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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 12
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स नो॑ वि॒श्वाहा॑ सु॒क्रतु॑रादि॒त्यः सु॒पथा॑ करत्। प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । वि॒श्वाहा॑ । सु॒ऽक्रतुः॑ । आ॒दि॒त्यः । सु॒ऽपथा॑ । क॒र॒त् । प्र । नः॒ । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। विश्वाहा। सुऽक्रतुः। आदित्यः। सुऽपथा। करत्। प्र। नः। आयूंषि। तारिषत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरपि स एवार्थ उपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यथादित्यः परमेश्वरः प्राणः सूर्यो वा विश्वाहा सर्वेषु दिनेषु नोऽस्मान् सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् तथा सुक्रतुरादित्यो न्यायकारी मनुष्यो विश्वाहेषु नः सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् सन्तारयेत्॥१२॥

    पदार्थः

    (सः) वक्ष्यमाणः (नः) अस्मान् (विश्वाहा) विश्वानि चाहानि च तेषु। अत्र सुपां सुलुग्० इति सप्तम्या बहुवचनस्याकारादेशः। (सुक्रतुः) शोभनानि प्रज्ञानानि कर्माणि वा यस्य सः (आदित्यः) विनाशरहितः परमेश्वरो जीवः कारणरूपेण प्राणो वा (सुपथा) शोभनश्चासौ पन्थाश्च सुपथस्तेन (करत्) कुर्यात्। लेट्-प्रयोगोऽयम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (तारिषत्) सन्तारयेत्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्येण जितेन्द्रियत्वादिनाऽऽयुर्वर्द्धयित्वा धर्ममार्गे विचरन्ति, तान् जगदीश्वरोऽनुगृह्यानन्दयुक्तान् करोति। यथाऽयं प्राणः सूर्य्यो वा स्वबलतेजोभ्यामुच्चावचानि स्थलानि प्रकाश्य प्राणिनः सुखयित्वा सर्वानहोरात्रादीन् कालविभागान् विभजतस्तथैव स्वात्मशरीरसेनाबलेन धर्म्याणि कनिष्ठमध्यमोत्तमानि कर्माणि प्रचार्य्याधर्म्याणि निवर्त्त्योत्तमनीचजनसमूहौ सदा विभजेत॥१२॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में उसी अर्थ का प्रकाश किया है॥

    पदार्थ

    जैसे (आदित्यः) अविनाशी परमेश्वर, प्राण वा सूर्य्य (विश्वाहा) सब दिन (नः) हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग में चलाने और (नः) हमारी (आयूंषि) उमर (प्रतारिषत्) सुख के साथ परिपूर्ण (करत्) करते हैं, वैसे ही (सुक्रतुः) श्रेष्ठ कर्म और उत्तम-उत्तम जिससे ज्ञान हो, वह (आदित्यः) विद्या धर्म प्रकाशित न्यायकारी मनुष्य (विश्वाहा) सब दिनो में (नः) हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग में (करत्) करे। और (नः) हम लोगों की (आयूंषि) उमरों को (प्रतारिषत्) सुख से परिपूर्ण करे॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि से आयु बढ़ाकर धर्ममार्ग में विचरते हैं, उन्हीं को जगदीश्वर अनुगृहीत कर आनन्दयुक्त करता है। जैसे प्राण और सूर्य्य अपने बल और तेज से ऊँचे-नीचे स्थानों को प्रकाशित कर प्राणियों को सुख के मार्ग से युक्त करके उचित समय पर दिन-रात आदि सब कालविभागों को अच्छे प्रकार सिद्ध करते हैं, वैसे ही अपने आत्मा, शरीर और सेना के बल से न्यायाधीश मनुष्य धर्मयुक्त छोटे मध्यम और बड़े कर्मों के प्रचार से अधर्मयुक्त को छुड़ा उत्तम और नीच मनुष्यों का विभाग सदा किया करे॥१२॥

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    विषय

    फिर भी इस मन्त्र में उसी अर्थ का प्रकाश किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा आदित्यः परमेश्वरः प्राणः सूर्यः वा विश्वाहा सर्वेषु दिनेषु नः अस्मान् सुपथा करत् (नः) अस्माकम् आयूंषि प्रतारिषत् तथा सुक्रतुः आदित्यः न्यायकारी मनुष्यः विश्वाहा इषु नः सुपथा करत् (नः)अस्माकम् आयूंषि प्रतारिषत् सन्तारयेत्॥१२॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (आदित्यः) विनाशरहितः परमेश्वरो जीवः कारणरूपेण प्राणो वा=अविनाशी परमेश्वर या प्राण, (परमेश्वरः)=परमेश्वरः, (प्राणः)=प्राण, (सूर्यः)=सूर्य, (वा)=अथवा, (विश्वाहा) विश्वानि चाहानि च तेषु=सब दिनों में, (नः) अस्मान्=हमें, (सुपथा) शोभनश्चासौ पन्थाश्च सुपथस्तेन=अच्छे मार्ग में चलाने, (करत्) कुर्यात्=करते हैं,  (नः) अस्माकम्=हमें, (आयूंषि)=आयु, (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे=अच्छे प्रकार से, (तारिषत्) सन्तारयेत्=परिपूर्ण करे, (तथा)=वैसे ही, (सुक्रतुः) शोभनानि प्रज्ञानानि कर्माणि वा यस्य सः=श्रेष्ठ कर्म और उत्तम-उत्तम जिससे ज्ञान हो, वह, (आदित्यः) विनाशरहितः परमेश्वरो जीवः कारणरूपेण प्राणो वा=विनाशरहितः परमेश्वर, जीव या कारणरूप प्राण, (न्यायकारी)=न्यायकारी, (मनुष्यः)=मनुष्य, (विश्वाहेषु) विश्वानि चाहानि च तेषु=सब दिनो में, (नः)=हम लोगों को, (सुपथा) शोभनश्चासौ पन्थाश्च सुपथस्तेन=अच्छे मार्ग में चलाने में, (करत्)=करते हैं, (नः) अस्माकम्=हमें, (आयूंषि) जीवनानि= जीवनों को, (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे=अच्छे प्रकार से, (तारिषत्) सन्तारयेत्=परिपूर्ण करे॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि से आयु बढ़ाकर धर्ममार्ग में विचरते हैं, उन्हीं को जगदीश्वर अनुगृहीत कर आनन्दयुक्त करता है। जैसे यह प्राण और सूर्य्य अपने बल और तेज से ऊँचे-नीचे स्थानों को प्रकाशित कर प्राणियों को सुखी करके सबको दिन-रात  के का विभाग में बांटता है, वैसे ही अपने आत्मा, शरीर और सेना के बल से धर्मयुक्त छोटे मध्यम और बड़े उत्तम कर्मों के प्रचार से अधर्मों को छुड़ा उत्तम और नीच मनुष्यों के समूह में सदा विभाग किया करे॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे (आदित्यः) अविनाशी परमेश्वर या प्राण (वा) अथवा (सूर्यः) सूर्य (विश्वाहा) सब दिनों में (नः) हमें (सुपथा) अच्छे मार्ग में (करत्) चलाते हैं। वह (नः) हमारी (आयूंषि) आयु (प्र) अच्छे प्रकार से (तारिषत्) परिपूर्ण करे। (तथा) वैसे ही (सुक्रतुः) जिससे श्रेष्ठ कर्म और उत्तम-उत्तम ज्ञान हो, वह (आदित्यः)  विनाशरहित परमेश्वर, जीव या कारणरूप प्राण [और] (न्यायकारी) न्यायकारी (मनुष्यः) मनुष्य (विश्वाहेषु) सदैव (नः) हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग में   (करत्) चलाते हैं। वह (नः) हमारे (आयूंषि)  जीवनों को (प्र) अच्छे प्रकार से (तारिषत्) परिपूर्ण करे॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) वक्ष्यमाणः (नः) अस्मान् (विश्वाहा) विश्वानि चाहानि च तेषु। अत्र सुपां सुलुग्० इति सप्तम्या बहुवचनस्याकारादेशः। (सुक्रतुः) शोभनानि प्रज्ञानानि कर्माणि वा यस्य सः (आदित्यः) विनाशरहितः परमेश्वरो जीवः कारणरूपेण प्राणो वा (सुपथा) शोभनश्चासौ पन्थाश्च सुपथस्तेन (करत्) कुर्यात्। लेट्-प्रयोगोऽयम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (तारिषत्) सन्तारयेत्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः॥१२॥
    विषयः- पुनरपि स एवार्थ उपदिश्यते॥

    अन्वयः- यथादित्यः परमेश्वरः प्राणः सूर्यो वा विश्वाहा सर्वेषु दिनेषु नोऽस्मान् सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् तथा सुक्रतुरादित्यो न्यायकारी मनुष्यो विश्वाहेषु नः सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् सन्तारयेत्॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्येण जितेन्द्रियत्वादिनाऽऽयुर्वर्द्धयित्वा धर्ममार्गे विचरन्ति, तान् जगदीश्वरोऽनुगृह्यानन्दयुक्तान् करोति। यथाऽयं प्राणः सूर्य्यो वा स्वबलतेजोभ्यामुच्चावचानि स्थलानि प्रकाश्य प्राणिनः सुखयित्वा सर्वानहोरात्रादीन् कालविभागान् विभजतस्तथैव स्वात्मशरीरसेनाबलेन धर्म्याणि कनिष्ठमध्यमोत्तमानि कर्माणि प्रचार्य्याधर्म्याणि निवर्त्त्योत्तमनीचजनसमूहौ सदा विभजेत॥१२॥

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    विषय

    सुमार्गयुक्त जीवन

    पदार्थ

    १. (सः) - वह सारे ब्रह्माण्ड का निर्माता (सुक्रतुः) - उत्तम कर्मों व प्रज्ञानोंवाला (आदित्यः) - जीव को खण्डन से बचानेवाला वरुण (नः) - हमें (विश्वाहा) - सदा (सुपथा) - उत्तम मार्ग से युक्त (करत्) - करे , अर्थात् वरुण की प्रेरणा व दण्डादि व्यवस्था से हम कुमार्ग से बचकर सदा सुमार्ग पर चलनेवाले बनें । 

    २. इस प्रकार सुमार्ग पर चलते हुए (नः) - हमारी (आयूंषि) - आयुओं को वे (प्रतारिषत्) - खुब दीर्घ करनेवाले हों । उत्तम आचरण व दीर्घजीवन का सम्बन्ध है ही 'आचारल्लभते ह्यायुः सदाचार से दीर्घ जीवन प्राप्त होता है' , ऐसा मनु कहते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - वरुण की प्रेरणा व व्यवस्था से हम सुपथ से चलते हुए दीर्घजीवी हों । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुष ।

    भावार्थ

    (सुक्रतुः) उत्तम ज्ञान और कर्मों का करने वाला (आदित्यः) सूर्य के समान तेजस्वी ( सः ) वह ज्ञानवान् परमेश्वर, विद्वान् और राजा ( विश्वाहा ) सदा, सब दिनों ( सुपथा ) उत्तम मार्ग से ( नः ) हमें ( करत् ) संचालित करे और ( नः ) हमारे ( आयूँषि ) जीवनों को ( प्र तारिषत् ) बढ़ावे, उनको सफल करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (सः-आदित्यः) वह अदिति अखण्ड सुख सम्पति का स्वामी वरुण परमात्मा (नः-विश्वाहा सुपथा करत्) हमारे जीवन के समस्त दिनों को अच्छे मार्ग वाले करे-कुमार्गों से बच्चावे (न:-यूषि प्रतारिषत्) हमारी आयुओं को जीवनीय शक्ति को बढावें ॥१२॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जी माणसे ब्रह्मचर्य व जितेंद्रियता इत्यादींनी आयुष्य वाढवून धर्म मार्गाने चालतात, त्यांनाच जगदीश्वर अनुग्रहित करून आनंदयुक्त करतो. जसे प्राण व सूर्य आपल्या बलाने व तेजाने उंच-सखल भागांना प्रकाशित करून प्राण्यांना सुखाचा मार्ग प्रशस्त करतात व योग्य वेळी दिवसरात्र इत्यादी सर्व कालविभागांना सिद्ध करतात, तसेच आपला आत्मा, शरीर व सेनेच्या बलाने न्यायाधीशाने धर्माने कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम कर्माचा प्रचार करून अधर्मापासून सुटका करावी व उत्तम आणि नीच माणसांमध्ये सदैव भेद करावा. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    And may He, Aditya, imperishable lord of light and omniscience, sun and life’s energy, lord of noble and watchful action, keep us on the right path all days and nights and thus bless us across a full life of total fulfilment.

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    Subject of the mantra

    Then, again in this mantra the same meaning has been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=As, (ādityaḥ)=imperishable God or vital breath, [aura]=and, (vā)=or, (sūryaḥ)=the Sun, (viśvāhā)=always, (naḥ)=to us, (supathā)=in the good way, (karat)=guide, [vaha]=that, (naḥ)=our, (āyūṃṣi)=life, (pra)=well, (tāriṣat)=must make perfect, (tathā)=in the same way, (sukratuḥ)=who leads to the best deeds and the best of knowledge, [vaha]=he, (ādityaḥ)=imperishable God, living being or causal vital breath, (nyāyakārī)=adjudicator, (manuṣyaḥ)=man, (viśvāheṣu)=always, (naḥ)=to us (supathā)=in a good ways, (karat)=guide, [vaha=he, (naḥ)=our, (āyūṃṣi)=to lives, (pra)= in a proper way, (tāriṣat)=must make perfect.

    English Translation (K.K.V.)

    As imperishable God or vital-breath or the Sun always guide us in the good ways. He must make our lives perfectly well. In the same way, who leads to the best deeds and the best of the knowledge, that imperishable God, living being or causal vital breath and adjudicator always guides us in good ways. He must make our lives perfect in a proper way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are paronomasia and simile as figurative in this mantra. Those people who move on the path of righteousness by increasing their age through celibacy and control over senses etc., God makes them happy by helping. Just as this prāṇa (life-breath) and the Sun by their power and brilliance illuminate the high and low places and make the living beings happy and divide them into the day and night, similarly, by the power of their soul, body and army, they are doing righteous small, medium and big good deeds. Get rid of the unrighteousness by preaching and always distribute the group into good and lowly people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) May God who is Imperishable, Eternal and Omniscient keep us on the right path all our days and prolong our lives. (2) As God keeps us all our days on right path and prolongs our lives, in the same way, may a wise and just man who is brilliant like the sun keep us all our days in right path and prolong our lives by giving us proper instructions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आदित्यः ) विनाशरहितः परमेश्वरः, प्राणः सूर्य: आदित्यवत् तेजस्वी न्यायकारी जीवो वा (सुक्रतुः ) शोभनानि प्रज्ञानानि कर्माणि वा यस्य सः ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are Shleshalankar (Paronomasia and वाचक लुप्तोपमालंकार or implied simile here. God with His Kindness, makes those persons full of bliss who prolong their lives by the observance of Brahmacharya (continence) and control of their senses. As the Prana and the sun divide the parts of time enlightening all high and low places and beings with their force and splendor and make them happy, in the same way, 'a just and righteous person should do and preach righteous acts with his body and army, and should keep away all unrighteous acts and should separate good men from bad persons.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted आदित्य: here in various ways. (1) The first meaning of the word Aditya he has given is विनाशरहितः परमेश्वर: It is derived from दो-अवखण्डने नत्र अदितिरेवआदित्य: स्वार्थे = Imperishable or Immortal. असौ वा आदित्यो ब्रह्म । (शतपथ ७.४.१.१४) आदित्यो वै ब्रह्म ॥ (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ३.४.९ ) and other passages of the Brahmanas substantiate strongly Rishi Dayananda's interpretation God. (2) The second meaning of आदित्य ( Aditya ) as given by Rishi Dayananda is प्राण: for which there is clear statement in the Jaimineeyopanishad 4.11.11. आदित्या वै प्राणाः (जैमिनीयोप० ४.२२.११) = In the same Brahmana in 4.2.9 it is stated. प्राणा वा आदित्याः । प्राणा हीदं सर्वम् आददते ॥ ( जैमिनीयोप० ४.२.९ ) = In the Tandya Maha Brahmana 16.13.2 it is clearly stated प्राण आदित्य: So Rishi Dayananda's interpretation as Prana is quite authentic based upon the authority of the Brahmanas. (3) The third meaning of the word Aditya given by the Rishi is आदित्य :- न्यायकारी मनुष्य : A just learned person. In the Shatapath Brahmana 13.6.1.11 it is stated. असौ वा आदित्यः पाप्मनोऽपहन्ता (शतपथ १३.८ १.११) Aditya is the destroyer of sins. In the Taittireeya 1.1.9-8 it is stated एते खलु वाऽऽदित्या यद् ब्राह्मणाः (तैत्तिरीय १.१.९.८) By Adityas are meant true Brahmanas-the knowers of God and the Vedas. Even if the well-known meaning of आदित्य as sun is taken, persons full of splendor like the sun who destroy the darkness of ignorance can certainly be taken by it. That is why those who observe Brahmacharya up to the age of 48 years or more are called Aditya Brahmacharis.

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