ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 13
यद्ध॒ यान्ति॑ म॒रुतः॒ सं ह॑ ब्रुव॒तेऽध्व॒न्ना । शृ॒णोति॒ कश्चि॑देषाम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ह॒ । यान्ति॑ । म॒रुतः॑ । सम् । ह॒ । ब्रु॒व॒ते॒ । अध्व॑न् । आ । शृ॒णोति॑ । कः । चि॒त् । ए॒षा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्ध यान्ति मरुतः सं ह ब्रुवतेऽध्वन्ना । शृणोति कश्चिदेषाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ह । यान्ति । मरुतः । सम् । ह । ब्रुवते । अध्वन् । आ । शृणोति । कः । चित् । एषाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(यत्) ये (ह) स्फुटम् (यान्ति) गच्छन्ति (मरुतः) वायवः (सम्) संगमे (ह) प्रसिद्धम् (ब्रुवते) परस्परमुपदिशन्ति (अध्वन्) अध्वनि विद्यामार्गे। अत्र सुपांसुलुक् इति ङेर्लुक् (आ) समन्तात् (शृणोति) शब्दविद्यां गृह्णाति (कः) विद्वान् (चित्) अपि (एषाम्) मरुताम् ॥१३॥
अन्वयः
पुनस्ते वायुभ्यः किं किमुपकुर्युरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
यथा यद्येत इमे मरुत इतस्ततो ह यान्त्यायान्ति तथाऽध्वन्विद्यामार्गे शिल्पिनो विद्वांसो ह समाब्रुवते एषां मरुतां विद्यां कश्चिदेव शृणोति विजानाति च न तु सर्वे ॥१३॥
भावार्थः
अस्य वायोर्विद्यां कश्चिद्विद्याक्रियाकुशल एव ज्ञातुं शक्नोति नेतरो जड़धीः ॥१३॥ मोक्षमूलरोक्तिः। यदा खलु मरुतः सह गच्छन्ति स्वमार्गाणामुपरि परस्परं वदन्ति। कश्चिन्मनुष्यः शृणोति किमित्यशुद्धास्ति। कुतः। मरुतां जडत्वेन परस्परं वार्त्ताकरणाऽसंभवात्। वक्तॄणां चेतनानां जीवानां वचनश्रवणहेतुत्वाश्च ॥१३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे वायुओं से क्या-२ उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
जैसे (यत्) ये (मरुतः) पवन (यान्ति) जाते आते हैं वैसे (अध्वन्) विद्यामार्ग में कारीगर विद्वान् लोग (ह) स्पष्ट (समाब्रुवते) मिल के अच्छे प्रकार परस्पर उपदेश करते हैं और (एषाम्) इन वायुओं की विद्या को (कश्चित्) कोई विद्वान् पुरुष (शृणोति) सुनता और जानता है, सब साधारण पुरुष नहीं ॥१३॥
भावार्थ
इस वायु विद्या को कोई विद्वान् ही ठीक-२ जान सकता है जड़बुद्धि नहीं जान सकता ॥१३॥ मोक्षमूलर की उक्ति है कि जब निश्चय करके पवन परस्पर साथ-२ जाते वा अपने मार्गों के ऊपर बोलते हैं तब कोई मनुष्य क्या श्रवण करता है अर्थात् नहीं, यह अशुद्ध हैं क्योंकि पवनों का जड़त्व होने से वार्त्ता करना असम्भव है और कहनेवाले चेतन जीवों के बोलने में हेतु तो होते हैं* ॥१३॥ संस्कृत उक्ति के अनुसार (वचन सुनने के)। सं० *अर्थात् (ये पवन)। सं०
विषय
फिर वे वायुओं से क्या-क्या उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा यदि एते इमे मरुतः इतस्ततः ह यान्ति आयान्ति तथा अध्वन् विद्यामार्गे शिल्पिनः विद्वांसः ह सम् आ ब्रुवते एषां मरुतां विद्यां कश्चित् एव शृणोति विजानाति च न तु सर्वे ॥१३॥
पदार्थ
(यथा)=जैसै, (यदि)= यदि, (एते)=ये निकटस्थ, (इमे)=ये प्रत्यक्ष, (मरुतः) वायवः=पवन, (इतस्ततः)=इधर से उधर, (ह) स्फुटम्= निश्चित रूप से, (यान्ति) गच्छन्ति=जाते हैं, और (आयान्ति)=आते हैं, (तथा)=वैसे ही, (अध्वन्) अध्वनि विद्यामार्गे=विद्यामार्ग में (शिल्पिनः)=शिल्पी और (विद्वांसः)= विद्वान्, (ह) स्फुटम्=निश्चित रूप से, (सम्) संगमे =संगति में, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (ब्रुवते) परस्परमुपदिशन्ति=परस्पर उपदेश करते हैं। (एषाम्) मरुताम्=इन पवन की, (विद्याम्)=विद्या की, (कश्चित्)=कोई, (एव)=ही, (शृणोति) शब्दविद्यां गृह्णाति=शब्दविद्या को ग्रहण करता है और (विजानाति)=अच्छी तरह से जानता है। (च)=और, (न)=न, (तु)=तो, (सर्वे)=सब [सुनते हैं और जानते हैं]॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस वायु विद्या को कोई विद्वान् ही ठीक-ठीक जान सकता है जड़बुद्धि नहीं जान सकता ॥१३॥
विशेष
महर्षिकृत टिप्पणी का भाषानुवाद- मोक्षमूलर की उक्ति है कि जब निश्चय करके पवन परस्पर साथ- साथ जाते वा अपने मार्गों के ऊपर बोलते हैं तब कोई मनुष्य क्या श्रवण करता है अर्थात् नहीं, यह अशुद्ध हैं क्योंकि पवनों का जड़त्व होने से वार्त्ता करना असम्भव है और कहनेवाले चेतन जीवों के बोलने में हेतु तो होते हैं ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जैसै (यदि) यदि (एते) ये निकटस्थ और (इमे) ये प्रत्यक्ष (मरुतः) पवन (इतस्ततः) इधर से उधर (ह) निश्चित रूप से (यान्ति) जाते हैं और (आयान्ति) आते हैं, (तथा) वैसे ही (अध्वन्) विद्यामार्ग में (शिल्पिनः) शिल्पी और (विद्वांसः) विद्वान् लोग, (ह) निश्चित रूप से (सम्) संगति में (आ) हर ओर से (ब्रुवते) परस्पर उपदेश करते हैं। (एषाम्) इन पवन की (विद्याम्) शब्दविद्या को (कश्चित्) कोई (एव) ही (शृणोति) ग्रहण करता है और (विजानाति) अच्छी तरह से जानता है। (च) और (न) न (तु) तो (सर्वे) सब [सुनते हैं और जानते हैं]॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्) ये (ह) स्फुटम् (यान्ति) गच्छन्ति (मरुतः) वायवः (सम्) संगमे (ह) प्रसिद्धम् (ब्रुवते) परस्परमुपदिशन्ति (अध्वन्) अध्वनि विद्यामार्गे। अत्र सुपांसुलुक् इति ङेर्लुक् (आ) समन्तात् (शृणोति) शब्दविद्यां गृह्णाति (कः) विद्वान् (चित्) अपि (एषाम्) मरुताम् ॥१३॥
विषयः- पुनस्ते वायुभ्यः किं किमुपकुर्युरित्युपदिश्यते।
अन्वयः- यथा यद्येत इमे मरुत इतस्ततः ह यान्त्यायान्ति तथाऽध्वन्विद्यामार्गे शिल्पिनो विद्वांसो ह समाब्रुवते एषां मरुतां विद्यां कश्चिदेव शृणोति विजानाति च न तु सर्वे ॥१३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्य वायोर्विद्यां कश्चिद्विद्याक्रियाकुशल एव ज्ञातुं शक्नोति नेतरो जड़धीः॥१३॥
टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः। यदा खलु मरुतः सह गच्छन्ति स्वमार्गाणामुपरि परस्परं वदन्ति। कश्चिन्मनुष्यः शृणोति किमित्यशुद्धास्ति। कुतः। मरुतां जडत्वेन परस्परं वार्त्ताकरणाऽसंभवात्। वक्तॄणां चेतनानां जीवानां वचनश्रवणहेतुत्वाश्च ॥१३॥
विषय
अन्तः प्रेरणा का सुनना
पदार्थ
१. (यत्) - जब (ह) - निश्चय से (मरुतः) - प्राण (यान्ति) - 'इडा, पिंगला व सुषुम्णा' आदि नाड़ियों में गति करते हैं, उस समय (ह) - निश्चय से ये प्राण (अध्वन् आ) - मार्ग में सर्वत्र (संब्रवते) - सम्यक् उपदेश देते हैं, अर्थात् इन प्राणों की साधना होने पर हृदय की निर्मलता होती है और अन्तः स्थित प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है,
२. परन्तु (एषाम्) - इनकी उस वाणी को (कश्चित्) - कोई विरला व्यक्ति ही (शृणोति) - सुनता है । वस्तुतः इस प्राणसाधना के योगमार्ग पर चलने की प्रवृत्ति विरले ही व्यक्तियों को होती है । हजारों में कोई एकाध ही इस मार्ग पर चलने में प्रवृत्त होता है और इस प्रकार कोई विरला व्यक्ति ही इस अन्तः प्रेरणा के शब्द को सुनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणों की गति सुषुम्णा आदि नाड़ियों में होने पर अन्तः प्रेरणा सुनाई पड़ती है, परन्तु इसे कोई - कोई ही सुनता है ।
विषय
वायुओं के दृष्टान्त से देहगत प्राणों तथा वीरों का वर्णन ।
भावार्थ
(यत् ह) और जब भी (मरुतः) पवनों के समान परोपकारी, वेग से या ज्ञानमार्ग से जानेवाले विद्वान्गण और वीरगण (अध्वन्) ज्ञानमार्ग से या युद्धमार्ग से (आ यन्ति) जाते हैं और (सं ब्रुवते) परस्पर वादानुवाद और वार्त्तालाप या ज्ञान का उपदेश करते हैं तब भी (एषाम्) इनके वचनों को (कः चित्) कोई ही (शृणोति) सुनता और समझता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या वायूविद्येला एखादा विद्वानच ठीक-ठीक जाणू शकतो. जड बुद्धी जाणू शकत नाही. ॥ १३ ॥
टिप्पणी
मोक्षमूलरची उक्ती आहे की, जेव्हा निश्चय करून वायू परस्पर बरोबरच जातात किंवा आपल्या मार्गात आवाज करतात. तेव्हा एखादा माणूस काय ऐकतो, अर्थात नाही, हे अशुद्ध आहे. कारण वायू जड असल्यामुळे बोलणे अशक्य आहे व सांगणाऱ्या चेतन जीवाच्या बोलण्यात हेतू असतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The Maruts, wind powers of nature, like the dynamic heroes of humanity, go together, and as they go by the paths of their movement, they speak together and proclaim their presence and their work. But only some exceptionally perceptive people listen to their voice.
Subject of the mantra
Then what helps should they take from the airs, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā)=like, (yadi)=if, (ete)=these close and, (ime)=these evident, (marutaḥ)=winds,(itastataḥ)= hither and thither, (ha)=definitely, (yānti)=go and, (āyānti)=come, (tathā)=in the same way, (adhvan) =in the way to knowledge, (vidvāṃsaḥ)=scholars, (ha)=definitely, (sam) saṃgati meṃ, (ā)=from all sides, (bruvate)=preach to each other, (eṣām)=of these winds, (vidyām)=to the knowledge through words, (kaścit+eva)=any one only, (śṛṇoti)=accepts and, (vijānāti)=knows well, (ca)=and, (na)=not, (tu)==so, (sarve)=all, [sunate haiṃ aura jānate haiṃ]=listens and know.
English Translation (K.K.V.)
As these close and perceptible airs certainly go and come from hither and thither, so the artisans and learned men on the path of learning do, surely in association, preach to each other from all sides. Only someone accepts the knowledge of these winds and knows them very well. And neither do all hearing and knowing.
Footnote
Translation of the comments by Maharshi Dayanand- Max Müller's statement is that when the winds move with each other with determination or speak on their paths, then what does a man hear, the answer is in negative. It is incorrect, because it is impossible to talk due to inertness of the winds and there are reasons for the speaking of the living beings who speak.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Only a scholar can know this Vayu Vidya (knowledge of air) properly, the stupid mind cannot know it.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What use should they make of the winds is taught in the 13th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As these winds pass along here and there, artists and scientists give instructions on the path of (or for acquiring knowledge) knowledge and converse with one another about them. The knowledge of this science of sound is gained by a few and not by all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
Prof. Maxmuller's translation of the Mantras as "As the Maruts pass along, they talk together on the way; does any one hear them ? is not correct, because conversation among inanimate Maruts (Storms) is impossible. It is only conscious souls that can talk and hear and not inanimate like the winds and storms.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The science of air can be known by one who is well-versed in knowledge and practical work and not an idiot.
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