Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तदित्स॑मा॒नमा॑शाते॒ वेन॑न्ता॒ न प्र यु॑च्छतः। धृ॒तव्र॑ताय दा॒शुषे॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । इत् । स॒मा॒नम् । आ॒शा॒ते॒ इति॑ । वेन॑न्ता । न । प्र । यु॒च्छ॒तः॒ । धृ॒तऽव्र॑ताय । दा॒शुषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। इत्। समानम्। आशाते इति। वेनन्ता। न। प्र। युच्छतः। धृतऽव्रताय। दाशुषे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वायुसूर्य्यावुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    एतौ वेनन्ता प्रयुच्छतो न=इव मित्रावरुणौ धृतव्रताय दाशुषे तदिद्यानं समानमाशाते व्याप्नुतः॥६॥

    पदार्थः

    (तत्) हुतं हविः। विमानादिरचनविधानं वा (इत्) एव (समानम्) तुल्यम् (आशाते) व्याप्नुतः (वेनन्ता) वादित्रवादकौ। अत्र ‘वेनृ’ धातोर्वादित्राद्यर्थो गृह्यते। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशश्च। (न) इव। निरुक्तकारनियमेन परः प्रयुज्यमानो नकार उपमार्थे भवतीति हेतोः सायणाचार्य्यस्य निषेधार्थव्याख्यानमशुद्धमेव। (प्र) प्रकृष्टार्थे (युच्छतः) हर्षं कुरुतः (धृतव्रताय) धृतं धारितं व्रतं सत्यभाषणादिकं क्रियामयं वा येन तस्मै (दाशुषे) दानकर्त्रे॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा हर्षवन्तौ वादित्रवादनकुशलौ वादित्राणि गृहीत्वा चालयित्वा शब्दयतस्तथैव साधितं धृतविद्येन मनुष्येण हुतं हविर्विमानादियानं च कलायन्त्रेषु यथावत् प्रयोजितौ वायुसूर्य्यौ धृत्वा चालयित्वा शब्दयतः॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (6)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में सूर्य्य और वायु का प्रकाश किया है॥

    पदार्थ

    ये (प्रयुच्छतः) आनन्द करते हुए (वेनन्ता) बाजा बजानेवालों के (न) समान सूर्य और वायु (धृतव्रताय) जिसने सत्यभाषण आदि नियम वा क्रियामय यज्ञ धारण किया है, उस (दाशुषे) उत्तम दान आदि धर्म करनेवाले पुरुष के लिये (तत्) जो उसका होम में चढ़ाया हुआ पदार्थ वा विमान आदि रथों की रचना (इत्) उसी को (समानम्) बराबर (आशाते) व्याप्त होते हैं॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अति हर्ष करनेवाले बाजे बजाने में अति कुशल दो पुरुष बाजों को लेकर चलाकर बजाते हैं, वैसे ही सिद्ध किये विद्या के धारण करनेवाले मनुष्य से होम हुए पदार्थों को सूर्य और वायु चालन करके धारण करते हैं॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अब इस मन्त्र में सूर्य्य और वायु का प्रकाश किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    एतौ एतौ प्र युच्छतः (न) इव मित्रावरुणौ धृतव्रताय दाशुषे तत् इत् यानं समानम् आशाते(व्याप्नुतः)॥६॥

    पदार्थ

    (एतौ)=ये दोनों, (वेनन्ता) वादित्रवादकौ=बाजा बजाने वालों के, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से (युच्छतः) हर्षं कुरुतः=आनन्द करते हुए, (न) इव=जैसे, (मित्रावरुणौ)=सूर्य और वायु, (धृतव्रताय) धृतं धारितं व्रतं सत्यभाषणादिकं क्रियामयं वा येन तस्मै=जिसने सत्यभाषण आदि नियम वा क्रियामय यज्ञ धारण किया है, उस (दाशुषे) दानकर्त्रे=उत्तम दान करने वाले पुरुष के लिये, (तत्) हुतं हविः=होम में चढ़ाया हुआ पदार्थ, (इत्) एव=ही,  (समानम्) तुल्यम्=समानरूप से, (आशाते) व्याप्नुतः=व्याप्त होते हैं॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे हर्ष करनेवाले, बाजा बजाने में कुशल बाजों को लेकर चलाकर बजाते हैं, वैसे ही सिद्ध किये विद्या के धारण करनेवाले मनुष्य होम हुए पदार्थों को यथावत् प्रयोग करते हुए वायु और सूर्य को धारण करते हुए चलाकर शब्द करते हैं॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (एतौ) ये दोनों सूर्य और वायु (वेनन्ता)  बाजा बजाने वालों के (न) समान (प्र) प्रकृष्ट रूप से (युच्छतः) आनन्द प्रदान करते हुए (मित्रावरुणौ) सूर्य और वायु (धृतव्रताय) जिसने सत्यभाषण आदि नियम वा क्रियामय यज्ञ धारण किया है, उस (दाशुषे) उत्तम दान करने वाले पुरुष के लिये (तत्) होम में चढ़ाये हुए पदार्थ में (इत्) ही  (समानम्) समानरूप से (आशाते) व्याप्त होते हैं॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तत्) हुतं हविः। विमानादिरचनविधानं वा (इत्) एव (समानम्) तुल्यम् (आशाते) व्याप्नुतः (वेनन्ता) वादित्रवादकौ। अत्र 'वेनृ' धातोर्वादित्राद्यर्थो गृह्यते। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशश्च। (न) इव। निरुक्तकारनियमेन परः प्रयुज्यमानो नकार उपमार्थे भवतीति हेतोः सायणाचार्य्यस्य निषेधार्थव्याख्यानमशुद्धमेव। (प्र) प्रकृष्टार्थे (युच्छतः) हर्षं कुरुतः (धृतव्रताय) धृतं धारितं व्रतं सत्यभाषणादिकं क्रियामयं वा येन तस्मै (दाशुषे) दानकर्त्रे॥६॥
    विषयः- अथ वायुसूर्य्यावुपदिश्यते॥

    अन्वयः- एतौ वेनन्ता प्रयुच्छतो न=इव मित्रावरुणौ धृतव्रताय दाशुषे तदिद्यानं समानमाशाते व्याप्नुतः॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा हर्षवन्तौ वादित्रवादनकुशलौ वादित्राणि गृहीत्वा चालयित्वा शब्दयतस्तथैव साधितं धृतविद्येन मनुष्येण हुतं हविर्विमानादियानं च कलायन्त्रेषु यथावत् प्रयोजितौ वायुसूर्य्यौ धृत्वा चालयित्वा शब्दयतः॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    समान , धृतव्रत , दाश्वान्

    पदार्थ

    १. एक घर में पति - पत्नी (इत्) - निश्चय से (तत्) - उस सर्वव्यापक (समानम्) - [सम् , आनयति] सम्यक् सोत्साहित व प्राणित करनेवाले प्रभु को ही (आशाते) - व्याप्त करते हैं अर्थात् सदा प्रत्येक कार्य को करते हुए प्रभु का स्मरण करते हैं उस प्रभु को भूलते नहीं । 

    २. (वेनन्ता) - ये दोनों उस प्रभु की ही कामनावाले होते हैं (न प्रयुच्छतः) - ये प्रमाद कभी नहीं करते । 

    ३. प्रमादरहित होकर ये उस प्रभु की प्राप्ति के लिए ही मार्ग पर निरन्तर बढ़ते हैं जो प्रभु (धृतव्रताय) - सब व्रतों का धारण करनेवाले हैं तथा (दाशुषे) - दाश्वान् - सब - कुछ देनेवाले हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - वह 'वरुण' नामक प्रभु 'समान , धृतव्रत व दाश्वान्' हैं । हमें प्रमादरहित होकर उस प्रभु की प्राप्ति की प्रबल कामना से मार्ग पर बढ़ते चलना चाहिए । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( धृतव्रताय ) समस्त व्रतों, नियमों, कर्त्तव्यों की वाग डोर को धारण करने वाले ( दाशुषे ) दान शील स्वामी को प्रसन्न करने लिये (वेनन्ता) उसकी अभिलाषा के अनुसार वाद्य वादन और गान करने वाले गायक, वादक ( न ) जिस प्रकार ( तद् इत् ) उसके अभिलषित गान वाद्य को ( समानम् ) दोनों समान रूप से ( आशाते ) प्रयोग करते हैं और ( प्र युच्छतः) उसको प्रसन्न करते हैं । उसी प्रकार ( धृतव्रताय ) समस्त संसार की नियम व्यवस्थाओं को धारण करने वाले ( दाशुषे ) सर्व सुखों के दाता परमेश्वर की ( वेतन्ता ) कामना करने वाले साधक और जिज्ञासु जन ( तद् इत् ) उसके वचन को ( समानम् ) समान रूप से ( आशाते ) प्राप्त करें और ( प्र युच्छतः ) उसको प्रसन्न करें । अथवा राजा के दो भृत्य जिस प्रकार समान रूप से पद को प्राप्त करते उसकी कामना करते ( न प्र युच्छतः ) नहीं प्रमाद करते उसी प्रकार सबनियम व्यवस्थाओं के धारण करने वाले सबके दाता स्वामी, परमेश्वर के बनाये नियम को सूर्य और वायु भी समान रूप से व्यापते हैं और वे ( न प्र युच्छतः ) कभी प्रमाद नहीं करते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1083
    ओ३म् तदित्स॑मा॒नमा॑शाते॒ वेन॑न्ता॒ न प्र यु॑च्छतः ।
    धृ॒तव्र॑ताय दा॒शुषे॑ ॥
    ऋग्वेद 1/25/6

    दास हैं हम तुम दाश्वान हो,
    हम सब का जीवन सम्भालो,
    तुम सुखदायक मङ्गलदायक,
    हम सब को अपना बना लो,
    सुख मिलते नहीं चाहकर भी हमें
    दाता दोष हमारे दिखा दो
    दास हैं हम तुम दाश्वान हो,
    हम सब का जीवन सम्भालो

    जानते हैं तुम धृतव्रत हो,
    व्रत नियमों को धारण करते,
    हम भी यदि चलते हैं नियम से,
    फिर भी कष्ट से क्यों डरते?
    बनें पात्र हम तेरे सच्चे,
    क्यों कर नहीं मिलते, हो हमसे,
    दास हैं हम तुम दाश्वान हो,
    हम सब का जीवन सम्भालो

    नर नारी वरुण प्रभु के प्रति,
    भूले से भी यदि ना करें प्रमाद,
    अप्रमत्त हो के पाले नियम तो,
    निज आत्मा में होगा प्रकाश
    अखण्डित सुख हम प्राप्त करें
    यही है जीवन की सच्ची विसात
    दास हैं हम तुम दाश्वान हो,
    हम सब का जीवन सम्भालो

    नियम से हम पुरुषार्थ करें,
    तो होगी पूरी आशाएँ,
    शाश्वत सुख के भागी बन,
    होगी आनन्दित आत्माएँ  
    त्यागो प्रमाद पालो नियम 
    करो दूर पीड़ायें बाधायें
    दास हैं हम तुम दाश्वान हो,
    हम सब का जीवन सम्भालो
    तुम सुखदायक मङ्गलदायक,
    हम सब को अपना बना लो,
    सुख मिलते नहीं चाहकर भी हमें
    दाता दोष हमारे दिखा दो
    दास हैं हम तुम दाश्वान हो,
    हम सब का जीवन सम्भालो

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :-  9 .12.12  11:30 प्रातः
    *राग :- *
                         
    शीर्षक :- उसके प्रति प्रमाद मत करो 
    *तर्ज :- *
    0103-703 

    धृतवृत = संसार के सब नियम और कार्यों को धारण करना
    दाश्वान = सब कुछ देने वाला (वरुण प्रभु)
    वेनन्ता = नाना कामनाओं वाले लोग
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    उसके प्रति प्रमाद मत करो

    भगवान दाश्वान! हैं। हमें सब प्रकार के सुख और मङ्गल देने वाले हैं। वे तो हमें सर्वदा ही सुख देने के लिए उद्यत है। इस पर भी जो हमें सुख नहीं मिलते इसमें दोष हमारा ही है। भगवान धृतव्रत हैं। उन्होंने इस संसार में भान्ति भान्ति के व्रतों अर्थात् नियमों को धारण कर रखा है।
     उन्होंने विश्व में अनेक प्रकार के नियमों को चला रखा है। ये नियम उन्होंने इसलिए चलाए हैं, कि यदि हम उन पर चलते रहें तो हम सदा सुखी रहेंगे। हम धृतव्रत प्रभु के इन नियमों को तोड़ते हैं, इसलिए हमें दु:खी होना पड़ता है।सुख से वंचित रहना पड़ता है। यदि हम नर-नारी वरुण प्रभु के प्रति प्रमाद ना करें और अप्रमत्त तो होकर सदा उसके नियमों का पालन करते रहें, तो हमें सदा निरन्तर समान रूप से सुख ही सुख प्राप्त होता रहेगा। उसका अखंडित रूप में सुख प्राप्त करने का एक उपाय है,कि हम अप्रमादी होकर प्रभु के व्रतों का पालन करते रहें। इसके बिना सुख मङ्गल प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है। यहां स्त्री और पुरुष के लिए "वेनन्ता" पद का प्रयोग हुआ है। द्विवचन के बल पर इसका अर्थ स्त्री और पुरुष किया गया है "वेनन्ता" शब्द का अर्थ होता है कामनाओं वाला । यहां नर नारी को "वेनन्ता" कामनाओं वाले कहने का भाव यह है कि हम नर नारियों में कितनी भी कामनाएं क्यों ना हो हमारी शुभकामनाएं पूर्ण हो जाएंगी और उनकी पूर्ति से हमें सदा सुख मिलता रहेगा। यदि हम और प्रमादी होकर भगवान् के व्रतों का पालन करेंगे । 
    शाश्वत सुख के अभिलाषी हे मेरे आत्मा! प्रमाद छोड़कर प्रभु के नियमों के पालन में लग जा फिर तेरे सुखों का कभी विघात ना होगा।

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (धृतव्रताय दाशुषे) धारण कर लिया व्रत-सदाचरण जिसने ऐसे सदाचारानुष्ठानी तथा उस वरुण परमात्मा के प्रति अपना प्रदान समर्पण कर चुके हुए उपासक के लिये (वनन्ता तत्-इत् समानम्-आशाते) वरुण परमात्मा के राष्ट्रपतित्व में दोनों कमनीय यह लोक और मोक्षधाम अभ्युदय और निःश्रेयस "वेनति कान्तिकर्मा' [निघ० २२६] "कर्मणि कर्तृ प्रत्ययश्छान्दसः कृतो बहुलमिति वा” समान भाव से 'आशयत:' [अन्तर्गतजिर्थ:] भोग कराते हैं (न प्रयुच्छतः) कभी भी अपने अपने फल प्रदान से प्रमाद नहीं करते हैं ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे अति हर्षित दोन कुशल वादक वाद्य वाजवितात, तसेच विद्यायुक्त माणसांकडून होमात घातलेल्या पदार्थांना सूर्य व वायू धारण करतात. ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Both Mitra and Varuna yearning with love for the man of the vows of Dharma and yajnic generosity forsake him not, they abide by him constantly and bless him with fulfilment.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Now, in this mantra Sun and the air have been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (etau)=Both of these Sun and the air, (venantā=players of the musical instruments, (na)=like, (pra)=for specifically, (yucchataḥ)=giving pleasure (mitrāvaruṇau)=Sun and the air, (dhṛtavratāya)=who has adopted ethics of truthful speech and yajnas as sacrifice, [usa]=that, (dāśuṣe)=for the person offering excellent donations, (tat)=in the substances poured in offerings in yajnas, (it)=only, (samānam)= uniformly, (āśāte)=pervade.

    English Translation (K.K.V.)

    These two Sun and air are like players on the musical instrument, the Sun and the air bestowing joy, The one who has adopted the rules of truthful speech etc. or ritualistic yajan. They are equally pervaded in the substance offered in the home for that best donor.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as those who are joyful, who are skilled in playing the instrument, play by playing with instruments, similarly those who possess the perfected knowledge, while using the materials in the yajan, keep the air and the Sun in the same way.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The properties of the air and sun are taught in the Sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The two (Mitra and Varuna or the air and the sun) like the two players on musical instruments who give happiness are equally confreres of delight to the righteous observers of truth and other vows who offers oblations in the fire or construct vehicles like the aero planes etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तत्) हवि: हुतं हविः विमानादिरचनविधानं वा । = Oblation put in the fire or the manufacture of aero plane etc. (वेनन्ता ) वादिववादकौ । अत्र वेन् धातोर्वादिवार्थो गृह्यते । सुपां सुलुगित्याकारादेशश्र । (युच्छतः ) हर्ष कुरुतः ।= Give delight. (दाशुषे ) दानकर्त्रे । = To the Giver.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As two happy players on the musical instruments produce pleasant sound by playing upon their instruments, in the same way, the air and the sun when utilized properly in machines produce nice sound by moving on all sides the oblation given by a learned person or the vehicles like the aero planes etc. manufactured by an expert scientist.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted वेनन्ता as वादित्रवादको = players on musical instruments. It is derived from वेनू गति ज्ञान चिन्ता निशामन वादित ग्रहणेनु here the meaning of वादित्र has been taken प्रयुच्छत: has been explained by Rishi Dayananda as प्रकर्षण हर्षं कुरुतः = Give great pleasure प्रयुच्छत: is derived great from युच्छ-प्रमादे मदी-हर्पे Therefore it means-give pleasure or happiness. The Devata or subject of the Mantra is मित्रवरुणौ Mitra means sun is admitted on all hands. अहर्वैमित्रः ( ऐत० ४.१० ) When day is called मित्र the as maker or lord of the day is certainly called in Mantras like मित्रो जनान् यातर्थात ब्र बाणो मित्रो दाधारपृथिवीमुतद्याम् || ( ऋ० ३. ५९. १ ) In यः प्राणः स वरुणः (गोपथ उ० ४. ११) and other passages of the Brahmanas the word वरुण has been used for प्राण वायु = vital air. Hence Rishi Dayananda's interpretation is quite correct and based upon ancient authorities.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top