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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उदु॒ त्ये सू॒नवो॒ गिरः॒ काष्ठा॒ अज्मे॑ष्वत्नत । वा॒श्रा अ॑भि॒ज्ञु यात॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊँ॒ इति॑ । त्ये । सू॒नवः॑ । गिरः॑ । काष्ठाः॑ । अज्मे॑षु । अ॒त्न॒त॒ । वा॒श्राः । अ॒भि॒ऽज्ञु । यात॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा अज्मेष्वत्नत । वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ऊँ इति । त्ये । सूनवः । गिरः । काष्ठाः । अज्मेषु । अत्नत । वाश्राः । अभिज्ञु । यातवे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (उत्) उत्कृष्टार्थे (उ) वितर्के (त्ये) परोक्षाः (सूनवः) ये प्राणिगर्भान् विमोचयन्ति। (गिरः) वाचः (काष्ठाः) दिशः। काष्ठा इति दिङ्नामसु पठितम्। निघं० १।६। (अज्मेषु) गमनाऽधिकरणेषु मार्गेषु (अत्नत) तन्वते। अत्र लडर्थे लुङ्। बहुलं छन्दसि इति विकरणाभावः। तनिपत्योश्छन्दसि। अ० ६।४।९९। अनेनोपधालोपः। (वाश्राः) यथा शब्दायमाना गावो वत्सानभितो गच्छन्ति तथा (अभिज्ञु) अभिगते जानुनी यासां ताः। अत्र अध्वयं विभक्ति०। अ० २।१।६। इति योगपद्यार्थे समासः। वा छन्दास सर्वे विधयो भवन्ति इति समासान्तो ज्ञुरादेशश्च (यातवे) यातुम्। अत्र तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः ॥१०॥

    अन्वयः

    पुनस्ते कीदृशं कर्म कर्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे राजप्रजाजना भवन्तस्त्ये तेऽन्तरिक्षस्थास्सूनवो वायव अभिज्ञु वाश्रा इव गिरः काष्ठा अज्मेषु उ यातवे यातुं तन्वन्तीव सुखमुद् अत्नत तन्वन्तु ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजप्रजाजनैर्यथेमे वायव एव वाचो जलानि च चालयित्वा विस्तार्य शब्दानाश्रावयन्तो गमनागमनजन्मवृद्धिक्षयहेतवः सन्ति तथैतैः शुभकर्माण्यनुष्ठेयानि ॥१०॥ मोक्षमूलरोक्तिः। ये गायनाः पुत्राः स्वगतौ गोष्ठानानि विस्तीर्णानि लम्बीभूतानि कुर्वन्ति गावो जानुबलेनागच्छन्निति व्यर्थास्ति कुतः। अत्र सूनुशब्देन प्रियां वाचमुच्चारयन्तो बालका गृह्यन्ते। यथा गावो वत्सलेहनार्थं पृथिव्यां जानुनी स्थापयित्वा सुखयन्ति तथा वायवोऽपीति विवक्षितत्वात् ॥१०॥ त्रयोदशो वर्गः समाप्तः ॥१३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे काम करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे राज प्रजा के मनुष्यो ! आप लोग (त्ये) वे अन्तरिक्ष में रहने वा (सूनवः) प्राणियों के गर्भ छुड़ानेवाले पवन (अभिज्ञु) जिनकी सन्मुख जंघा हों (वाश्राः) उन शब्द करती वा बछड़ों को सब प्रकार प्राप्त होती हुई गौओं के समान (गिरः) वाणी वा (काष्ठाः) दिशाओं से (अज्मेषु) जाने के मार्गों में (उ) और (यातवे) प्राप्त होने को विस्तार करते हुओं के समान सुख का (उत् अत्नत) अच्छे प्रकार विस्तार कीजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में लुप्तोपमालङ्कार है। राजा और प्रजा के मनुष्यों को चाहिये कि जैसे ये वायु ही वाणी और जलों को चलाकर विस्तृत करके अच्छे प्रकार शब्दों को श्रवण कराते हुए जाना-आना जन्म वृद्धि और नाश के हेतु हैं वैसे ही शुभाशुभ कर्मों का अनुष्ठान सुख-दुःख का निमित्त है ॥१०॥ मोक्षमूलर की उक्ति है कि जो गान करनेवाले पुत्र अपनी गति में गौओं के स्थानों को विस्तारयुक्त लम्बे करते हैं तथा गौ जांघ के बल से आती हैं। सो यह व्यर्थ है क्योंकि इस मंत्र में सूनु शब्द से प्रिय वाणी को उच्चारण करते हुए बालक ग्रहण किये हैं जैसे गौ बछड़ों को चाटने के लिये पृथिवी में जंघाओं को स्थापन करके सुखयुक्त होती है इस प्रकार विवक्षा के होने से ॥१०॥ यह तेरहवां वर्ग समाप्त हुआ ॥१३॥

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    विषय

    फिर वे कैसे काम करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे राजप्रजाजनाः भवन्तः त्ये ते अन्तरिक्षस्थाः सूनवः (वायवः) अभिज्ञु वाश्राः इव गिरः काष्ठाः अज्मेषु उ यातवे (यातुं) तन्वन्ति इव सुखम् उत् अत्नत (तन्वन्तु) ।

    पदार्थ

    हे (राजप्रजाजनाः)=राज्य के  प्रजाजनों! (भवन्तः)=आप सब, (त्ये) परोक्षाः=परोक्ष, (ते)=वे, (अन्तरिक्षस्थाः)=अन्तरिक्ष में स्थित, (सूनवः) ये प्राणिगर्भान् विमोचयन्ति=जो प्राणयों के गर्भ छुड़ानेवाले हैं, (वायवः)=ऐसे पवन, (अभिज्ञु) अभिगते जानुनी यासां ताः= घुटनों पर झुकती हुई गायों के समान, वे (वाश्राः) यथा शब्दायमाना गावो वत्सानभितो गच्छन्ति तथा=जैसे शब्द करती हुई गाय बछड़े के चारों ओर से जाती हुई, (इव)=के समान, (गिरः) वाचः=वाणी की, (काष्ठाः) दिशः= दिशा, (अज्मेषु) गमनाऽधिकरणेषु मार्गेषु=जाने के  मार्गों में, (उ) वितर्के=या, (यातवे) यातुम्=यात्रा करने के लिए, (तन्वन्ति)=फैलते हैं,  इसके (इव)=जैसे, (सुखम्)=सुख को, (उत्) उत्कृष्टार्थे=उत्कृष्टता से (अत्नत) तन्वन्त=विस्तारित करो॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में लुप्तोपमालङ्कार है। राजा और प्रजा के मनुष्यों को चाहिये कि जैसे ये वायु ही वाणी और जलों को चलाकर विस्तृत करके अच्छे प्रकार शब्दों को श्रवण कराते हुए जाना-आना जन्म वृद्धि और नाश के हेतु हैं वैसे ही शुभाशुभ कर्मों का अनुष्ठान सुख-दुःख का निमित्त है ॥१०॥ 

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी- मोक्षमूलर की उक्ति है कि जो गान करनेवाले पुत्र अपनी गति में गौओं के स्थानों को विस्तारयुक्त लम्बे करते हैं तथा गौ जांघ के बल से आती हैं। सो यह व्यर्थ है क्योंकि इस मंत्र में सूनु शब्द से प्रिय वाणी को उच्चारण करते हुए बालक ग्रहण किये हैं जैसे गौ बछड़ों को चाटने के लिये पृथिवी में जंघाओं को स्थापन करके सुखयुक्त होती है इस प्रकार विवक्षा के होने से ॥१०॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (राजप्रजाजनाः) राज्य के  प्रजाजनों! (भवन्तः) आप सब, (त्ये) परोक्ष, (ते) वे [जो] (अन्तरिक्षस्थाः) अन्तरिक्ष में स्थित (सूनवः) प्राणयों के गर्भ छुड़ानेवाले हैं, (वायवः) ऐसे पवन (अभिज्ञु) घुटनों पर झुकती हुई गायों के समान, वे (वाश्राः) जैसे शब्द करती हुई गाय बछड़े के चारों ओर से जाती हुई (इव) के समान (गिरः) वाणी की (काष्ठाः) दिशा से (अज्मेषु) जाने के  मार्गों में (उ) या (यातवे) यात्रा करने के लिए (तन्वन्ति) फैलते हैं,  [इसके] (इव) जैसे (सुखम्) सुख को (उत्) उत्कृष्टता से (अत्नत) विस्तारित करो॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत्) उत्कृष्टार्थे (उ) वितर्के (त्ये) परोक्षाः (सूनवः) ये प्राणिगर्भान् विमोचयन्ति। (गिरः) वाचः (काष्ठाः) दिशः। काष्ठा इति दिङ्नामसु पठितम्। निघं० १।६। (अज्मेषु) गमनाऽधिकरणेषु मार्गेषु (अत्नत) तन्वते। अत्र लडर्थे लुङ्। बहुलं छन्दसि इति विकरणाभावः। तनिपत्योश्छन्दसि। अ० ६।४।९९। अनेनोपधालोपः। (वाश्राः) यथा शब्दायमाना गावो वत्सानभितो गच्छन्ति तथा (अभिज्ञु) अभिगते जानुनी यासां ताः। अत्र अध्वयं विभक्ति०। अ० २।१।६। इति योगपद्यार्थे समासः। वा छन्दास सर्वे विधयो भवन्ति इति समासान्तो ज्ञुरादेशश्च (यातवे) यातुम्। अत्र तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः ॥१०॥
    विषयः- पुनस्ते कीदृशं कर्म कर्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे राजप्रजाजना भवन्तस्त्ये तेऽन्तरिक्षस्थास्सूनवो वायव अभिज्ञु वाश्रा इव गिरः काष्ठा अज्मेषु उ यातवे यातुं तन्वन्तीव सुखमुद् अत्नत तन्वन्तु ॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजप्रजाजनैर्यथेमे वायव एव वाचो जलानि च चालयित्वा विस्तार्य शब्दानाश्रावयन्तो गमनागमनजन्मवृद्धिक्षयहेतवः सन्ति तथैतैः शुभकर्माण्यनुष्ठेयानि ॥१०॥
     टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः। ये गायनाः पुत्राः स्वगतौ गोष्ठानानि विस्तीर्णानि लम्बीभूतानि कुर्वन्ति गावो जानुबलेनागच्छन्निति व्यर्थास्ति कुतः। अत्र सूनुशब्देन प्रियां वाचमुच्चारयन्तो बालका गृह्यन्ते। यथा गावो वत्सलेहनार्थं पृथिव्यां जानुनी स्थापयित्वा सुखयन्ति तथा वायवोऽपीति विवक्षितत्वात् ॥१०॥ 

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    विषय

    वाणी के प्रेरक

    पदार्थ

    १. (त्ये) - वे प्राण (उत् उ) - हमें उत्कर्ष की ओर ले - चलते हैं । ये प्राण (गिरः सूनवः) - वाणी के प्रेरक हैं, अर्थात् प्राणों की साधना से अन्तः करण की निर्मलता होकर अन्तः स्थित प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है । 
    २. ये प्राण (अज्मेषु) - गति के द्वारा सब मलों का प्रक्षेपण होने पर (काष्ठाः अत्नत) - [Mark, goal] अन्तिम उद्दिष्ट स्थल का विस्तार करते हैं, अर्थात् हमें इस जीवन में लक्ष्यस्थल पर पहुँचाते हैं । 
    ३. इस प्रकार प्राणसाधना करनेवाले लोग (अभिज्ञु) - अभिगत जानु होकर [घुटने टेककर] (वाश्राः) - प्रभु के गुणों का उच्चारण करते हुए (यातवे) - जीवन यात्रा में आगे और आगे चलते हुए प्रभु को प्राप्त कराने के लिए होते हैं [या प्रापणे] । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से अन्तः स्थित प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है, मनुष्य लक्ष्य - स्थान पर पहुँचता है, प्रभु स्तवन करता हुआ अन्तिम यात्रा में आगे बढ़ता है । 
     

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    विषय

    वायुओं के दृष्टान्त से देहगत प्राणों तथा वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (त्ये) वे वायुगण, प्राणगण ही (अज्मेषु) अपने गमन आगमन के बलों पर ही (सूनवः) बालकों के प्रसव कराने वाले और अन्तरिक्ष में मेघों को चलाने वाले होते हैं। ये ही (गिरः उत् अत्नत) वाणियों को उत्पन्न करते हैं। ये ही (काष्ठाः उत् अत्नत) जलों को अन्तरिक्ष में उठाये रहते हैं। (वाश्राः) बछड़ों के लिए उनके प्रेम से हंभारती हुई (अभिज्ञु) मानो जानुओं की तरफ झुकती हुई गौओं के समान (यातवे) वायुगण नाद सा करते हुए गति करते हैं। वीरों के पक्ष में—ये राष्ट्र के पुत्र (गिरः उत् अत्नत) आज्ञाओं का पालन करें। (अज्मेषु काष्ठा उत् अत्नत) बलयुक्त प्रयाणों में दिशाएं पार कर जाते हैं। ये ही शब्द करते हुए (अभिज्ञु) गोड़े नवाकर या कदम आगे बढ़ाकर जाने के लिए होते हैं। इति त्रयोदशी वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. राजा व प्रजा यांनी जाणले पाहिजे की, जसे हे वायूच वाणी व जलाला विस्तारित करून चांगल्या प्रकारे शब्दांचे श्रवण करवितात व जाणे-येणे, जन्म, वृद्धी व नाशाचा हेतू आहेत. तसेच शुभाशुभ कर्मांचे अनुष्ठान सुखदुःखाचे निमित्त आहे. ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलरची उक्ती आहे की, गान गाणारे पुत्र आपल्या गतीत गाईंच्या ठिकाणांना विस्तारयुक्त करतात व गाई जांघेच्या बलाने येतात. त्यामुळे हे व्यर्थ आहे की, या मंत्रात ‘सूनु’ शब्दाने प्रिय वाणीचे उच्चारण करीत बालकांचे ग्रहण केलेले आहे. जसे गाय वासराला चाटण्यासाठी पृथ्वीवर जांघांना स्थापित करून सुखी होते या प्रकारची अभिलाषा असल्यामुळे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those children of space, the winds, in their motions, carry and expand the waves of sound and the currents of waters and other energies across the spaces so that they reach their destinations like the mother cows hastening on their legs to their stalls.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of work they should do, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (rājaprajājanāḥ)=people of the state! (bhavantaḥ)=all of you, (tye)=imperceptible, (te)=they, [jo]=those, (antarikṣasthāḥ)=located in space, (sūnavaḥ)=are the deliverer of the wombs of the living beings, (vāyavaḥ)=such winds, (abhijñu)=like cows kneeling down on their knees, they, (vāśrāḥ)=like a mooing cow going around the cal,f (iva)=like, (giraḥ)=of the speech, (kāṣṭhāḥ)=from the direction, (ajmeṣu)=on the way to, (u)=or, (yātave)=for travelling, (tanvanti)=spread, [isake]=its, (iva)=like, (sukham)=to the delight, (ut)=excellently. (atnata)=expand.

    English Translation (K.K.V.)

    O people of the state! All of you, the imperceptible ones, who deliver the wombs of the living beings in space, like cows kneeling down on their knees, like a cow making noises going around a calf, it expands in the way to go or to travel from the direction of speech, like this, spread the happiness in excellence.

    Footnote

    Translation of the comments by Maharshi Dayanand- Max Müller's statement is that the sons who sing the songs elaborately lengthen the places of the cows in their movement and the cows come from the strength of the thigh. So it is futile because in this mantra children have been accepted while pronouncing the beloved speech with the word “sūnu”, just as a cow becomes happy by placing its thighs on the earth to lick the calves.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. The king and the subjects should know that just as, these airs are used for the movement of speech and water and making them listen good words for coming and going, birth, growth and destruction, similarly, the ritual of auspicious and inauspicious deeds is the cause of happiness and sorrow.

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