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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 14
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    न यं दिप्स॑न्ति दि॒प्सवो॒ न द्रुह्वा॑णो॒ जना॑नाम्। न दे॒वम॒भिमा॑तयः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यम् । दिप्स॑न्ति । दि॒प्सवः । न । द्रुह्वा॑णः । जना॑नाम् । न । दे॒वम् । अ॒भिऽमा॑तयः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यम्। दिप्सन्ति। दिप्सवः। न। द्रुह्वाणः। जनानाम्। न। देवम्। अभिऽमातयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं जनानां दिप्सवो यं न दिप्सन्ति द्रुह्वाणो यं न द्रुह्यन्त्यभिमातयो यं नाभिमन्यन्ते तं परमेश्वरं देवमुपास्यं कार्य्यहेतुं विद्वांसं वा सर्वे जानीत॥१४॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (यम्) वरुणं परमेश्वरं विद्वांसं वा (दिप्सन्ति) विरोद्धुमिच्छन्ति। (दिप्सवः) मिथ्याभिमानव्यवहारमिच्छवः शत्रवः। अत्रोभयत्र वर्णव्यत्ययेन धकारस्य दकारः। (न) प्रतिषेधे (द्रुह्वाणः) द्रोहकर्त्तारः (न) निवारणे (देवम्) दिव्यगुणं (अभिमातयः) अभिमानिनः। ‘मा माने’ इत्यस्य रूपम्॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। ये हिंसका परद्रोहयुक्ता अभिमानसहिता जना वर्त्तन्ते, ते विद्याहीनत्वात् परमेश्वरस्य विदुषां वा गुणान् ज्ञात्वा नैवोपकर्त्तुमर्हन्ति, तस्मात् सर्वैरेतेषां गुणकर्मस्वभावैः सह सदा भवितव्यम्॥१४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह वरुण किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम सब लोग (जनानाम्) विद्वान् धार्मिक वा मनुष्य आदि प्राणियों से (दिप्सवः) झूठे अभिमान और झूठे व्यवहार को चाहनेवाले शत्रुजन (यम्) जिस (देवम्) दिव्य गुणवाले परमेश्वर वा विद्वान् को (न) (दिप्सन्ति) विरोध से न चाहें (द्रुह्वाणः) द्रोह करनेवाले जिस को द्रोह से (न) चाहें तथा जिसके साथ (अभिमातयः) अभिमानी पुरुष (न) अभिमान से न वर्त्तें, उन उपासना करने योग्य परमेश्वर वा विद्वानों को जानो॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो हिंसक परद्रोही अभिमानयुक्त जन हैं, वे अज्ञानपन से परमेश्वर वा विद्वानों के गुणों को जान कर उनसे उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकते। इसलिये सब मनुष्यों को योग्य है कि उनके गुण, कर्म और स्वभाव का सदैव ग्रहण करें॥१४॥

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    विषय

    फिर वह वरुण किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं जनानां दिप्सवः यं न दिप्सन्ति द्रुह्वाणः यं न द्रुह्यन्ति अभिमातयः यं न अभिमन्यन्ते तं परमेश्वरं देवम् उपास्यम् कार्य्यहेतुं विद्वांसं वा सर्वे जानीत॥१४॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)=हे मनुष्यो! (यूयम्)=तुम सब, (जनानाम्)=लोगों से  (दिप्सवः) मिथ्याभिमानव्यवहारमिच्छवः शत्रवः=मिथ्या अभिमान और मिथ्या व्यवहार की इच्छा रखने वाले शत्रुओं का, (यम्) वरुणं परमेश्वरं विद्वांसं वा=जिस श्रेष्ठ परमेश्वर या देव को, (न) प्रतिषेधे= नहीं (दिप्सन्ति) विरोद्धुमिच्छन्ति=विरोध की इच्छा रखते हैं,  (द्रुह्वाणः) द्रोहकर्त्तारः=द्रोह करनेवाले को, (यम्) वरुणं परमेश्वरं विद्वांसं वा=जिस दिव्य गुणवाले परमेश्वर वा विद्वान् को, (न) निवारणे=विरोध करते हैं, उसका, (द्रुह्यन्ति)=द्रोह करते हैं, (अभिमातयः) अभिमानिनः=वे अभिमानी, (यम्) वरुणं परमेश्वरं विद्वांसं वा =जिस दिव्य गुणवाले परमेश्वर वा विद्वान् को, (न+अभिमन्यन्ते)=हर ओर से मान्यता नहीं देते हैं, (तम्)=उस, (देवम्) दिव्यगुणं= दिव्य गुणों से युक्त, (उपास्यम्)=उपास्य (परमेश्वरम्)=परमेश्वर को, जो, (कार्य्यहेतुम्)=कार्य्यों का हेतु (वा)=अथवा, (विद्वांसम्)=विद्वान् को, (सर्वे)=सब, (जानीत)=जानो॥१४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो हिंसक परद्रोही अभिमानयुक्त जन हैं, वे विद्या विहीनता  से परमेश्वर या विद्वानों के गुणों को जान कर उनसे उपकार लेने के योग्य नहीं हो सकते हैं। इसलिये सबको  इनके गुण, कर्म और स्वभाव वाला सदैव होना चाहिए॥१४॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यो! (यूयम्) तुम सब (जनानाम्) लोगों से (दिप्सवः) मिथ्या-अभिमान और मिथ्या-व्यवहार की इच्छा रखने वाले शत्रुओं को, (यम्)  जिस श्रेष्ठ परमेश्वर या देव के (दिप्सन्ति) विरोध की इच्छा (द्रुह्वाणः) द्रोह करनेवाले को (यम्)  जिस दिव्य गुणवाले परमेश्वर या विद्वान् का (न+द्रुह्यन्ति) द्रोह  नहीं करते हैं और (न+अभिमातयः) अभिमानी नहीं हैं।  (यम्)  जिस दिव्य गुणवाले परमेश्वर वा विद्वान् को (न+अभिमन्यन्ते) हर ओर से मान्यता नहीं देते हैं, (तम्) उस (देवम्) दिव्य गुणों से युक्त (उपास्यम्) उपास्य (परमेश्वरम्) परमेश्वर को, जो (कार्य्यहेतुम्) कार्यों का हेतु है (वा) और (विद्वांसम्) विद्वान् को (सर्वे) सब लोग (जानीत) जानो॥१४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (न) निषेधे (यम्) वरुणं परमेश्वरं विद्वांसं वा (दिप्सन्ति) विरोद्धुमिच्छन्ति। (दिप्सवः) मिथ्याभिमानव्यवहारमिच्छवः शत्रवः। अत्रोभयत्र वर्णव्यत्ययेन धकारस्य दकारः। (न) प्रतिषेधे (द्रुह्वाणः) द्रोहकर्त्तारः (न) निवारणे (देवम्) दिव्यगुणं (अभिमातयः) अभिमानिनः। 'मा माने' इत्यस्य रूपम्॥१४॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं जनानां दिप्सवो यं न दिप्सन्ति द्रुह्वाणो यं न द्रुह्यन्त्यभिमातयो यं नाभिमन्यन्ते तं परमेश्वरं देवमुपास्यं कार्य्यहेतुं विद्वांसं वा सर्वे जानीत॥१४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। ये हिंसका परद्रोहयुक्ता अभिमानसहिता जना वर्त्तन्ते, ते विद्याहीनत्वात् परमेश्वरस्य विदुषां वा गुणान् ज्ञात्वा नैवोपकर्त्तुमर्हन्ति, तस्मात् सर्वैरेतेषां गुणकर्मस्वभावैः सह सदा भवितव्यम्॥१४॥

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    विषय

    वरुण कौन बना : दम्भ , द्रोह , दर्प का विनाश

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार सुपथ पर चलनेवाले लोग जीवन को श्रेष्ठ बना पाते हैं । श्रेष्ठ को ही 'वरुण' कहते हैं । यह 'वरुण' वह है जिसे (दिप्सवः) - दम्भ की इच्छावाले लोग (न , दिप्सन्ति) - दम्भ का शिकार बनाने की कामना नहीं करते , अर्थात् इसके सम्पर्क में आकर धोखा करनेवालों की धोखा करने की वृत्ति नष्ट हो जाती है । वे भी इसके जीवन से सरलता की शिक्षा लेते हैं । 

    २. (जनानाम्) - लोगों से (द्रुह्वाणः) - द्रोह करनेवाले भी इसके सम्पर्क में आकर द्रोह से ऊपर उठ जाते हैं । यह किसी के प्रति मन में द्रोह की भावना नहीं रखता , परिणामतः 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः' - इसमें अहिंसा की प्रतिष्ठा होने के कारण इसके समीप आकर लोग भी वैर को त्याग देते हैं । 

    ३. (देवम्) - इस दिव्य वृत्तिवाले को (अभिमातयः) - अभिमान आदि शत्रुभूत वृत्तियाँ भी (न) - पीड़ित नहीं कर पातीं , अर्थात् यह श्रेष्ठ जीवनवाला बनकर भी सब प्रकार के दर्प से ऊपर होता है और यही तो दिव्यता की शोभा है कि उसमें अभिमान का लेश भी नहीं होता । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'दम्भ , द्रोह व दर्प' से उठकर वरुण बनने का प्रयत्न करें । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुष ।

    भावार्थ

    ( यम् ) जिस ( देवम् ) दानशील परमेश्वर और विजिगीषु राजा को ( दिप्सवः ) हिंसाशील पुरुष ( न दिप्सन्ति ) मारना भी नहीं चाहते अर्थात् उससे मारने तक का संकल्प भी नहीं कर सकते और ( जनान द्रुह्वाणः ) जन्तु और सब मनुष्यों के द्रोहकारी लोग भी जिसका द्रोह नहीं कर पाते और जिसको ( अभिमातयः ) अभिमानी शत्रुगण भी परास्त नही कर सकते, वही परमेश्वर, और राजा न्यायकारी पद पर स्थित ‘वरुण’ है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जे हिंसक, परद्रोही, अभिमानी लोक आहेत ते अज्ञानामुळे परमेश्वर किंवा विद्वानांच्या गुणांना जाणू शकत नाहीत व त्यांच्याकडून उपकार घेण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. त्यासाठी सर्व माणसांनी त्यांचे गुण कर्म स्वभाव जाणून त्यांचे ग्रहण करावे. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The enemies of humanity dare challenge Him not, the jealous affect Him not, the proud can touch Him not, Lord of light and universe since He is.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that Varuņa is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ)=humans, (yūyam) =all of you, (janānām) =to people, (dipsavaḥ)=to enemies who wish for false pride and false conduct, (yam) =of which Supreme God, (dipsanti)=desire to oppose, (druhvāṇaḥ)= to the betrayer, (yam) =the divine virtues of God or scholar, (na+druhyanti)=do not commit treason, (na+abhimātayaḥ)=are not arrogant, (yam)=the God or the scholar who has divine virtues, (na+abhimanyante)= do not recognize from all sides, (tam) =that, (devam)=having divine virtues, (upāsyam)=to be worshipped, (parameśvaram) =to God who, (kāryyahetum)=is purpose of works, (vā) =and,(vidvāṃsam) =to scholar, (sarve)=all, (jānīta)=must know.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! To the enemies who desire false pride and false conduct from all of you, to those who seditiously wish to oppose the Supreme God or deity, those with divine virtues who do not betray God or a scholar and are not arrogant. The God with divine virtues or the scholar who is not recognized from all sides, everyone should know that Supreme God with divine virtues, who is the object of actions and the scholars.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. Those violent rebels who are proud people, they may not be able to know the merits of the God or scholars without knowledge and be able to take help from them. Therefore everyone should always have his virtues, deeds and nature.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject (of Varuna) is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) (1) Omen, you should know that God as Adorable whom enemies of false dealing dare not offend, nor those who tyrannies over men, nor haughty persons whose minds are bent on wrong. (2) You should also know such a learned person who can accomplish all good acts and whom oppressors of mankind, persons of false dealing and haughty people can not dare to offend or displease.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दिप्सन्ति) विरोदधुमिच्छन्ति अत्र वर्णव्यत्ययेन धकारस्य दकार: (दिप्सव:) मिथ्याभिमानव्यवहार मिच्छवः । = Desire to oppose. (अभिमातयः) अभिमानिनः ।= Proud or haughty persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those haughty persons who are of violent and malicious nature, can not know the attributes of God and wise men on account of their ignorance. They can not derive benefit from them. Therefore men should try to imbibe and follow the merits, actions and nature of God and wise men.

    Translator's Notes

    (दिप्सवः ) दम्भु-दम्भने लोकवंचनाय विहितकर्मानुष्ठानं दम्भः (अभिमातयः) । = Proud or haughty persons. It also means पाप्मानः पाप्मा बा अभिमातिः अथवा सपत्नोवा अभिमातिः -शत्रुः = Enemies. अभिपूर्वकात् मा माने इत्यस्मात् औणादिकः क्तिच् प्रत्ययः ।

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