ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
मा नो॑ व॒धाय॑ ह॒त्नवे॑ जिहीळा॒नस्य॑ रीरधः। मा हृ॑णा॒नस्य॑ म॒न्यवे॑॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॑ । व॒धाय॑ । ह॒त्नवे॑ । जि॒ही॒ळा॒नस्य॑ । री॒र॒धः॒ । मा । हृ॒णा॒नस्य॑ म॒न्यवे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। वधाय। हत्नवे। जिहीळानस्य। रीरधः। मा। हृणानस्य मन्यवे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स एवार्थ उपदिश्यते॥
अन्वयः
हे वरुण जगदीश्वर ! त्वं जिहीडानस्य हत्नवे वधाय चास्मान्कदाचिन्मा रीरधो मा संराधयैवं हृणानस्यास्माकं समीपे लज्जितस्योपरि मन्यवे मा रीरधः॥२॥
पदार्थः
(मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (वधाय) (हत्नवे) हननकरणाय। अत्र कृहनिभ्यां क्त्नुः। (उणा०३.२९) अनेन हनधातोः क्त्नुः प्रत्ययः। (जिहीळानस्य) अज्ञानादस्माकमनादरं कृतवतो जनस्य। अत्र पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्। इत्यकारस्येकारः। (रीरधः) संराधयः। अत्र ‘रध’ हिंसासंराध्योरस्माण्णिजन्ताल्लोडर्थे लुङ्। (मा) निषेधे (हृणानस्य) लज्जितस्योपरि (मन्यवे) क्रोधाय। अत्र यजिमनि० इति युच् प्रत्ययः॥२॥
भावार्थः
ईश्वर उपदिशति हे मनुष्या ! यूयं बलबुद्धिभिरज्ञानादपराधे कृते हननाय मा प्रवर्त्तध्वं कश्चिदपराधं कृत्वा लज्जां कुर्यात्तस्योपरि क्रोधं मा निपातयतेति॥२॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में उक्त अर्थ ही का प्रकाश किया है॥
पदार्थ
हे वरुण जगदीश्वर ! आप जो (जिहीळानस्य) अज्ञान से हमारा अनादर करे, उसके (हत्नवे) मारने के लिये (नः) हम लोगों को कभी (मा रीरधः) प्रेरित और इसी प्रकार (हृणानस्य) जो कि हमारे सामने लज्जित हो रहा है, उस पर (मन्यवे) क्रोध करने को हम लोगों को (मा रीरधः) कभी मत प्रवृत्त कीजिये॥२॥
भावार्थ
ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! जो अल्पबुद्धि अज्ञानीजन अपनी अज्ञानता से तुम्हारा अपराध करें, तुम उसको दण्ड ही देने को मत प्रवृत्त और वैसे ही जो अपराध करके लज्जित हो अर्थात् तुम से क्षमा करवावे तो उस पर क्रोध मत छोड़ो, किन्तु उसका अपराध सहो और उसको यथावत् दण्ड भी दो॥२॥
विषय
फिर भी इस मन्त्र में उक्त अर्थ ही का प्रकाश किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे वरुण (जगदीश्वर) ! त्वं जिहीडानस्य हत्नवे वधाय च अस्मान् कदाचित् मा रीरधः(मा संराधय) एवं हृणानस्य(अस्माकं समीपे लज्जितस्य) उपरि मन्यवे मा रीरधः॥२॥
पदार्थ
हे (वरुण)=श्रेष्ठ जगदीश्वर ! (त्वम्)=आप, (जिहीळानस्य) अज्ञानादस्माकमनादरं कृतवतो जनस्य=अज्ञान से हमारा अनादर करनेवाले को, (वधाय) हत्नवे-हननकरणाय=मारने के लिये, (अस्मान्)=हमें, (कदाचित्)=कभी, (मा) निषेधार्थे=नहीं, (रीरधः)=मा संराधय=प्रवृत्त न कीजिये, (एवम्)=ऐसे ही, (हृणानस्य) लज्जितस्योपरि=जो कि हमारे सामने लज्जित हो रहा है, उस पर, (मन्यवे) क्रोधाय=क्रोध करने को हम लोगों को, (मा) निषेधार्थे=नहीं, (रीरधः) संराधयः= प्रवृत्त कीजिये॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! जो अल्पबुद्धि अज्ञानीजन अपनी अज्ञानता से तुम्हारा अपराध करें, तुम उसको दण्ड ही देने को मत प्रवृत्त और वैसे ही जो अपराध करके लज्जित हो अर्थात् तुम से क्षमा करवावे तो उस पर क्रोध मत करो, किन्तु उसका अपराध सहो और उसको यथावत् दण्ड भी दो॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (वरुण) श्रेष्ठ जगदीश्वर! (जिहीळानस्य) अज्ञान से हमारा अनादर करनेवाले को (वधाय) मारने के लिये (त्वम्) आप (अस्मान्) हमें (कदाचित्) कभी (रीरधः) प्रवृत्त (मा) मत कीजिये और (एवम्) ऐसे ही (हृणानस्य) जो हमारे सामने लज्जित हो रहा है, उस पर (मन्यवे) क्रोध करने को हम लोगों को (रीरधः) प्रवृत्त (मा) न कीजिये॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (वधाय) (हत्नवे) हननकरणाय। अत्र कृहनिभ्यां क्त्नुः। (उणा०३.२९) अनेन हनधातोः क्त्नुः प्रत्ययः। (जिहीळानस्य) अज्ञानादस्माकमनादरं कृतवतो जनस्य। अत्र पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्। इत्यकारस्येकारः। (रीरधः) संराधयः। अत्र 'रध' हिंसासंराध्योरस्माण्णिजन्ताल्लोडर्थे लुङ्। (मा) निषेधे (हृणानस्य) लज्जितस्योपरि (मन्यवे) क्रोधाय। अत्र यजिमनि० इति युच् प्रत्ययः॥२॥
विषयः- पुनः स एवार्थ उपदिश्यते॥
अन्वयः- हे वरुण जगदीश्वर ! त्वं जिहीडानस्य हत्नवे वधाय चास्मान्कदाचिन्मा रीरधो मा संराधयैवं हृणानस्यास्माकं समीपे लज्जितस्योपरि मन्यवे मा रीरधः॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वर उपदिशति हे मनुष्या ! यूयं बलबुद्धिभिरज्ञानादपराधे कृते हननाय मा प्रवर्त्तध्वं कश्चिदपराधं कृत्वा लज्जां कुर्यात्तस्योपरि क्रोधं मा निपातयतेति॥२॥
विषय
न घृणा न क्रोध
पदार्थ
१. हे वरुण! (नः) हमें (जिहीळानस्य) - घृणा करनेवाले के (वधाय) - वध के लिए अथवा (हत्नवे) - मारपीट के लिए (मा रीरधः) - मत सिद्ध कीजिए और (हृणानस्य) - क्रोध करनेवाले के (मन्यवे) - क्रोध के लिए भी (नः) - हमें (मा रीरधः) - मत सिद्ध कीजिए , अर्थात् घृणा करनेवाले लोग औरों के वध व घातपात में लगे रहते हैं । हम उनकी भाँति घृणा से परिपूर्ण हृदयवाले होकर औरों का वध व घातपात न करते रहें और न ही क्रोधी बनकर सदा औरों पर क्रोध बरसाते रहें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम घृणा व क्रोध से ऊपर उठें ।
विषय
वरुण, परमेश्वर, और राजा, के प्रति भक्तों और प्रजाओं की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे वरुण ! राजन् ! हे परमेश्वर ! ( जिहीळानस्य ) अज्ञान से अनादर करने वाले पुरुष के ( वधाय ) वध करने और ( हत्नवे ) किसी पर आघात पहुंचाने के लिये ( नः ) हमें ( मा रीरधः ) मत प्रेरित कर। और इसी प्रकार ( मन्यवे ) क्रोध के निमित्त ( हृणानस्य ) स्वयं लज्जा अनुभव करने वाले को दण्ड देने के लिये भी मत उकसा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
हाँ यह प्रार्थना है-
मन्त्रार्थ
(जिहीडानस्य वधाय हत्तवे नः-मा रीरधः) अनादर करने वाले के वधार्थं घातार्थ 'कृहनिभ्यां क्त्नुः" (उणा० ३।२९) भाव में क्त्नु "हत्तवे हननकरणाय" [दयानन्दः] हमें मत संसिद्ध करो- तैयार करो- प्रेरित करो (हुणानस्य मन्यवे मा) हमारे प्रति अपराध पर लज्जित होते हुए पर क्रोध के लिये हमें मत प्रेरित करो । मनुष्य में यह त्रुटि है कि अपने अनादर पर अन्यों को मारने आघात पहुँचाने पर तैयार हो जाता है परन्तु श्रनादर कोई गहन पाप या अपराध नहीं विद्वान् जन तो अनादर को अमृत मानते हैं "सम्मानाद ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव | | अमृतस्येन चाकांक्षेदवमानस्य सर्वदा ॥" [मनु० २।१२] फिर उसके वध करनेघात करने का विचार तुच्छ है- इस प्रकार पाप या अपराध पर लज्जित होने वाले पश्चात्ताप करने वाले पर क्रोध करना भी अच्छा नहीं है ॥२॥
टिप्पणी
यह ठीक है अज्ञानकृत पापों के कारण हम पर करुणा करना और जानबूझ कर पापकर्मों के कारण हमें दण्ड देना तेरा अधिकार है साथ ही किसी के द्वारा किये गये अनादर पर वध की भावना तथा स्वकृत पाप-अपराध पर लज्जित हुए के ऊपर क्रोध करना हमारा काम नहीं है हम इन सब दोषों से बचें इन्हें करने के लिये मन को हम अवसर न दें अपितु हम अपने मन को-
विशेष
ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर उपदेश करतो की हे माणसांनो! जे अल्पबुद्धीचे अज्ञानी जन त्यांच्या अज्ञानतेमुळे तुमचा अपराध करतील त्यांना तुम्ही दंड देण्यास प्रवृत्त होऊ नका. जे अपराध करून लज्जित होतील अर्थात तुमच्याकडून क्षमा करून घेतील, त्यांच्यावर क्रोधित होऊ नका. त्यांचा अपराध सहन करून यथायोग्य दंडही द्या. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Lord of compassion, let us not feel excited to take up a deadly weapon against the person who offends us and excites our passion for revenge, and save us from the wrath against the person who feels ashamed of his action against us.
Subject of the mantra
Even then, aforesaid subject has been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (varuṇa)=supreme God, (jihīḻānasya)=to those who disrespected us out of ignorance, (vadhāya)=to kill, (tvam)=you, (asmān)=to us, (kadācit)=ever, (rīradhaḥ) =influence, (mā)=don’t, [aura]=and, (evam)=in the same way, (hṛṇānasya)=which is being put to shame in front of us, [usa para]=on that, (manyave)=to be angry, [hama logoɱ ko]=to us, (rīradhaḥ) =influence, (mā) =don’t.
English Translation (K.K.V.)
O Supreme God! Do not force us to kill the one, who disrespected us out of ignorance and in the same way that which is being put to shame in front of us. Let us not be tempted to be angry at him.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
God preaches- “O men! Don't be inclined to punish the ignorant, who commits your crime with your ignorance, and the one who is ashamed of committing the same crime, that is, if you ask him to forgive you, then don't be angry with him, but bear his crime and punish him as it is.”
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O most Acceptable God, do not allow us to kill the person who insults us through ignorance and never impel us to show wrath to a person who is ashamed of the mistake committed by him in our presence.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(हत्नवे) हननकरणाय अत्र कृहनिभ्यां तनुः ॥ ( उणादि ३.२९ ) अनेन हन् धातोः क्त्नुः प्रत्ययः । = for killing ( जिहीळानस्य ) अज्ञानादस्माकमनादरं कृतवतः जनस्य अत्र पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् इति अकारस्येकारः। = Of the person insulting us through ignorance. (रीरध:) संराधय । अत्र रघ-हिंसासराध्योः इत्यस्मात् णिजन्तात् लोडर्थे लङ् (हृणानस्य ) लज्जितस्य उपरि । = Of the person feeling ashamed.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God commands. Omen, do not indulge in putting an end to the life of a person for committing a fault through ignorance and do not be angry with a man who after committing a mistake, is, ashamed of it.
Translator's Notes
हृणानस्य is from ही-लज्जायाम् To be as ashamed of जिहीडानस्य-हेडृ-अनादरे = To disregard or insult.
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