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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 13
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    बिभ्र॑द्द्रा॒पिं हि॑र॒ण्ययं॒ वरु॑णो वस्त नि॒र्णिज॑म्। परि॒ स्पशो॒ निषे॑दिरे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बिभ्र॑त् । द्रा॒पिम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । वरु॑णः । व॒स्त॒ । निः॒ऽनिज॑म् । परि॑ । स्पशः॑ । नि । से॒दि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो निषेदिरे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बिभ्रत्। द्रापिम्। हिरण्ययम्। वरुणः। वस्त। निःऽनिजम्। परि। स्पशः। नि। सेदिरे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 13
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यथाऽस्मिन् वरुणे सूर्य्ये वा स्पर्शवन्तः सर्वे पदार्था निषेदिरे एतौ निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत एतान् सर्वान् पदार्थान् सर्वतोऽभिव्याप्याच्छादयतस्तथा विद्यान्यायप्रकाशे सर्वान् स्पर्शवन्तः पदार्थान् निषाद्य निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत् सन् वरुणो विद्वान् परिवस्त वस्ते सर्वान् शत्रून् स्वतेजसाऽऽच्छादयेत्॥१३॥

    पदार्थः

    (बिभ्रत्) धारयन् (द्रापिम्) कवचं निद्रां वा। अत्र ‘द्रै स्वप्ने’ अस्माद् इञ्वपादिभ्य इतीञ् (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मयम्। ऋत्व्यवास्त्व्य० (अष्टा०६.४.१७५) अनेनायं निपातितः ‘ज्योतिर्वै हिरण्यम्’ इति पूर्ववत्प्रमाणं विज्ञेयम्। (वरुणः) विविधपाशैः शत्रूणां बन्धकः (वस्त) वस्ते आच्छादयति। अत्र वर्त्तमाने लङडभावश्च। (निर्णिजम्) शुद्धम् (परि) सर्वतोभावे (स्पशः) स्पर्शवन्तः पदार्थाः (नि) नितराम् (सेदिरे) सीदन्ति। अत्र लडर्थे लिट्॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वे मनुष्या यथा वायुर्बलकारित्वात् सर्वमग्न्यादिकं मूर्त्तामूर्तं वस्तु धृत्वाऽऽकाशे गमनागमने कुर्वन् गमयति। यथा सूर्य्यलोको प्रकाशस्वरूपत्वाद् रात्र्यन्धकारं निवार्य्य स्वतेजसा प्रकाशते, तथैव सुशिक्षाबलेन सर्वान् मनुष्यान् धृत्वा धर्मे गमनागमने कृत्वा कार्येरन्॥१३॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जैसे इस वायु वा सूर्य्य के तेज में (स्पशः) स्पर्शवान् अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म सब पदार्थ (निषेदिरे) स्थिर होते हैं और वे दोनों (वरुणः) वायु और सूर्य्य (निर्णिजम्) शुद्ध (हिरण्ययम्) अग्न्यादिरूप पदार्थों को (बिभ्रत्) धारण करते हुए (द्रापिम्) बल तेज और निद्रा को (परिवस्त) सब प्रकार से प्राप्त कर जीवों के ज्ञान को ढाँप देते हैं, वैसे (निर्णिजम्) शुद्ध (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मय प्रकाशयुक्त को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (द्रापिम्) निद्रादि के हेतु रात्रि को (परिवस्त) निवारण कर अपने तेज से सबको ढाँप लेता है॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे वायु बल का करने हारा होने से सब अग्नि आदि स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों को धरके आकाश में गमन और आगमन करता हुआ चलता और जैसे सूर्य्यलोक भी स्वयं प्रकाशरूप होने से रात्रि को निवारण कर अपने प्रकाश से सबको प्रकाशता है, वैसे विद्वान् लोग भी विद्या और उत्तम शिक्षा के बल से सब मनुष्यों को धारण कर धर्म में चल सब अन्य मनुष्यों को चलाया करें॥१३॥

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    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा अस्मिन् वरुणे सूर्य्ये वा स्पर्शवन्तः सर्वे पदार्था निषेदिरे एतौ निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत एतान् सर्वान् पदार्थान् सर्वतः अभिव्यापि आच्छादयतः तथा विद्यान्यायप्रकाशे सर्वान् स्पर्शवन्तः पदार्थान् निषाद्य निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत् सन् वरुणः विद्वान् परिवस्त वस्ते सर्वान् शत्रून् स्वतेजसा आच्छादयेत्॥१३॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (अस्मिन्)=हमारे, (वरुणे)=वायु, (वा)=या, (सूर्य्ये)=सूर्य्य, (स्पर्शवन्तः)=स्पर्शवान् होते हैं, (सर्वे)=समस्त, (पदार्था)=पदार्थ, (नि) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (सेदिरे) सीदन्ति=स्थिर होते हैं, (एतौ)=ये दोनों, (निर्णिजम्) शुद्धम्=शुद्ध, (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मयम्=प्रकाशयुक्त,  (द्रापिम्) कवचं निद्रां वा=बाह्यस्वरूप या निद्रा को, (बिभ्रत्) धारयन्=धारण करते हुए, (एतान्)=इन, (सर्वान्)=सब, (पदार्थान्)=पदार्थों को, (सर्वतः)=सब ओर से व्याप्त होते हैं, (तथा)=ऐसे ही, (विद्यान्यायप्रकाशे)=विद्या और न्याय के प्रकाश में, (सर्वान्)=सब को, (स्पर्शवन्तः)=स्पर्श करने वाले, (पदार्थान्)= पदार्थों को,  (निषाद्य)=अच्छे प्रकार से स्थापित करके, (निर्णिजम्) शुद्धम्=शुद्ध, (द्रापिम्) कवचं निद्रां वा=तेज और निद्रा को, (ज्योतिर्मयम्)=प्रकाशयुक्त, (द्रापिम्) कवचं निद्रां वा=बल तेज और निद्रा को, में (बिभ्रत्+सन्) धारयन् सन्=धारण करते हुए, (वरुणः) विविधपाशैः शत्रूणां बन्धकः=शत्रुओं को विविध प्रकार के बन्धनों में बांधने वाले, (विद्वान्)=विद्वान्, (परि) सर्वतोभावे=सब प्रकार से, (वस्त) वस्ते आच्छादयति=ढाँप देते हैं, (सर्वान्)=समस्त, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (स्वतेजसा)=अपने तेज से, (आच्छादयेत्)=ढाँप देते हैं॥१३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे वायु बल का करने हारा होने से सब अग्नि आदि मूर्त और अमूर्त वस्तुओं को धारण करके आकाश में गमन और आगमन करता हुआ चलते हैं। जैसे सूर्यलोक प्रकाशरूप होने से रात्रि के अन्धकार का निवारण कर अपने तेज से प्रकाशित करता है, वैसे ही उत्तम शिक्षा के बल से सब मनुष्यों को धर्म धारण करके जाने और आने के कार्य करने चाहिएँ॥१३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे (अस्मिन्) हमारे (वरुणे) वायु (वा) या (सूर्य्ये) सूर्य्य (स्पर्शवन्तः) स्पर्शवान् होते हैं। (सर्वे) समस्त (पदार्था) पदार्थ (नि) अच्छे प्रकार से (सेदिरे) स्थिर होते हैं। (एतौ) ये दोनों (निर्णिजम्) शुद्ध (हिरण्ययम्) प्रकाशयुक्त  (द्रापिम्) बाह्यस्वरूप या निद्रा को (बिभ्रत्) धारण करते हुए (एतान्) इन (सर्वान्) सब (पदार्थान्) पदार्थों को (सर्वतः) सब ओर से (तथा) ऐसे ही (विद्यान्यायप्रकाशे) विद्या और न्याय के प्रकाश में (सर्वान्)=सब को (स्पर्शवन्तः) स्पर्श करने वाले (पदार्थान्) पदार्थों को  (निषाद्य) अच्छे प्रकार से स्थापित करके (निर्णिजम्)  शुद्ध (द्रापिम्) बाह्यस्वरूप या निद्रा को (ज्योतिर्मयम्) प्रकाशयुक्त रूप में (बिभ्रत्+सन्) धारण करते हुए, (वरुणः) शत्रुओं को विविध प्रकार के बन्धनों में बांधने वाले (विद्वान्) विद्वान् (परि) सब प्रकार से (वस्त) ढाँप देते हैं। (सर्वान्) समस्त (शत्रून्) शत्रुओं को (स्वतेजसा) अपने तेज से (आच्छादयेत्) आच्छादित कर देते हैं॥१३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (बिभ्रत्) धारयन् (द्रापिम्) कवचं निद्रां वा। अत्र 'द्रै स्वप्ने' अस्माद् इञ्वपादिभ्य इतीञ् (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मयम्। ऋत्व्यवास्त्व्य० (अष्टा०६.४.१७५) अनेनायं निपातितः 'ज्योतिर्वै हिरण्यम्' इति पूर्ववत्प्रमाणं विज्ञेयम्। (वरुणः) विविधपाशैः शत्रूणां बन्धकः (वस्त) वस्ते आच्छादयति। अत्र वर्त्तमाने लङडभावश्च। (निर्णिजम्) शुद्धम् (परि) सर्वतोभावे (स्पशः) स्पर्शवन्तः पदार्थाः (नि) नितराम् (सेदिरे) सीदन्ति। अत्र लडर्थे लिट्॥१३॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- यथाऽस्मिन् वरुणे सूर्य्ये वा स्पर्शवन्तः सर्वे पदार्था निषेदिरे एतौ निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत एतान् सर्वान् पदार्थान् सर्वतोऽभिव्याप्याच्छादयतस्तथा विद्यान्यायप्रकाशे सर्वान् स्पर्शवन्तः पदार्थान् निषाद्य निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत् सन् वरुणो विद्वान् परिवस्त वस्ते सर्वान् शत्रून् स्वतेजसाऽऽच्छादयेत्॥१३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वे मनुष्या यथा वायुर्बलकारित्वात् सर्वमग्न्यादिकं मूर्त्तामूर्तं वस्तु धृत्वाऽऽकाशे गमनागमने कुर्वन् गमयति। यथा सूर्य्यलोको प्रकाशस्वरूपत्वाद् रात्र्यन्धकारं निवार्य्य स्वतेजसा प्रकाशते, तथैव सुशिक्षाबलेन सर्वान् मनुष्यान् धृत्वा धर्मे गमनागमने कृत्वा कार्येरन्॥१३॥

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    विषय

    सुपथ

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में सुपथ से चलने का संकेत था , प्रस्तुत मन्त्र में उस सुपथ का संकेत करते हैं - (वरुणः) - वरुण का उपासक , द्वेष का निवारण करनेवाला पुरुष [यहाँ 'वरुण' शब्द वरुण के उपासक के लिए है । वरुण का उपासक भी 'वरुण' है] (हिरण्ययम्) - ज्योतिर्मय (द्रापिम्) - कवच को (बिभ्रद्) - धारण करता हुआ होता है । 'ज्ञान' ही वह ज्योतिर्मय कवच है । 'ब्रह्म वर्म ममान्तरम्' इस वेदवाक्य में ज्ञान को आन्तर कवच कहा है । यह वासनाओं के 

    आक्रमण से मनुष्य की रक्षा करता है , एवं ज्ञान - प्राप्ति सुपथ की पहली सीढ़ी है । 

    २. (वरुणः) - द्वेष का निवारण करनेवाला व्यक्ति (निर्णिजम्) - अति शुद्ध हृदय को (वस्ते) - धारण करता है । द्वेष ही तो मन की मैल है । इसे दूर करके यह शुद्ध मन को धारण करता है । यह 'मनःशुद्धि' सुपथ की दूसरी सीढ़ी है । 

    ३. (स्पशः) [हिरण्यस्पर्शिनो रश्मयः - सा०] ज्ञान - ज्योति का स्पर्श करनेवाली ज्ञानेन्द्रियों की रश्मियाँ (परिनिषेदिरे) - इसके चारों ओर निषण्ण होती हैं , अर्थात् यह इन्द्रियों को शुद्ध बनाकर उन्हें ज्ञान - प्राप्ति में लगाता है , एवं 'ज्ञानन्द्रियों का ज्ञान - प्राप्ति में लगे रहना' सुपथ की तीसरी सीढ़ी है । संक्षेप में 'बुद्धि , मन व इन्द्रियों' का शोधन , इन्हें असुरों का निवासस्थान न बनने देना ही 'सुपथ' है । इस सुपथ का आक्रमण करके ही हम दीर्घजीवी होंगे । 

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान हमारा दीप्तिमय कवच हो , ज्ञान द्वारा हम मन को निर्मल करें और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान - प्राप्ति के कार्य में व्यापृत रहें । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुष ।

    भावार्थ

    ( वरुणः ) सूर्य जिस प्रकार ( हिरण्यम् ) सुवर्ण के समान उज्ज्वल ज्योतिर्मय ( द्रापिम् ) बाह्य स्वरूप को ( बिभ्रद् ) धारण करता है और ( निर्णिजम् ) शुद्ध प्रकाश को ( वस्त ) वस्त्र के समान धारण करता है । और ( स्पशः ) प्रकाश की किरणें उसके ( परि ) चारों ओर ( निषेदिरे ) विराजती हैं उसी प्रकार राजा भी ( हिरण्यद्वापिं बिभ्रत् ) सुवर्ण के बन कवच को धारण करता हुआ और ( निर्णिजं ) सर्वदा शोधन, न्याय, विवेक करने वाले आसन पर विराजता है, या अतिशुद्ध वस्त्रों को धारण करता है ( स्पशः ) सत्यासत्य को देखनेवाले स्पश, उसके अधीन दूत प्रणिधि और विद्वान् पुरुष ( परि निषेदिरे ) उसके गिर्द विराजते हैं । इसी प्रकार परमेश्वर तेजोमयरूप को धारता और शुद्ध सत्य तत्व को ग्रहण करता है और ( स्पशः ) स्पर्श करनेवाले, या तेजस्वी सब सूर्यादि दिव्य पदार्थ उसी के आश्रय पर विराजते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (वरुणः-हिरण्यं द्रापिं विभ्रत्) वरुण परमात्मा सुनहरे चमकीले जगद्र प कवच को धारण करता हुआ सा (निर्णिजं वस्त) जिसके अन्दर अपने रूप को आच्छादित करता है "निर्णिग्रूपनाम" (निघ० ३।७) (स्पश: परिनिषेदिरे) “हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्" उसके स्पर्श करने वाले उपासक सर्वत्र समीपता से विराजमान होते हैं ॥१३॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसे वायू बलयुक्त असल्यामुळे अग्नी इत्यादी सर्व स्थूल व सूक्ष्म पदार्थांसह आकाशात गमन आगमन करीत असतो व जसे सूर्यही स्वतः प्रकाशरूप असल्यामुळे रात्रीला नष्ट करून आपल्या प्रकाशाने सर्वांना प्रकाशित करतो तसे विद्वान लोकांनीही विद्या व सुशिक्षणाच्या सामर्थ्याने सर्व माणसांना धारण करून धर्माने वागण्यास प्रवृत्त करून इतरांनाही तसे वागण्यास प्रवृत्त करावे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Varuna, self-refulgent lord of the universe, wearing a golden mantle (as the sun) shines pure and shines all (covering them with the golden light of His purity). All the tangible objects of the world abide in Him.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=Like, (asmin)=our, (varuṇe)=air, (vā)=or, (sūryye)=Sun, (sparśavantaḥ)=are touchy, (sarve)=all, (padārthā)=substances, (ni)=well, (sedire)=are stabled, (etau)=both of these, (nirṇijam)=pure, (hiraṇyayam)=luminuous, (drāpim)=to outer form or sleep, (bibhrat)=while holding, (etān)=these, (sarvān)=all, (padārthān)=to the substances, (sarvataḥ)=from all sides, (tathā)=just like that, (vidyānyāyaprakāśe)=in the light of wisdom and justice, (sarvān)=to all, (sparśavantaḥ)=are touchy, (padārthān)=to substances, (niṣādya)=well established, (nirṇijam)=pure, (drāpim)=to outer form or sleep, (jyotirmayam)=luminously, (bibhrat+san)=while holding (varuṇaḥ) śatruoṃ ko vividha prakāra ke bandhanoṃ meṃ bāṃdhane vāle (vidvān)=the one who binds the enemies in different types of bondages, (pari)=by all means (vasta)=cover, (sarvān)=all, (śatrūn)=to enemies, (svatejasā)=by their brilliancy, (ācchādayet)=cover.

    English Translation (K.K.V.)

    Like our air or Sun are touchy. All substances are well stabilized. These two, possessing the appearance of pure light or sleep, setting all things in the same way in the light of knowledge and justice from all sides, the things that touch everything, possessing a pure appearance or sleep in a luminous form, the wise who bind the enemies in various kinds of fetters cover them in every way. Cover all the enemies with their glory.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. For example, due to the loss of air force, everyone walks in the sky carrying tangible and intangible things like fire etc. and coming and going. Just as the Sun dispels the darkness of the night and illuminates with its brightness, in the same way, by the power of good education, all human beings should do the work of coming and going by adopting righteousness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) God! the most acceptable and the Best in whom all embodied beings and things abide, covers all from all sides, wearing the resplendent armour of knowledge. (2) In the case of the sun as Varuna, the meaning is the sun in whose light all substances that can be touched abide, wearing its golden amour or light, covers all objects with its splendor. (3) In the case of a hero the meaning will be - A hero who binds his enemies with various snares wearing a shining armour covers or overcomes un-righteous foes with his splendor. All substances abide in the light of his knowledge and justice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (द्रापिम् ) कवचं निद्रां वा अत्र दै-स्वप्ने अस्मादित्र वपादिभ्य इति इत् प्रत्ययः । = Armour or sleep of ignorance. ( हिरण्ययम् ) ज्योतिर्मयम् | ज्योतिर्वै हिरण्यम् (शतपथे ४.३.१.२१ )। = Full of light, shining.(वरुण:) विविधपाशै: शत्रूणां बन्धकः । = A hero who binds his enemies with snares. (वस्त) वस्ते आच्छादयति अत्र वर्तमाने लड् अडभावश्च ॥ = Eovers. (निर्णिजम्) शुद्धम् = Pure.(स्पश:) स्पर्शवन्तः पदार्थाः = Substances.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Shleshalankar or Paronomasia in this Mantra. Omniscient God being the Innermost Spirit of all, revealing the pure light, dispels the sleep or ignorance of the righteous persons. In the same way; the sun dispels the darkness of the night. As God upholds all by His Omnipresence, the sun also sustains all by its attractive power.

    Translator's Notes

    (वस्ते ) आच्छादयति It is derived from वस-आच्छादने अदा = Vas to cover. (निर्णिजम् ) शुद्धम् = Pure. It is derived from णिजिर शौचपोषणयोः = To wash, to purify. (स्पश:) स्पर्शवन्तः पदार्थाः = Substances that can be touched, it is derived from स्पश-बाधन स्पर्शनयोः = To destroy, to touch. ( वरुण:) विविधपारौ शत्रूणां बंधक: = Here the word वरुण: is derived from वृञ-आवरणे चुरा० = To cover or bind.

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