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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र शं॑सा॒ गोष्वघ्न्यं॑ क्री॒ळं यच्छर्धो॒ मारु॑तम् । जम्भे॒ रस॑स्य वावृधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । शं॒स॒ । गोषु॑ । अघ्न्य॑म् । क्री॒ळम् । यत् । शर्धः॑ । मारु॑तम् । जम्भे॑ । रस॑स्य । व॒वृ॒धे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र शंसा गोष्वघ्न्यं क्रीळं यच्छर्धो मारुतम् । जम्भे रसस्य वावृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । शंस । गोषु । अघ्न्यम् । क्रीळम् । यत् । शर्धः । मारुतम् । जम्भे । रसस्य । ववृधे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (शंसा) अनुशाधि (गोषु) पृथिव्यादिष्विन्द्रियेषु पशुषु वा (अघ्न्यम्) हन्तुमयोग्यमघ्न्याभ्यो गोभ्यो हितं वा। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।१।१६#। अनेनाऽयं सिद्धः। अघ्न्येति गोनामसु पठितम्। निघं० २।११। (क्रीडम्) क्रीडति येन तत् (यत्) (शर्धः) बलम् (मारुतम्) मरुतो विकारो मारुतस्तम् (जम्भे) जभ्यन्ते गात्राणि विनाभ्यन्ते चेष्ट्यन्ते येन मुखेन तस्मिन् (रसस्य) भुक्तान्नत उत्पन्नस्य शरीरवर्द्धकस्य भोगेन (वावृधे) वर्धते। अत्र तुजादीनां दीर्घोभ्यासस्य* इति दीर्घः ॥५॥ #[वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ, ४।११२ इति संख्या वर्त्तते। सं०] *[अ० ६।१।७।]

    अन्वयः

    पुनरेतेषां योगेन किं किं भवतीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे विद्वंस्त्वं यद्गोषु क्रीडमघ्न्यं मारुतं जम्भे रसस्य सकाशादुत्पद्यमानं शर्धो बलं वावृधे तन्मह्यं प्रशंस नित्यमनुशाधि ॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यद्वायुसम्बन्धि शरीरादिषु क्रीड़ाबलवर्धनमस्ति तन्नित्यं वर्धनीयम्। यावद्रसादिज्ञानं तत्सर्वं वायुसन्नियोगेनैव जायते अतः सर्वैः परस्परमेवमनुशासनं कार्य्यं यतः सर्वेषां वायुगुणविद्या विदिता स्यात् ॥५॥ मोक्षमूलरोक्तिः। स प्रसिद्धो वृषभो गवां मध्य अर्थात् पवनदलानां मध्य उपाधिवर्द्धितो जातः सन् यथा तेन मेघावयवाः स्वादिताः। कुतः। अनेन मरुतामादरः कृतस्तस्मादित्यशुद्धास्ति कथं। अत्र यद्गवां मध्ये मारुतं बलमस्ति। तस्य प्रशंसाः कार्य्याः। यच्चप्राणिभिर्मुखेनस्वाद्यते तदपि मारुतं बलमस्तीति। अत्र जम्भशब्दार्थे विलसन मोक्षमूलराख्यविवादो निष्फलोस्ति ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इनके योग से क्या-२ होता है, यह अगले मंत्र में उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान्मनुष्यो ! तुम (यत्) जो (गोषु) पृथिवी आदि भूत वा वाणी आदि इन्द्रिय तथा गौ आदि पशुओं में (क्रीडम्) क्रीड़ा का निमित्त (अघ्न्यम्) नहीं हनन करने योग्य वा इन्द्रियों के लिये हितकारी (मारुतम्) पवनों का विकाररूप (रसस्य) भोजन किये हुए अन्नादि पदार्थों से उत्पन्न (जम्भे) जिससे गात्रों का संचलन हो मुख में प्राप्त हो के शरीर में स्थित (शर्द्धः) बल (ववृधे) वृधि को प्राप्त होता है उसको मेरे लिये नित्य (प्रशंसा) शिक्षा करो ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जो वायुसम्बन्धि शरीर आदि में क्रीड़ा और बल का बढ़ना है उसको नित्य उन्नति देवें और जितना रस आदि प्रतीत होता है वह सब वायु के संयोग से होता है इससे परस्पर इस प्रकार सब शिक्षा करनी चाहिये कि जिससे सब लोगों को वायु के गुणों की विद्या विदित हो होवें ॥५॥ मोक्षमूलर साहिब का कथन कि यह प्रसिद्ध वायु पवनों के दलों में उपाधि से बढ़ा हुआ जैसे उस पवन ने मेघावयवों को स्वादयुक्त किया है क्योंकि इसने पवनों का आदर किया इससे। सो यह अशुद्ध है कैसे कि जो इस मंत्र में इन्द्रियों के मध्य में पवनों का बल कहा है उसकी प्रशंसा करनी और जो प्राणि लोग मुख से स्वाद लेते हैं वह भी पवनों का बल है और इस शब्द के अर्थ में विलसन और मोक्षमूलर साहिब का वादविवाद निष्फल है ॥५॥

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    विषय

    फिर इनके योग से क्या-क्या होता है, यह इस मंत्र में उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन त्वं यत् गोषु क्रीडम् अघ्न्यं मारुतं जम्भे रसस्य सकाशात् उत्पद्यमानं शर्धः [बलं] वावृधे तान् मह्यं प्रशंस [नित्यम् अनुशाधि ]।

    पदार्थ

    हे (विद्वन्)=विद्वान्,  (त्वम्)=तुम, (यत्)=जो, (गोषु) पृथिव्यादिष्विन्द्रियेषु पशुषु वा=पृथिवी आदि में, इन्द्रियों में या पशुओं में,  (क्रीडम्) क्रीडति येन तत्= क्रीड़ा करते हैं, उनके  (अघ्न्यम्)=नहीं हनन करने योग्य, (मारुतम्) मरुतो विकारो मारुतस्तम्=पवनों का विकाररूप, (जम्भे) जभ्यन्ते गात्राणि विनाभ्यन्ते चेष्ट्यन्ते येन मुखेन तस्मिन्=जिस मुख से शरीर के अङ्गों का संचलन हो, उस मुख में, (रसस्य) भुक्तान्नत उत्पन्नस्य शरीरवर्द्धकस्य भोगेन=खाये हुए अन्न से उत्पन्न रस के भोग करने से शरीर के बढ़ने से,  (सकाशात्)=निकट से,  (उत्पद्यमानम्)=उत्पन्न किये जा रहे,  (शर्धः) बलम्=बल, (वावृधे) वर्धते=बढ़ते हैं। (तत्)=इसलिए, (मह्यम्)=मेरे लिये, (प्र) प्रकृष्टार्थे=अच्छा, (नित्यम्)=नित्य, (शंसा) अनुशाधि=सम्पादित करो ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को योग्य है कि जो वायुसम्बन्धि शरीर आदि में क्रीड़ा और बल का बढ़ना है उसको नित्य उन्नति देवें और जितना रस आदि प्रतीत होता है वह सब वायु के संयोग से होता है इससे परस्पर इस प्रकार सब शिक्षा करनी चाहिये कि जिससे सब लोगों को वायु के गुणों की विद्या विदित हो होवें ॥५॥ मोक्षमूलर साहिब का कथन कि यह प्रसिद्ध वायु पवनों के दलों में उपाधि से बढ़ा हुआ जैसे उस पवन ने मेघावयवों को स्वादयुक्त किया है क्योंकि इसने पवनों का आदर किया इससे। सो यह अशुद्ध है कैसे कि जो इस मंत्र में इन्द्रियों के मध्य में पवनों का बल कहा है उसकी प्रशंसा करनी और जो प्राणि लोग मुख से स्वाद लेते हैं वह भी पवनों का बल है और इस शब्द के अर्थ में विलसन और मोक्षमूलर साहिब का वादविवाद निष्फल है ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वन्) विद्वान्!  (त्वम्)  तुम (यत्) जो (गोषु) पृथिवी आदि में, इन्द्रियों में या पशुओं में  (क्रीडम्) क्रीडा करते हो, वे  (अघ्न्यम्) मारने योग्य नहीं हैं, (मारुतम्) पवनों के विकाररूप को, (जम्भे) जिस मुख और शरीर के अङ्गों का संचलन हो, उस मुख में (रसस्य) खाये हुए अन्न से उत्पन्न रस के भोग करने से शरीर के बढ़ने से  (सकाशात्) निकट से  (उत्पद्यमानम्) उत्पन्न किये जा रहे  (शर्धः) बल (वावृधे) बढ़ते हैं। (तत्) इसलिए (मह्यम्) मेरे लिये, (नित्यम्) नित्य, (प्र+शंसा) अच्छा कार्य सम्पादित करो॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (शंसा) अनुशाधि (गोषु) पृथिव्यादिष्विन्द्रियेषु पशुषु वा (अघ्न्यम्) हन्तुमयोग्यमघ्न्याभ्यो गोभ्यो हितं वा। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।१।१६#। अनेनाऽयं सिद्धः। अघ्न्येति गोनामसु पठितम्। निघं० २।११। (क्रीडम्) क्रीडति येन तत् (यत्) (शर्धः) बलम् (मारुतम्) मरुतो विकारो मारुतस्तम् (जम्भे) जभ्यन्ते गात्राणि विनाभ्यन्ते चेष्ट्यन्ते येन मुखेन तस्मिन् (रसस्य) भुक्तान्नत उत्पन्नस्य शरीरवर्द्धकस्य भोगेन (वावृधे) वर्धते। अत्र तुजादीनां दीर्घोभ्यासस्य* इति दीर्घः ॥५॥ #[वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ, ४।११२ इति संख्या वर्त्तते। सं०] *[अ० ६।१।७।]
    विषयः- पुनरेतेषां योगेन किं किं भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे विद्वंस्त्वं यद्गोषु क्रीडमघ्न्यं मारुतं जम्भे रसस्य सकाशादुत्पद्यमानं शर्धो बलं वावृधे तन्मह्यं प्रशंस नित्यमनुशाधि ॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यद्वायुसम्बन्धि शरीरादिषु क्रीड़ाबलवर्धनमस्ति तन्नित्यं वर्धनीयम्। यावद्रसादिज्ञानं तत्सर्वं वायुसन्नियोगेनैव जायते अतः सर्वैः परस्परमेवमनुशासनं कार्य्यं यतः सर्वेषां वायुगुणविद्या विदिता स्यात् ॥५॥ मोक्षमूलरोक्तिः। स प्रसिद्धो वृषभो गवां मध्य अर्थात् पवनदलानां मध्य उपाधिवर्द्धितो जातः सन् यथा तेन मेघावयवाः स्वादिताः। कुतः। अनेन मरुतामादरः कृतस्तस्मादित्यशुद्धास्ति कथं। अत्र यद्गवां मध्ये मारुतं बलमस्ति। तस्य प्रशंसाः कार्य्याः। यच्चप्राणिभिर्मुखेनस्वाद्यते तदपि मारुतं बलमस्तीति। अत्र जम्भशब्दार्थे विलसन मोक्षमूलराख्यविवादो 

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    विषय

    चबाकर खाना

    पदार्थ

    १. (यत्) - जो (मारुतं शर्धः) - प्राणसम्बन्धी बल है, उसका (प्रशंस) - शंसन करो जो प्राणों का बल [क] (गोषु अन्यम्) - इन्द्रियों के विषय में न हनन करनेवालों में उत्तम है, अर्थात् जो इन्द्रियों की शक्ति को स्थिर रखता है, इन्द्रियों के दोषों को दूर करके उनकी शक्ति को क्षीण नहीं होने देता; [ख] (क्रीळम्) - यह प्राणों का बल हमारे मनों को पवित्र करता हुआ हमें एक क्रीड़क की मनोवृत्ति प्राप्त कराता है । इस वृत्ति के कारण इस संसार को ठीकरूप में देखनेवाले बनते हैं । 
    २. यह 'मारुतशर्धः ' - प्राणों का बल (जम्भे) - मुख में (रसस्य) - [रसेन] भोजन को खूब चबाकर रस बना लेने से (वावृधे) - बढ़ता है, अर्थात् यदि हम भोजन को खूब चबाकर खाते हैं और उसे द्रव बनाकर अन्दर ले - जाते हैं तो यह प्राणवृद्धि का कारण बनता है । यह प्राणों का बल हमारी इन्द्रियों को क्षीण नहीं होने देता और हमारी मनोवृत्ति को एक खिलाड़ी की मनोवृत्तिवाला बनाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणों का बल इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन करता है । हमारी मनोवृत्ति को खिलाड़ी की मनोवृत्ति से युक्त करता है । प्राणों के बल की वृद्धि के लिए खूब चबाकर खाना आवश्यक है । 
     

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    विषय

    वायुओं के दृष्टान्त से वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (यत्) जो (मारुतम्) प्राणों का बल (गोषु) इन्द्रियों को बैल, गौ आदि पशुओं में (क्रीळं) शरीर के अंगों में नाना अद्भुत क्रीड़ाकारी नाना चेष्टाओं को उत्पन्न करने वाला (अघ्न्यम्) कभी नाश न होने वाला, चेतनता रूप से विद्यमान् है जो (जम्भे) अंगों के नाना प्रकार से झुकाने आदि कार्यों में भी प्रकट होता है वही (रसस्य) खाये हुए अन्न के बने परिपक्क रस के कारण (वावृधे) बढ़ता है। उसका (प्र शंस) उत्तम रीति से उपदेश करो। अथवा (यत् शर्धः मारुतम्) जो मारणशील वीर सैनिकों का बल (गोषु अध्न्यम्) रण भूमियों में कभी नाश न होने वाला तथा (क्रीळं) अद्भुत रणक्रीड़ा करता है, वह (जम्भे) मुख्य भाग में स्थित होकर (रसस्य) बलपूर्वक बढ़ता है। उसका उपदेश करो। इति द्वादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी हे जाणावे की शरीर इत्यादीमध्ये क्रीडा व बलाची वाढ, त्यात नित्य वृद्धी व रसनिर्मिती वगैरे सर्व वायूच्या संयोगाने होते. त्यामुळे अशा प्रकारचे शिक्षण दिले पाहिजे की, ज्यामुळे सर्व लोकांना वायूच्या गुणांची माहिती व्हावी. ॥ ५ ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलर साहेबांचे कथन आहे की, हा प्रसिद्ध वायू वायूच्या दलात उपाधीने वाढलेला आहे. जसे वायूने मेघावयांना स्वादयुक्त केलेले आहे, कारण त्या वायूचा आदर केला यामुळेच हे अशुद्ध आहे. जे या मंत्रात इंद्रियामध्ये वायूचे बळ सांगितलेले आहे त्याची प्रशंसा करावी व जो प्राणी मुखाने स्वाद घेतो तेही वायूचे बल आहे व या (जम्भ) शब्दाच्या बाबतीत अर्थात विल्सन व मोक्षमूलर साहेबाचा वादविवाद निष्फळ आहे.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Study and celebrate that refreshing and inviolable strength and power of the winds which operates in the earths and cows and in the wind and senses and which issues forth in the juices pressed out by the jaws in the mouth and soma press and which increases the strength and vitality of the body.

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    Subject of the mantra

    Then what happens with their combination, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan)=scholar, (tvam) =you, (yat)=that, (goṣu)=in earth etc., in senses or in animals, (krīḍam) =have amusements, they, (aghnyam)=are not killable, (mārutam)=to the developed order of the winds, (jambhe)=in the mouth and the movement of the body parts, in that mouth, (rasasya)=due to the growth of the body due to the enjoyment of juice produced from the food eaten, (sakāśāt)=from proximity, (utpadyamānam)=being created, (śardhaḥ)=force, (vāvṛdhe)=increase, (tat)=therefore, (mahyam)=for me, (nityam)=daily, (pra+śaṃsā)=do good work.

    English Translation (K.K.V.)

    He=O! (vidvan)=scholar, (tvam) =you, (yat)=that, (goṣu)=in earth etc., in senses or in animals, (krīḍam) =have amusements, they, (aghnyam)=are not killable, (mārutam)=to the developed order of the winds, (jambhe)=in the mouth and the movement of the body parts, in that mouth, (rasasya)=due to the growth of the body due to the enjoyment of juice produced from the food eaten, (sakāśāt)=from proximity, (utpadyamānam)=being created, (śardhaḥ)=force, (vāvṛdhe)=increase, (tat)=therefore, (mahyam)=for me, (nityam)=daily, (pra+śaṃsā)=do good work.

    Footnote

    Translation of the comments by Maharshi Dayanand- Max Muller Sahib's comments that this famous air is elevated by virtuous reflection in the groups of winds, as that wind parts have made the clouds flavored, because it respected the winds, so it is impure. How to praise what is said in this mantra as the power of the winds in the middle of the senses and the creatures that taste through the mouth are also the power of the winds and the debate between Wilson and Max Muller Sahib in the meaning of this word is infructuous.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is worthy of human beings that the amusement and strength in the air-related body etc. have to be increased. They should be given continuous progress and as much juice etcetera appears, all that happens due to the combination of air. Therefore this should be taught mutually in such a way that everyone gets to know about the properties of air.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, you should always praise and instruct others about the inviolable power of the winds which is beneficial to the cows, which manifests itself in the earth and other elements, in the senses and which develops the body when food with sap is taken.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [गोषु] पृथिव्यादिषु इन्द्रियेषु पशुषु वा = In the earth and other elements, in senses, in cows and other animals. [ अघ्न्यम् ] हन्तुम् अयोग्यं अघ्न्याभ्यो गोभ्यो हितं वा । अघ्न्यादयश्च [उणा० ४.१.१६] अनेनायं सिद्धः । अन्येति गोनामसु पठितम् निघ० २.११] = Inviolable or beneficial to the cows.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always develop the power of the air that exists in their bodies. All knowledge about the sap etc. is acquired with the help of the air. Therefore all should teach one another, so that all may know the attributes of the air. Prof. Maxmuller's translation as- "Celebrate the bull among the cows (the storm among the clouds) for it is the sportive host of the Maruts, he grew as he tasted the rain." is wrong. What is stated in the Mantra is that we should admire the force of the air that is among the cows and other beings. Whatever food or sap is taken also belongs to the winds. Prof. Maxmuller while translating the fifth Mantra as quoted above admits frankly "This translation is merely conjectural. I suppose that the wind driving the clouds before him, is here compared to a bull among cows of V. 52.3 (Vedic Hymns (Vo. 1. P-73). Rishi Dayananda's criticism is thus quite justified. What is after all the value of a merely conjectural translation ?

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