ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 17
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सं नु वो॑चावहै॒ पुन॒र्यतो॑ मे॒ मध्वाभृ॑तम्। होते॑व॒ क्षद॑से प्रि॒यम्॥
स्वर सहित पद पाठसम् । नु । वो॒चा॒व॒है॒ । पुनः॑ । यतः॑ । मे॒ । मधु॑ । आऽभृ॑तम् । होता॑ऽइव । क्षद॑से । प्रि॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥
स्वर रहित पद पाठसम्। नु। वोचावहै। पुनः। यतः। मे। मधु। आऽभृतम्। होताऽइव। क्षदसे। प्रियम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 17
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैर्यथायोग्या विद्या कथं प्राप्तव्या इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
यत आवामुपदेशोपदेष्टारौ होतेवानुक्षदस आभृतं यजमानप्रियं मधुमधुरगुणविशिष्टं विज्ञानं संवोचावहै, यतो मे मम तव च विद्यावृद्धिर्भवेत्॥१७॥
पदार्थः
(सम्) सम्यगर्थे (नु) अनुपृष्टे (निरु०१.४) (वोचावहै) परस्परमुपदिशेव। लेट्प्रयोगोऽयम्। (पुनः) पश्चाद्भावे (यतः) हेत्वर्थे (मे) मम (मधु) मधुरगुणविशिष्टं विज्ञानम् (आभृतम्) विद्वद्भिर्यत्समन्ताद् ध्रियते धार्यते तत् (होतेव) यज्ञसम्पादकवत् (क्षदसे) अविद्यारोगान्धकारविनाशकाय बलाय (प्रियम्) यत् प्रीणाति तत्॥१७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा होतृयजमानौ प्रीत्या परस्परं मिलित्वा हवनादिकं कर्म प्रपूर्त्तस्तथैवाध्यापकाध्येतारौ समागम्य सर्वा विद्याः प्रकाशयेतामेवं समस्तैर्मनुष्यैरस्माकं विद्यावृद्धिर्भूत्वा वयं सुखानि प्राप्नुयामेति नित्यं प्रयतितव्यम्॥१७॥
हिन्दी (5)
विषय
मनुष्यों को यथायोग्य विद्या किस प्रकार प्राप्त होनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(यतः) जिससे हम आचार्य और शिष्य दोनों (होतेव) जैसे यज्ञ करानेवाला विद्वान् (नु) परस्पर (क्षदसे) अविद्या और रोगजन्य दुःखान्धकार विनाश के लिये (आभृतम्) विद्वानों के उपदेश से जो धारण किया जाता है, उस यजमान के (प्रियम्) प्रियसम्पादन करने के समान (मधु) मधुर गुण विशिष्ट विज्ञान का (वोचावहै) उपदेश नित्य करें कि उससे (मे) हमारी और तुम्हारी (पुनः) बार-बार विद्यावृद्धि होवे॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ कराने और करनेवाले प्रीति के साथ मिलकर यज्ञ को सिद्ध कर पूरण करते हैं, वैसे ही गुरु शिष्य मिलकर सब विद्याओं का प्रकाश करें। सब मनुष्यों को इस बात की चाहना निरन्तर रखनी चाहिये कि जिससे हमारी विद्या की वृद्धि प्रतिदिन होती रहे॥१७॥
विषय
मनुष्यों को यथायोग्य विद्या किस प्रकार प्राप्त होनी चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यत आवाम् उपदेश उपदेष्टारौ (होतेव) नुक्षदसे आभृतं यजमानप्रियं मधु मधुरगुणविशिष्टं विज्ञानं सं वोचावहै, यतः मे मम तव च विद्यावृद्धिः भवेत्॥१७॥
पदार्थ
(यतः)=जिससे, (आवाम्)=हम दोनों, (उपदेश)=उपदेश के, (उपदेष्टारौ)=उपदेशक, (होतेव) यज्ञसम्पादकवत्= यज्ञ का सम्पादन करानेवाले विद्वान् जैसे, (नु) अनुपृष्टे=परस्पर, (क्षदसे) अविद्यारोगान्धकारविनाशकाय बलाय=अविद्या और रोगजन्य दुःख के अन्धकार के विनाश करनेवाले बल के लिये, (आभृतम्) विद्वद्भिर्यत्समन्ताद् ध्रियते धार्यते तत् यजमानप्रियम्=विद्वानों के उपदेश से जो धारण किया जाता है, उस प्रिय यजमान के, (मधु) मधुरगुणविशिष्टं= विशिष्ट मधुर गुणों के विशिष्ट ज्ञान के लिये, (वोचावहै) उपदेश करें (यतः) हेत्वर्थे=इसलिये, (मे) मम=मेरी, (च)=और, (तव)=आपकी, (विद्यावृद्धिः)= विद्या वृद्धि, (भवेत्)= होवे॥१७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ कराने और करनेवाले मिलकर यज्ञ को सिद्ध कर पूर्ण करते हैं, वैसे ही गुरु शिष्य मिलकर सब विद्याओं का प्रकाश करते हैं, ऐसे ही सब मनुष्यों के द्वारा हमारी विद्या की वृद्धि होकर हमें सुख की प्राप्ति हो ऐसा नित्य प्रयत्न करना चाहिये। ॥१७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यतः) जिससे (आवाम्) हम दोनों (उपदेश) उपदेश के (उपदेष्टारौ) उपदेशक (होतेव) यज्ञ का सम्पान करानेवाले विद्वान् जैसे (नु) परस्पर (क्षदसे) अविद्या और रोगजन्य दुःख के अन्धकार के विनाश करने वाले बल के लिये (आभृतम्) विद्वानों के उपदेश से जो धारण किया जाता है, उस प्रिय यजमान के (मधु) विशिष्ट मधुर गुणों के विशिष्ट ज्ञान के लिये (वोचावहै) उपदेश करें। (यतः) इसलिये (मे) मेरी, (च) और (तव) आपकी (विद्यावृद्धिः) विद्या की वृद्धि, (भवेत्) होवे॥१७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) सम्यगर्थे (नु) अनुपृष्टे (निरु०१.४) (वोचावहै) परस्परमुपदिशेव। लेट्प्रयोगोऽयम्। (पुनः) पश्चाद्भावे (यतः) हेत्वर्थे (मे) मम (मधु) मधुरगुणविशिष्टं विज्ञानम् (आभृतम्) विद्वद्भिर्यत्समन्ताद् ध्रियते धार्यते तत् (होतेव) यज्ञसम्पादकवत् (क्षदसे) अविद्यारोगान्धकारविनाशकाय बलाय (प्रियम्) यत् प्रीणाति तत्॥१७॥
विषयः- मनुष्यैर्यथायोग्या विद्या कथं प्राप्तव्या इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यत आवामुपदेशोपदेष्टारौ होतेवानुक्षदसे आभृतं यजमानप्रियं मधुमधुरगुणविशिष्टं विज्ञानं संवोचावहै, यतो मे मम तव च विद्यावृद्धिर्भवेत्॥१७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा होतृयजमानौ प्रीत्या परस्परं मिलित्वा हवनादिकं कर्म प्रपूर्त्तस्तथैवाध्यापकाध्येतारौ समागम्य सर्वा विद्याः प्रकाशयेतामेवं समस्तैर्मनुष्यैरस्माकं विद्यावृद्धिर्भूत्वा वयं सुखानि प्राप्नुयामेति नित्यं प्रयतितव्यम्॥१७॥
विषय
वरुण से वार्तालाप
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार वरुण का ही वरण करनेवाला प्रभु से कहता है कि हे प्रभो! (नु) - अब , जबकि मैं दम्भादि से ऊपर उठा हूँ [१४] । आपकी कृपा से यशस्वी जीवनवाला बना हूँ [१५] और मेरा ध्यान आपमें ही लगा है [१६] , (सं वोचावहै) - आप और मैं मिलकर बातचीत करनेवाले हों ।
२. एक समय वह था ही जबकि ब्रह्मलोक में रहते हुए मैं आपसे उसी प्रकार बात करता था जैसे कि पुत्र पिता से । दुर्भाग्यवश मैं आपसे दूर भटक गया । 'देवलोक व देवयोनिलोक' में से होता हुआ यहाँ 'मर्त्यलोक' में आ गया । मेरी वृत्तियाँ यहाँ विषय - प्रवण हो गई और मैं आपको भूल गया ।
३. विषयों के चंगुल से निकलकर , दम्भादि का ध्वंस करके आज मैं (पुनः) - फिर आपके समीप आया हूँ , जिससे हम फिर परस्पर बात करनेवाले हो सकें । (यतः) - क्योंकि (मे मधु आभृतम्) - अब मुझमें माधुर्य ही माधुर्य भर गया है , कड़वाहट से मैं ऊपर उठ गया हूं । न मैं किसी को धोखा देता है [मुझमें दम्भ नहीं] , न किसी से द्रोह करता हूँ , न ही दर्प को अपने में आने देता हूँ । माधुर्य से पूर्ण होकर आपसे बात कर सकने की योग्यता का मैंने सम्पादन किया है ।
४. मुझे पूर्ण विश्वास है कि (होता इव) - सब कुछ देनेवाले की भाँति आप ही यह उत्कृष्ट वृत्ति भी मुझे प्राप्त कराते हैं और (प्रियम्) - आपका प्रिय बना हुआ जो मैं हूँ , उसकी आप (क्षदसे) - [to protect , to cover] अपनी गोद में छिपाकर रक्षा करते हो । अब मुझपर दम्भादि का आक्रमण सम्भव ही नहीं रहता ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अपने जीवन में माधुर्य भरकर प्रभु से बात करने के अधिकारी बनें और उस प्रभु की रक्षा के पात्र हों ।
विषय
विद्वान् पुरुष ।
भावार्थ
( यतः ) क्योंकि ( मे ) मुझे ( मधु ) अति प्रिय ज्ञानरस विद्वानों से प्राप्त हुआ है । और हे शिष्य ! तू उस ( प्रियम् ) प्रिय, तृप्ति कर ज्ञानराशि को ( होता इव ) यज्ञकर्त्ता विद्वान् के समान ही (क्षदसे) अपने हृदय के अज्ञान के नाश के लिए प्राप्त करता है इसलिए हम दोनों ( सं वोचावहै ) भली प्रकार उस ज्ञान को परस्पर वचन-प्रतिवचन द्वारा उपदेश दें और ग्रहण करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यत:-मे मधु-भृतम्) जिस कारण वरुण परमात्मा! तूने मेरे लिये अपना मधु-मधुर दर्शनामृत आभरित किया है । (नु पुनः संवोचाव है) अतः हम दोनों तू मेरा वरुण परमात्मा और मैं तेरा उपासक परस्पर संवाद करे तू मुझे ज्ञानामृत देसुना, मै तेरा ज्ञानामृत लूँ-सुनू' (होता-इव क्षदसे प्रियम्) जैसे होता ऋत्विक् पुरोहित 'सदसे वर्णव्यत्ययेन' यज्ञ में बैठने वाले यजमान के लिए प्रिय वचन हित वचन बोलताप्रदान करता है यजमान सुनता है जो होता है, ऐसे ही अध्यात्म में वरुण परमात्मा ज्ञानामृत देता है उपासक लेता है मानो दोनों का देन तेन संवाद चलता है ॥१७॥
विशेष
ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा यज्ञ करणारा व करविणारा प्रेमाने एकत्रित येऊन यज्ञ पूर्ण करतात तसेच गुरु-शिष्यांनी मिळून सर्व विद्या प्रकट करावी. सर्व माणसांनी ही अभिलाषा ठेवावी की आमच्या विद्येची प्रतिदिनी वाढ होत राहावी. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Let us speak together again and again since you give me dear sweet food for knowledge collected from versatile sources just as a priest gives honey-sweets to the yajamana for dispelling his ignorance with knowledge.
Subject of the mantra
How should men get precise knowledge, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yataḥ)=By which (āvām)=both of us, (upadeśa)=of preaching, (upadeṣṭārau)=the preacher, (hoteva) =like the scholar who got the yajan performed, (nu)=mutual, (kṣadase)=for the power that destroys the darkness of ignorance and diseased sorrow, (ābhṛtam)=what is adopted by the teachings of the scholars, for that host loving person, (madhu)=for specific knowledge of sweet specific qualities, (vocāvahai)=preach, (yataḥ)=therefore, (me)= mine, (ca)=and, (tava)=your, (vidyāvṛddhiḥ)=growth of the knowledge, (bhavet)=there must be.
English Translation (K.K.V.)
By which both of us, preachers of the preaching, like the scholar who got the yajan performed for the mutual power that destroys the darkness of ignorance and disease enacted sorrow, what is adopted by the teachings of the scholars, for that host loving person for specific knowledge of the sweet specific qualities must preach. Therefore, there must be growth of the knowledge of mine and yours.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as the performers and those getting performed together complete by accomplishing the yajan, similarly the Guru and disciple together manifest all the knowledge, in the same way, by increasing our knowledge through all human beings, we should try our best to attain happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men acquire true knowledge is taught in the 17th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As a priest gives sweet satisfactory knowledge gathered by the wise to the performer of the Yajna for giving him strength to dispel darkness of ignorance, so let us-the teachers and the taught-speak to one another lovingly, so that our wisdom may grow from day to day.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मधु ) मधुरगुणविशिष्टं विज्ञानम् = Sweet knowledge. (आभृतम् ) विद्वद्भिः समन्ताद् ध्रियते धार्यते तत् = Gathered by the wise. (क्षदसे) अविद्यारोगान्धकारविनाशकाय बलाय =for the strength to dispel the disease and darkness of ignorance. (प्रियम्) यत् मीणाति तत् = Satisfactory, dear.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in this mantra. As a priest and the performer of a Yajna (Non-violent sacrifice) accomplish Yajna lovingly and jointly, in the same manner, the teacher and the taught should manifest all sciences jointly and lovingly. All men should endeavor to attain happiness, bearing in mind the idea of increasing their knowledge and wisdom.
Translator's Notes
Rishi Dayananda explains मधु as मधुरगुणविशिष्टं विज्ञानम् for it is derived from मन्-ज्ञाने मनेर्धश्छन्दसि (उणादि० २.११६ ) मन्यते बुध्यते यत् येन या तद् मधु Sweet knowledge क्षदसे has been interpreted by the Rishi as अविधारोगान्धकार विनाशकबलाय as the word is derived from क्षदति:- शकलीकरणार्थ: In Apte's well-known Sanskrit-English Dictionary, we find the following note on Veda. To cut, to kill, to consume. So Rishi Dayananda's interpretation is substantiated by the root-meaning.
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