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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 18
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    दर्शं॒ नु वि॒श्वद॑र्शतं॒ दर्शं॒ रथ॒मधि॒ क्षमि॑। ए॒ता जु॑षत मे॒ गिरः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दर्श॑म् । नु । वि॒श्वऽद॑र्शतम् । दर्श॑म् । रथ॑म् । अधि॑ । क्षमि॑ । ए॒ताः । जु॒ष॒त॒ । मे॒ । गिरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दर्शम्। नु। विश्वऽदर्शतम्। दर्शम्। रथम्। अधि। क्षमि। एताः। जुषत। मे। गिरः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते किं किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयमधि क्षमि स्थित्वा विश्वदर्शतं वरुणं परेशं दर्शं रथं नु दर्शं मे ममैता गिरो वाणीर्जुषत नित्यं सेवध्वम्॥१८॥

    पदार्थः

    (दर्शम्) पुनः पुनर्द्रष्टुम् (नु) अनुपृष्टे (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्विद्वद्भिर्द्रष्टव्यं जगदीश्वरम् (दर्शम्) पुनः पुनः सम्प्रेक्षितुम् (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (अधि) उपरिभावे (क्षमि) क्षाम्यन्ति सहन्ते जना यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् स्थित्वा। अत्र कृतो बहुलम् इत्यधिकरणे क्विप्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। (अष्टा०६.४.१५) इति दीर्घो न भवति (एताः) वेदविद्यासुशिक्षासंस्कृताः (जुषत) सेवध्वम् (मे) मम (गिरः) वाणीः॥१८॥

    भावार्थः

    यस्मात् क्षमादिगुणसहितैर्मनुष्यैः प्रश्नोत्तरव्यवहारेणानुष्ठानेन विनेश्वरं शिल्पविद्यासिद्धानि यानानि च वेदितुं न शक्यानि, तत्र ये गुणास्तेऽपि चास्मादेतेषां विज्ञानाय सर्वदा प्रयतितव्यम्॥१८॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर भी वे क्या-क्या करें, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (अधिक्षमि) जिन व्यवहारों में उत्तम और निकृष्ट बातों का सहना होता है, उनमें ठहर कर (विश्वदर्शतम्) जो कि विद्वानों की ज्ञानदृष्टि से देखने के योग्य परमेश्वर है उसको (दर्शम्) बारंबार देखने (रथम्) विमान आदि यानों को (नु) भी (दर्शम्) पुनः-पुनः देख के सिद्ध करने के लिये (मे) मेरी (गिरः) वाणियों को (जुषत) सदा सेवन करो॥१८॥

    भावार्थ

    जिससे क्षमा आदि गुणों से युक्त मनुष्यों को यह जानना योग्य है कि प्रश्न और उत्तर के व्यवहार के किये विना परमेश्वर को जानने और शिल्पविद्या सिद्ध विमानादि रथों को कभी बनाने को शक्य नहीं और जो उनमें गुण हैं, वे भी इससे इनके विज्ञान होने के लिये सदैव प्रयत्न करना चाहिये॥१८॥

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    विषय

    फिर भी वे क्या-क्या करें, इस विषय का प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयम् अधि क्षमि स्थित्वा विश्वदर्शतं वरुणं परेशं दर्शं रथं नु दर्शं मे मम एता गिरः वाणीः जुषत नित्यं सेवध्वम्॥१८॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)=मनुष्यो ! (यूयम्)=तुम, (अधिक्षमि) क्षाम्यन्ति सहन्ते जना यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् स्थित्वा= जिन व्यवहारों में उत्तम और निकृष्ट बातों को क्षमा करना और सहना होता है, उनमें ठहर कर, (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्विद्वद्भिर्द्रष्टव्यं जगदीश्वरम्=जो कि विद्वानों की ज्ञानदृष्टि से देखने के योग्य परमेश्वर है, उसको, (दर्शम्) पुनः पुनर्द्रष्टुम्= बारंबार देखने, (रथम्) रमणीयं विमानादियानम्= रमणीय विमान आदि यानों को, (नु) अनुपृष्टे= फिर, (दर्शम्) पुनः पुनः सम्प्रेक्षितुम्= पुनः-पुनः विवेचन  करने के लिये, (एताः) वेदविद्यासुशिक्षासंस्कृताः=इन वेदविद्या और  सुशिक्षा से संस्कृत, (गिरः) वाणीः=वाणियों का, (नित्यम्)=सदा, (जुषत) सेवध्वम्= सेवन करो ॥१८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जिससे क्षमा आदि गुणों से युक्त मनुष्यों को यह जानना योग्य है कि प्रश्न और उत्तर के व्यवहार के किये विना परमेश्वर को जानने और शिल्पविद्या  की सिद्धि  से विमानादि रथों को जाना नहीं  जा सकता है। वहाँ जो गुण हैं, वे भी इससे इनके विशेषरूप से जानने के लिए सदैव प्रयत्न करना चाहिये॥१८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यो ! (यूयम्) तुम (अधिक्षमि) जिन व्यवहारों में उत्तम और निकृष्ट बातों को जो क्षमा करना और सहना होता है, उनमें ठहर कर, (विश्वदर्शतम्)  जो विद्वानों की ज्ञानदृष्टि से देखने के योग्य परमेश्वर है उसको (दर्शम्) बारंबार देखने और (रथम्) रमणीय विमान आदि यानों को (नु) फिर (दर्शम्) पुनः-पुनः विवेचन  करने के लिये (एताः) इन वेदविद्या और  सुशिक्षा से संस्कृत (गिरः) वाणियों का (नित्यम्) सदा (जुषत)  सेवन करो ॥१८॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (दर्शम्) पुनः पुनर्द्रष्टुम् (नु) अनुपृष्टे (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्विद्वद्भिर्द्रष्टव्यं जगदीश्वरम् (दर्शम्) पुनः पुनः सम्प्रेक्षितुम् (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (अधि) उपरिभावे (क्षमि) क्षाम्यन्ति सहन्ते जना यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् स्थित्वा। अत्र कृतो बहुलम् इत्यधिकरणे क्विप्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। (अष्टा०६.४.१५) इति दीर्घो न भवति (एताः) वेदविद्यासुशिक्षासंस्कृताः (जुषत) सेवध्वम् (मे) मम (गिरः) वाणीः॥१८॥
    विषयः- पुनस्ते किं किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयमधि क्षमि स्थित्वा विश्वदर्शतं वरुणं परेशं दर्शं रथं नु दर्शं मे ममैता गिरो वाणीर्जुषत नित्यं सेवध्वम्॥१८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यस्मात् क्षमादिगुणसहितैर्मनुष्यैः प्रश्नोत्तरव्यवहारेणानुष्ठानेन विनेश्वरं शिल्पविद्यासिद्धानि यानानि च वेदितुं न शक्यानि, तत्र ये गुणास्तेऽपि चास्मादेतेषां विज्ञानाय सर्वदा प्रयतितव्यम्॥१८॥

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    विषय

    विश्वदर्शत का दर्शन

    पदार्थ

    १. वरुण का भक्त कहता है कि (नु) - निश्चय से अब मैंने (विश्वदर्शतम्) - सबसे देखने योग्य उस वरुण को (दर्शम्) - देखा है । 

    २. मैंने इस जीवन - यात्रा के रथम् वाहनभूत उस प्रभु को (अधिक्षमि) - इस पार्थिव शरीर में ही (दर्शम्) - देखा है । सब चित्तवृत्तियों को विषयों से निवृत्त करके ज्योंहि मैं अन्तर्मुख यात्रा करनेवाला बना त्यों ही (दर्शम्) - उस प्रभु को मैंने देखा है । 

    ३. इस प्रभु ने (मे) - मेरी (एताः) - इन (गिरः) - स्तुतिवाणियों को (जुषत) - प्रीतिपूर्वक ग्रहण किया है , अर्थात् मेरी ये वाणियाँ प्रभु को प्रीणित करनेवाली हुई हैं । 

    ४. वे प्रभु विश्वदर्शत हैं , सबसे देखने योग्य हैं अथवा सम्पूर्ण विश्व में प्रभु की महिमा दिखती है । वे प्रभु ही विश्वरूप हैं । 

    ५. प्रभु का दर्शन शरीर में , हृदय में होता है । हृदय वह स्थान है जहाँ कि आत्मा व परमात्मा दोनों स्थित हैं । उस प्रभु का दर्शन इस भक्त को स्तुति के लिए प्रेरित करता है । यह भक्त स्तुतिवाणियों का उच्चारण करता है । उस प्रभु का दर्शन इस भक्त को स्तुति के लिए प्रेरित करता है । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - उस विश्वदर्शत प्रभु का मैं हृदय में दर्शन करूं और उसके लिए स्तुतिवाणियों का उच्चारण करता हुआ उसे आराधित करूँ । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुष ।

    भावार्थ

    ( अधि क्षमि ) इस पृथ्वी पर ( विश्वादर्शतम् ) सबके दर्शनीय (रथम्) रथ पर चढ़े महारथी राजा के समान या सूर्य के समान तेजस्वी ( रथम् ) परम् रसस्वरूप, आनन्दमय परमेश्वर को ( दर्शं दर्शं ) पुनः पुनः दर्शन करने के लिए ( मे ) मेरी ( एताः ) इन ( गिरः ) वेदवाणियों को (जुषत) सेवन करो । इनका श्रवण, मनन और अभ्यास करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (विश्वदर्शतं नु दर्शम्) सब के दर्शन करने योग्य वरुण परमात्मा को हां कभी मोक्ष में मैं देख चुका हूं (क्षमि रथम् अधि दर्शम्) क्षमा-पृथिवी पर भी शरीर-रथ को अधिकृत करके उपासनाद्वारा उसे देख चुका हूँ "दर्शम्, बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि” [अष्टा० ६।४।७५।] अडभावो लुङि" (मे-एताः-गिरः-जुषत) मेरी इन स्तुतियों को वरुण परमात्मा ने सेवक कर लिया अतः मैंने उसका दर्शन कर लिया है ॥१८॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    क्षमा इत्यादी गुणांनी युक्त माणसांनी हे जाणावे की, प्रश्न व उत्तराचा व्यवहार केल्याशिवाय परमेश्वराला जाणणे व शिल्पविद्या सिद्ध विमान इत्यादी रथांना तयार करणे कधी शक्य होणार नाही. ज्यांच्यात हे गुण आहेत, त्यांनी हे ज्ञान मिळविण्यासाठी सदैव प्रयत्न केले पाहिजेत. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For a vision of the Lord omniscient of the universal eye who is also an object of world vision, and for a model of the chariot over earth, air and sea, listen carefully to these words of mine in a mood of patience and forbearance.

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    Subject of the mantra

    Even then, what should they do, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=men, (yūyam)=all of you, (adhikṣami) =conducts in which those good and bad things are to be forgiven and tolerated, staying in them, (viśvadarśatam) =One who is able to see through the vision of knowledge of the scholars, to that, (darśam)=viewing frequently, [aura]=and, (ratham)=to beautiful aircrafts etc. (nu)=then, (darśam)=to investigate again and again, (etāḥ)=cultured by the knowledge of Vedas and good education, (giraḥ)=of speeches (nityam)=always (juṣata)=must use.

    English Translation (K.K.V.)

    O men! Conducts in which those good and bad things are to be forgiven and tolerated, all of you, staying in them. One who is able to see through the vision of knowledge of the scholars, viewing that frequently and then in order to investigate again and again beautiful aircrafts etc. and must use speeches cultured by the knowledge of Vedas and good education.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Due to which it is worthy to know to the human beings with the virtues of forgiveness etc. that without the practice of question and answer, knowing the Supreme God and by the accomplishment of the special knowledge of manual skills, the aircrafts et cetera vehicles cannot be known. The qualities which are there, one should always try to know them specifically from it.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What also should they (the teachers and the taught) do is told in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ye men, being established in the conduct full of forgiveness and endurance, you should lovingly listen to these my words which are refined on account of the noble Vedic teaching, in order to see God who is worthy of being realized by all wise men and also to visualize charming aero planes and other suitable vehicles for your happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Because it is not possible to know God and the nature of the vehicles manufactured with the help of the arts and sciences without personal contact in the form of questions and answers with the learned persons of forgiving sweet nature, therefore men should always acquire such knowledge with the assistance of the wise.

    Translator's Notes

    (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्विद्भिः द्रष्टव्यं जगदीश्वरम् | = To God who must be seen ( realized) by all wise men. (दर्शम्) पुनः पुनद्रष्टुम् | = To see or realize again and again. (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् । = Charming vehicles like the aero plane etc. ( क्षमि) क्षाम्यन्ति सहन्ते जना यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् स्थित्वा । अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप् । वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यनुनासिकस्य क्विन् झलोरिति दीर्घो न भवति ॥ दर्शतः-दृशेः भृम दृशियजिपर्वि पयमितमिनमि हर्य्यिभ्योऽतच् (उणा० ३.११० ) इति अतच् प्रत्ययः । = Worth seeing. (रथ:) रहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद् विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा (रमु-क्रीडायाम् इति धातोः) रणतेर्वा रसतेर्वा (निरुक्ते ९.११ ) ।। = Charming or beautiful vehicle. (क्षमि ) Rishi Dayananda's interpretation given above is based upon the root meaning of क्षमूष-सहने to endure or forgive. Other commentators have generally interpreted it as 'on earth' depending on क्षमेति पृथिवी नामसु ( निघ० १.१ ) But they have to change क्षमि into क्षमायाम् as Sayanacharya, Shri Kapali Shastri and others have done. क्षमि क्षमायाम् तोऽभाव: छान्स इति श्री कपालि शास्त्रिण:) Though Shri Kapali Shastri explains all these Mantras spiritually, Sayanacharya, Wilson and Griffith think it to mean that the chariot of Varuna on earth and in the sky is seen by the seer which is a very erroneous notion, as the Vedic conception of God is of an Omnipresent, Formless, Omnipotent and Omniscient Supreme Being which Sayanacharya and Western scholars have not unfortunately been able to grasp. Hence their translations like. "I have seen him (Varuna) whose appearance is graceful to all, I have beheld his chariot upon earth, he has accepted these my praises." (Wilson). Or "Now saw I him (Varuna) whom all may see, I saw his car above the earth. He hath accepted these my songs.' (Griffith) are not reliable being against the very spirit of the fundamental Vedic teachings about God. What a great solemnity and significance is there in Rishi Dayananda's above interpretation showing the harmony between the spiritual and secular aspirations.

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