण करणारे असून (स्वाहा) योग्य ती व्यवस्था करीत (राष्ट्रदा:) राष्ट्राची उन्नती करणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) पशूंचे पालन करणार्‍या मला (राष्ट्रम्) अनुकूल राज्य (दत्त) द्या. आपण (वज्रक्षित:) गौशाला आदी स्थानांमधे पशूंचे पालक-रक्षक असून (राष्ट्रदा:) (पशूंनी संपन्न असे) राज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या गौ आदी पशूंचे पालन करणार्‍या मनुष्याला (राष्ट्रम्) अनुकूल राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (वाशा:) कामना करणारे (निश्चित ध्येय व उद्दिष्ट ठेवणारे) असून (स्वाहा) सत्यनीतीद्वारे (राष्ट्रदा: राज्य चालविणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) कामना वा निश्चित इच्छा करणार्‍या मला (राष्ट्रम्) माझ्या अपेक्षेप्रमाणे राज्य, सुराज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (वाशा:) इच्छावान असून (राष्ट्रदा:) सुराज्य देणारे आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या अन्य इच्छावान मनुष्यास (वा अशा सर्व इच्छावान मनुष्यांना) (राष्ट्रम्) (अपेक्षित असे उत्तम) राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (शनिष्ठा:) अत्यंत बलवान असून (स्वाहा) प्रामाणिकपणे पुरुषार्थ करीत (राष्ट्रदा:) राज्य करणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) व बलशाली अशा मला (राष्ट्रम्) एक बलशाली राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (शविष्ठा:) अतीव पराक्रमी असून (राष्ट्रदा:) राज्यदाता (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या अति पराक्रमी जनाला (राष्ट्रम्) हे राज्य (दत्त) द्या. (पराक्रमाची आवश्यकता असल्यास त्या वीरजनांचे सहकार्य घ्या) हे रानीगण वा राजस्त्रियांनो, (राजपरिवारातील महिला अथवा राज्यशासनातील महिला-अधिकारी गण) तुम्ही (शक्वरी:) सामर्थ्यशालिनी असून (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थाद्वारे (राष्ट्रदा:) राज्य चालविणार्‍या (स्थ) आहात, म्हणून (मे) सामर्थ्यवान अशा मला (राष्ट्रम्) समर्थराज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (शक्वरी:) सामर्थ्ययुक्त (राष्ट्रदा:) राज्य करणार्‍या (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्यै) त्या सामर्थ्यशाली पुरुषाला (राष्ट्रम्) समर्थ राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (जनभृत:) श्रेष्ठ मनुष्यांचे पोषण करणार्‍या (त्यांना पौष्टिक अन्न देणार्‍या) असून (स्वाहा) सत्यकर्म करीत (राष्ट्रदा:) राष्ट्राचे पोषण करणार्‍या महिला (स्थ) आहात, म्हणून (मे) श्रेष्ठ गुणयुक्त अशा मला (राष्ट्रम्) एक पुष्ट व समृद्ध राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (जनभृत:) सज्जनांना धारण करणार्‍या (आश्रम व सहकार्य देणार्‍या) असून (राष्ट्रदा:) राज्यास आधार देणार्‍या (स्थ) आहात, (मे) राष्ट्राला सहकार्य करणार्‍या मला (सुजाण नागरिकाला) (राष्ट्रम्) उत्तम राष्ट्र (दत्त) द्या, आणि (अमुष्मै) त्या सत्यप्रिय पुरुषाला (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त) द्या. हे सभाध्यक्ष आदी राजपुरुषहो आपण (विश्वभृत:) जगाचे पोषण करणारे असून (स्वाहा) सत्यवाणी बोलत (राष्ट्रदा:) सुराज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) सर्वांचे पोषण करणार्‍या मला (राष्ट्रम्) (एक पुष्ट बलशाली) राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (विश्वभृत:) विश्वाचे धारण-पोषण करणारे असून (राष्ट्रदा:) राज्यदाता (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या सर्वपोषक मनुष्याला (राष्ट्रम्) हे राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (आप:) विद्या आणि धर्म या विषयात व्याप्त (प्राविण्य संपादित केलेले) असून (स्वाहा) सत्याचरणाद्वारे (राष्ट्रदा:) राज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) शुभगुणांत रममाण असणार्‍या मला (राष्ट्रम्) हे राज्य (दत्त) द्या (हे राष्ट्र विद्या, धर्म आणि गुणांनी संपन्न असू द्या) तुम्ही (आप:) -------- आणि धर्म यांच्या सर्व मार्ग-पद्धतीदींना जाणणारे आणि (स्वराज:) स्वयंप्रकाशमान असे (राष्ट्रदा:) राज्यदाता (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या धर्मज्ञ पुरुषाला (राष्ट्रम्) हे धर्म राज्य (दत्त) द्या. हे सत् स्त्रीजनहो, तुम्हास उचित आहे की तुम्ही (क्षत्रियाय) राजपूतांसाठी (राजा व वीरजनांच्या वीर पुत्रांसाठी) (माहे) पूजनीय व प्रशंसनीय अशा (श्रत्रम्) व क्षत्रियराज्याची (वन्वामा:) कामना करा (हे राष्ट्र वीरजनांचे व वीररक्षित असावे, अशी इच्छा करा) राजपूतांसाठी (क्षत्रियांसाठी) (महि) पूजनीय (क्षत्रम्) राज्याला (दघती:) धारण करणार्‍या (आधार देणार्‍या) व्हा तसेच (अनाधृष्टा:) कधीही शत्रूंच्या वशीभूत न होणार्‍या व्हा. तुम्ही (मधुमती:) मधउर (कटु, तिक्त आदी) रसांनी तसेच (मधुमतीभि:) मधुरादिगुणदाता वसंत आदी ऋतूंत मिळणार्‍या सुखांनी (प्रच्यन्ताभ्) (क्षत्रियांना) संपन्न करा (त्यांच्यासाठी उत्तम औषधी तयार करा) हे सज्जनहो, तुम्ही अशा प्रकारच्या (वर वर्णिलेल्या) स्त्रिया वा पत्नी (सीदत्त) प्राप्त करा (तुम्हास अशा सेवा करणार्‍या स्त्रिया व पत्नी प्राप्त व्हाव्यात, अशी मी कामना करतो) ॥4॥

    भावार्थ - भावार्थ - हे स्त्रीपुरुषहो, तुम्ही जाणून घ्या की जे लोक सूर्याप्रमाणे न्यायदानी आणि विद्येने प्रकाशित असतात, सर्वांना आनंद देतात, गौ आदी पशूंचे रक्षण करतात, स्वत: शुभगुणांनी शोभायमान असतात, बलवान असून (गुणकर्मस्वभावाने) समान असणार्‍या स्त्रीशी विवाह करतात, जगाचे पोषक असून जे स्वाधीन व सर्वथा स्वतंत्र आहेत, असे लोकच इतरांना उत्तम राज्य देऊ शकतात आणि तोच लोक स्वत:देखील श्रेष्ठ राष्ट्राच्या सुखांचा उपभोग घेण्यात समर्थ असतात., इतर नव्हे. (याहून जे विपरीत आहेत, ते कदापि श्रेष्ठ राष्ट्र देऊ शकत नाहीत) ॥4॥

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