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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वेद॒ वात॑स्य वर्त॒निमु॒रोर्ऋ॒ष्वस्य॑ बृह॒तः। वेदा॒ ये अ॒ध्यास॑ते॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑ । वात॑स्य । व॒र्त॒निम् । उ॒रोः । ऋ॒ष्वस्य॑ । बृ॒ह॒तः । वेद॑ । ये । अ॒धि॒ऽआस॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेद वातस्य वर्तनिमुरोर्ऋष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेद। वातस्य। वर्तनिम्। उरोः। ऋष्वस्य। बृहतः। वेद। ये। अधिऽआसते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं किं जानातीत्युपदिश्यते

    अन्वयः

    यो मनुष्य ऋष्वस्योरोर्बृहतो वातस्य वर्त्तनिं वेद जानीयात्, येऽत्र पदार्था अध्यासते तेषां च वर्त्तनिं वेद, स खलु भूखगोलगुणविज्जायते॥९॥

    पदार्थः

    (वेद) जानाति (वातस्य) वायोः (वर्त्तनिम्) वर्त्तन्ते यस्मिंस्तं मार्गम् (उरोः) बहुगुणयुक्तस्य (ऋष्वस्य) सर्वत्रागमनशीलस्य। अत्र ‘ऋषी गतौ’ अस्माद् बाहुलकादौणादिको वन् प्रत्ययः (बृहतः) महतो महाबलविशिष्टस्य (वेद) जानाति (ये) पदार्थाः (अध्यासते) तिष्ठन्ति ते॥९॥

    भावार्थः

    यो मनुष्योऽग्न्यादीनां पदार्थानां मध्ये परिमाणतो गुणतश्च महान् सर्वाधारो वायुर्वर्त्तते तस्य कारणमुत्पत्तिं गमनागमनयोर्मार्गं ये तत्र स्थूलसूक्ष्माः पदार्थाः वर्त्तन्ते, तानपि यथार्थतया विदित्वैतेभ्य उपकारं गृहीत्वा ग्राहयित्वा कृतकृत्यो भवेत्, स इह गण्यो विद्वान् भवतीति वेद्यम्॥९॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर वह क्या-क्या जानता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो मनुष्य (ऋष्वस्य) सब जगह जाने-आने (उरोः) अत्यन्त गुणवान् (बृहतः) बड़े अत्यन्त बलयुक्त (वातस्य) वायु के (वर्त्तनिम्) मार्ग को (वेद) जानता है (ये) और जो पदार्थ इस में (अध्यासते) इस वायु के आधार से स्थित हैं, उनके भी (वर्त्तनिम्) मार्ग को (वेद) जाने, वह भूगोल वा खगोल के गुणों का जाननेवाला होता है॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों में परिमाण वा गुणों से बड़ा सब मूर्त्तिवाले पदार्थों का धारण करनेवाला वायु है, उसका कारण अर्थात् उत्पत्ति और जाने-आने के मार्ग और जो उसमें स्थूल वा सूक्ष्म पदार्थ ठहरे हैं, उनको भी यथार्थता से जान इनसे अनेक कार्य सिद्ध कर करा के सब प्रयोजनों को सिद्ध कर लेता है, वह विद्वानों में गणनीय विद्वान् होता है॥९॥

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    विषय

    फिर वह क्या-क्या जानता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

     यः मनुष्यः ऋष्वस्य उरोः बृहतः वातस्य वर्त्तनिं वेद(जानीयात्) ये अत्र पदार्थाः अध्यासते तेषां च वर्त्तनिं वेद स खलु भूखगोलगुणवित् जायते॥९॥

    पदार्थ

    (यः)=जो, (मनुष्यः)=मनुष्य, (उरोः) बहुगुणयुक्तस्य=अत्यन्त गुणवान्, (बृहतः) महतो महाबलविशिष्टस्य=बड़े अत्यन्त बलयुक्त के, (वातस्य) वायोः=वायु के, (वर्त्तनिम्) वर्त्तन्ते यस्मिंस्तं मार्गम्=जिस मार्ग के हैं, उसको, (वेद) जानीयात्= जानता है, (ये) पदार्थाः= जो पदार्थ, (अत्र)=यहाँ, (पदार्थाः)=पदार्थ, (अध्यासते) तिष्ठन्ति ते=वो स्थित हैं, (तेषाम्)=उनको, (च)=भी, (वर्त्तनिम्) वर्त्तन्ते यस्मिंस्तं मार्गम्=जिस मार्ग के हैं, उसको, (वेद) जानाति=जानता है, (सः)=वह, (खलु)=निश्चय से ही, (भूखगोलगुणवित्) भूगोल और खगोल के गुणों को जानकार (जायते)=हो जाता है ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों में परिमाण और गुणों से बड़ा सब सबका आधार वायु है,  उसका कारण, उत्पत्ति जाने और आने का मार्ग जो वहाँ स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ हैं। उनको भी यथार्थरूप से  जानकर कारण इनसे उपकार ग्रहण करके और  दूसरों को ग्रहण कराकर संतुष्ट हो जाता है। वह विद्वानों में गणनीय विद्वान् होता है॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (मनुष्यः) मनुष्य  (उरोः) अत्यन्त गुणवान् (बृहतः) अत्यन्त बलयुक्त (वातस्य) वायु के (वर्त्तनिम्) जिस मार्ग के हैं, उनको (वेद) जानता है। (ये) जो पदार्थ (अत्र) यहाँ (अध्यासते) स्थित हैं, वे (तेषाम्) उनको (च)  भी (वर्त्तनिम्) जिस मार्ग के हैं, उनको (वेद) जानता है। (सः) वह (खलु) निश्चय से ही (भूखगोलगुणवित्) भूगोल और खगोल के गुणों का जानकार (जायते) हो जाता है ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वेद) जानाति (वातस्य) वायोः (वर्त्तनिम्) वर्त्तन्ते यस्मिंस्तं मार्गम् (उरोः) बहुगुणयुक्तस्य (ऋष्वस्य) सर्वत्रागमनशीलस्य। अत्र 'ऋषी गतौ' अस्माद् बाहुलकादौणादिको वन् प्रत्ययः (बृहतः) महतो महाबलविशिष्टस्य (वेद) जानाति (ये) पदार्थाः (अध्यासते) तिष्ठन्ति ते॥९॥
    विषय- पुनः स किं किं जानातीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- यो मनुष्य ऋष्वस्योरोर्बृहतो वातस्य वर्त्तनिं वेद जानीयात्, येऽत्र पदार्था अध्यासते तेषां च वर्त्तनिं वेद, स खलु भूखगोलगुणविज्जायते॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो मनुष्योऽग्न्यादीनां पदार्थानां मध्ये परिमाणतो गुणतश्च महान् सर्वाधारो वायुर्वर्त्तते तस्य कारणमुत्पत्तिं गमनागमनयोर्मार्गं ये तत्र स्थूलसूक्ष्माः पदार्थाः वर्त्तन्ते, तानपि यथार्थतया विदित्वैतेभ्य उपकारं गृहीत्वा ग्राहयित्वा कृतकृत्यो भवेत्, स इह गण्यो विद्वान् भवतीति वेद्यम्॥९॥

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    विषय

    अलंघनीय

    पदार्थ

    १. वह वरुण (उरोः) - अत्यन्त विस्तीर्ण (ऋष्वस्य) - महान् (बृहतः) - सब वृद्धियों के कारणभूत व गुणों के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट (वातस्य) - वायु के (वर्तनिम्) - मार्ग को भी (वेद) - जानता है । वायु अपनी तीव्र - से - तीव्र गति से चलता हुआ उस प्रभु से दूर नहीं भाग सकता । 

    २. (ये) - जो (अधि आसते) - वेगादि गुणों के कारण वायु से भी अधिष्ठित हैं , अर्थात् वायु को भी अतिक्रान्त कर गये हैं , उन्हें भी वे प्रभु (वेद) - जानते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - तीव्र-से-तीव्र गति से - वायुवेग से अथवा वायु से भी अधिक वेग से जाते हुए पदार्थ प्रभु को लाँघ नहीं सकते । 

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    परमेश्वर ( उरोः ) बड़े ( बृहतः ) बलवान् ( ऋष्वस्य ) सर्वत्र गतिशील, दर्शनीय ( वातस्य ) वायु के ( वर्त्तनिम् ) मार्ग को ( वेद ) जानता है, और (ये) जो (अधि आसते ) सूर्यादि नाना पदार्थों पर अधिष्ठाता, शासक रूप से विराजते हैं उनको भी जानता है । विद्वान् वायु के मार्ग और सूर्यादि शासक पदार्थों को जाने । राजा ( वातस्य ) वायु के समान प्रबल सेनापति या शत्रु राजा के मार्गों और शासकों के चालों को भी जाने ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (उरो:-ऋष्वस्य बृहतः-वातस्य वर्तनिं वेद) वरुण परमात्मा विस्तृत गतिशील महान् व्योमचारी वायु के मार्ग को जानता है स्वाधीन रखता है (ये-अध्यास ते वेद) जो गगन चारी वायु के आधीन होकर ग्रह नक्षत्र रहते हैं उन्हें भी वह जानता है अपने अधिकार में रखता है ऐसा वह वरुण परमात्मा है जानने वाला ज्योतिर्वित् और राष्ट्रपति वरने योग्य है ॥९॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस, अग्नी इत्यादी पदार्थांमध्ये परिमाण व गुणांनी मोठा, सर्व मूर्तिमान पदार्थांना धारण करणारा वायू असून त्याचे कारण अर्थात उत्पत्ती व जाण्या-येण्याचा मार्ग व त्यात स्थूल किंवा सूक्ष्म पदार्थ स्थित आहेत त्यांना यथार्थतेने जाणून त्यांच्याकडून अनेक कार्य सिद्ध करून सर्व प्रयोजन सिद्ध करतो, तो विद्वानांमध्ये गणमान्य असतो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    One who knows the course of the winds, vast, abundant and stormy, and knows those that are sustained by it, and also knows those that control it, is a specialist of the earth and the skies.

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    Subject of the mantra

    Then, what he knows, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=That, (manuṣyaḥ)=man, (uroḥ)=being extremely virtuous, (bṛhataḥ)=and extremely powerful, (vātasya)=of air, (varttanim) =the way they are, them, (veda)=knows, (ye)=those substances, (atra)=here, (adhyāsate)=are located, they, (teṣām)=to them, (ca)=as well, (varttanim)=the way they are, to them, (veda)=knows, (saḥ)=he, (khalu)=certainly, (bhūkhagolaguṇavit)=connoisseur of geography and astronomy, (jāyate)=becomes.

    English Translation (K.K.V.)

    That man, being extremely virtuous and powerful, of which way of the air they are, he knows them. Those substances are located here, they know the way they are, as well. He certainly becomes connoisseur of geography and astronomy.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The man who is greater than the quantity and qualities of fire etc., the basis of all is the air, its cause, the way of origin, going and coming which are gross and subtle matter. Knowing them also in reality, the reason becomes satisfied by receiving help from them and making others accept them. He is a countable among scholars.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What else does he know is taught in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The person who knows the path of the wind, vast very useful and endowed with many attributes going and coming everywhere, excellent and mighty and who knows all the articles that are there, becomes certainly the knower of the. Properties of Geography.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वर्तनिम्) वर्तन्ते यस्मिन् तं मार्गम् = Way or path.(उरो:) बहुगुणयुक्तस्य (ऋष्वस्य) सर्वत्र गमनशीलस्य अत्र ऋषी-गतौ इत्यस्माद् बाहुलकात् औणादिको वन् प्रत्ययः । = Going and coming or moving everywhere. (बृहत:) महतः, महाबलविशिष्टस्य । = Great, excellent and mighty.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The person who knows that the wind is greater in measurement and properties than fire and other objects and is the support of all, knows its origin, the path of its going and coming and all the gross and subtle substances that are on the earth or in the air and after knowing them thoroughly, benefits from them and induces others to do the same, makes his life successful and becomes a distinguished scientist. This fact should be known to all.

    Translator's Notes

    उरुरिति बहुनाम ( निघ० ३.१ ) ऋऋष्व इति महन्नाम ( निघ० ३.३ ) Rishi Dayananda has given another derivative meaning of the word ऋष्व for, there is another adjective of वातस्य meaning great and mighty i. c. बृहत:

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