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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 23
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - याजुषी बृहती,भूरिक् अष्टि,स्वराट् ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - मध्यमः, गान्धारः, ऋषभः
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    र॒क्षो॒हणं॑ बलग॒हनं॑ वैष्ण॒वीमि॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॒ निष्ट्यो॒ यम॒मात्यो॑ निच॒खाने॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॑ समा॒नो यमस॑मानो निच॒खाने॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॒ सब॑न्धु॒र्यमस॑बन्धुर्निच॒खाने॒दम॒हं तं ब॑ल॒गमुत्कि॑रामि॒ यं मे॑ सजा॒तो यमस॑जातो निच॒खानोत्कृ॒त्य-ङ्कि॑रामि॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र॒क्षो॒हण॑म्। र॒क्षो॒हन॒मिति॑ रक्षःऽहन॑म्। ब॒ल॒ग॒हन॒मिति॑ बलऽग॒हन॑म्। वै॒ष्ण॒वीम्। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। निष्ट्यः॑। यम्। अ॒मात्यः॑। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। स॒मा॒नः। यम्। अस॑मानः। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। सब॑न्धु॒रिति॒ सऽब॑न्धुः। यम्। अस॑बन्धु॒रित्यस॑ऽबन्धुः। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। इ॒दम्। अ॒हम्। तम्। ब॒ल॒गम्। उत्। कि॒रा॒मि॒। यम्। मे॒। स॒जा॒त इति॑ सऽजा॒तः। यम्। अस॑जातः। नि॒च॒खानेति॑ निऽच॒खान॑। उत्। कृ॒त्याम्। कि॒रा॒मि॒ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रक्षोहणँवलगहनँवैष्णवीमिदमहन्तँ वलगमुत्किरामि यम्मे निष्ट्यो यममात्यो निचखानेदमहन्तँ वलगमुत्किरामि यम्मे समानो यमसमानो निचखानेदमहन्तँ वलगमुत्किरामि यम्मे सबन्धुर्यमसबन्धुर्निचखानेदमहन्तँ वलगमुत्किरामि यम्मे सजातो यमसजातो निचखानोत्कृत्याङ्किरामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रक्षोहणम्। रक्षोहनमिति रक्षःऽहनम्। बलगहनमिति बलऽगहनम्। वैष्णवीम्। इदम्। अहम्। तम्। बलगम्। उत्। किरामि। यम्। मे। निष्ट्यः। यम्। अमात्यः। निचखानेति निऽचखान। इदम्। अहम्। तम्। बलगम्। उत्। किरामि। यम्। मे। समानः। यम्। असमानः। निचखानेति निऽचखान। इदम्। अहम्। तम्। बलगम्। उत्। किरामि। यम्। मे। सबन्धुरिति सऽबन्धुः। यम्। असबन्धुरित्यसऽबन्धुः। निचखानेति निऽचखान। इदम्। अहम्। तम्। बलगम्। उत्। किरामि। यम्। मे। सजात इति सऽजातः। यम्। असजातः। निचखानेति निऽचखान। उत्। कृत्याम्। किरामि॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 23
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे ज्ञानी वा जिज्ञासू मनुष्या, ज्याप्रमाणे मी म्हणजे (विद्वान, कुशल व अनुभवी मनुष्य) (बलगहनम्) शत्रूंच्या वा विघ्नकारी जनांच्या शक्तीचे दमन करतो व (रक्षोहणम्) दुष्टकर्मा राक्षसांचा नाश करणारे कर्म करतो आणि (वैष्णवीम्) सर्वव्यापी ईश्‍वराच्या वेदवाणीच्या अनुष्ठानाद्वारे (बलगम्) बलदायी यज्ञाचा (उत्किसनि) उत्कृष्टपणे प्रचार करतो (सर्वांना यज्ञकर्म करण्यासाठी प्रेरित करतो) (तम्) त्या यज्ञासाठी तू देखील (इदम्) या मनुष्याला व त्या मनुष्याला प्रेरणा देत जा (मे) माझा (निष्ट्यः) यज्ञकर्मात कुशल असलेला हा सहयोगी (अमात्यः) मेधावी विद्वान मनुष्य (यम्) ज्या यज्ञासाठी (उदय्) भूगर्भ-विद्येचे परीक्षण निरीक्षण करून विशिष्ट स्थानाला (बिचखान) शोध करतो व ते स्थान खणतो (भूगर्भातील धातू, द्रव आदी पदार्थ मिळवितो) (तम्) त्याप्रमाणे आवश्यक स्थानाला (धातूंच्या खाणी आदी) तुझ्या सेवकाकडून तूदेखील खणून घे. ज्याप्रमाणे (अहम्) भूगर्भविद्येचा ज्ञाता मी (यम्) ज्या (बलगम्) बलदायिनी कृषीसंहिता अथवा यज्ञाकरिता (इदम्) या खननरूप कर्म (शेतीसाठी नांगरणे व यज्ञकुंड वेदीसाठी खणणें)(उत्मिरामि) चांगल्याप्रमाणे करीत आहे वा करतो (तम्) ते तसे कर्म व आचरण तू देखील कर. ज्याप्रमाणे (मे) माझ्या (समानः) सारखा विद्वान व अनुभवी मनुष्य अथवा असमान (ज्ञान व विद्येमधे किंचित कमी असलेला) मनुष्य (यम्) जे व जसे (निचखान) भूमी खणतो, तुझ्या सेवकाने देखील त्याप्रमाणे खणावे. ज्याप्रमाणे (अहम्) अध्ययन व अध्यापन करणारा मी (इदम्) या अध्ययन-अध्यापन रूप कर्म (उत्किरामि) संपन्न करतो, तद्वत (तम्) तूही ते कर्म कर. ज्याप्रमाणे (मे) माझा (सबन्धुः) समान बंधु (सहायक) वा सारखा किंवा (असबन्धुः) असमान मनुष्य वा अमित्र (यम्) ज्या पालनरूप यज्ञ अथवा पालन कर्म (निचखान) करीत आहे, त्याप्रमाणे तुझ्या माणसाने देखील करावे. ज्याप्रमाणे (अहम्) सर्वांचे मित्र असलेला मी (यम्) ज्या (बलगम्) राज्य शक्ती प्राप्त करून देणारा यज्ञ अथवा (इदम्) या उत्तम कर्माला (उत्किरामि) संपन्न करतो, त्याप्रमाणे (तम्) तूही के कर्म कर. ज्याप्रमाणे (मे) माझा (सजातः) सहोदर भाऊ अथवा (असजातः) अन्य वंशात उत्पन्न मनुष्य (यम्) जो यज्ञ ना (कृत्याम्) उत्तम यज्ञविधी (निचखान) अवश्य करतो व (शंकारहित होऊन सश्रद्ध मनाने करतो) त्याप्रमाणे भावाने व अन्य सहायकाने देखील यज्ञ व यज्ञविधी पूर्ण करावा. जसे मी हे सर्व कर्म (उत्किरामि) करीत आहे, विधी करीत आहे, तसे तुम्ही सर्व जणांनी देखील अवश्य करावे. ॥23॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. सर्व जणांनी ईश्‍वराच्या या सृष्टीत नेहमी विद्वानांचे अनुकरण करावे. मुरखांचे अनुकरण कदापी करून नये. ॥23॥

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