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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    येषा॒मज्मे॑षु पृथि॒वी जु॑जु॒र्वाँइ॑व वि॒श्पतिः॑ । भि॒या यामे॑षु॒ रेज॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येषा॑म् । अज्मे॑षु । पृ॒थि॒वी । जु॒जु॒र्वान्ऽइ॑व । वि॒श्पतिः॑ । भि॒या । यामे॑षु । रेज॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वाँइव विश्पतिः । भिया यामेषु रेजते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येषाम् । अज्मेषु । पृथिवी । जुजुर्वान्इव । विश्पतिः । भिया । यामेषु । रेजते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (येषाम्) महताम् (अज्मेषु) प्रापकक्षेपकादिगुणेषु सत्सु (पृथिवी) भूः (जुजुर्वान् इव) यथा वृद्धावस्थां प्राप्तो मनुष्यः। जॄष वयोहानावित्यस्मात् क्वसुः। #बहुलं छन्दसि इत्युत्वम्। वा छन्दसि सर्वेविधयो भवन्तीति *हलि च इति दीर्घो न। (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालको राजा (भिया) भयेन (यामेषु) स्वस्वगमनरूपमार्गेषु (रेजते) कम्पते चलति ॥८॥ #[अ० ७।१।१०३।]*[अ० ८।२।७७।]

    अन्वयः

    पुनस्तेषां योगेन किं भवतीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे विद्वांसो येषां मरुतामज्मेषु सत्सु भिया जुजुर्वानिव वृद्धो विश्पतिः पृथिव्यादिलोकसमूहो यामेषु रेजते कम्पते चलति तान् कार्य्येषु संप्रयुङ्ध्वम् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा जीर्णावस्थां प्राप्तः कश्चिद्राजा रोगैः शत्रूणां भयेन वा कम्पते तथा वायुभिः सर्वतो धारितः पृथिवीलोकः स्वपरिधौ प्रतिक्षणं भ्रमति एवं सर्वे लोकाश्च। नहि सूत्रवद्वेष्टनेन वायुना विना कस्यचिल्लोकस्य स्थितर्भ्रमणं च संभवतीति ॥८॥ मोक्षमूलरोक्तिः ‘येषां मरुतां धावने पृथिवी निर्बलराजवद्भयेन मार्गेषु कम्पते, संस्कृतरीत्यायं महान् दोषो यत् स्त्रीलिङ्गोपमेयेन सह पुंल्लिङ्गोपमा न दीयत’ इत्यलीकास्ति कुतो वायोर्योगेनैव पृथिव्या धारणभ्रमणे संभूय तद्भीषणेनैव पृथिव्यादीनां लोकानां स्वरूपस्थितिर्भवति नायं लिङ्गव्यत्ययेनोपमालङ्कारे दोषो भवितुमर्हति। मनोवद्वायुर्गच्छति। वायुरिव मनो गच्छति। श्येनवन्मेना गच्छति। स्त्रीवत् पुरुषः पुरुषवत् स्त्री। हस्तीवन्महिषी हस्तिनीवद्वा। चन्द्रवन्मुखम्। सूर्यप्रकाश इव राजनीतिरित्यादिनास्य शोभनत्वात् ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उन पवनों के योग से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! (येषाम्) जिन पवनों के (अज्मेषु) पहुंचाने फेंकने आदि गुणों में (भिया) भय से (जुजुर्वानिव) जैसे वृद्धावस्था को प्राप्त हुआ (विश्पतिः) प्रजा की पालना करनेवाला राजा शत्रुओं से कम्पता है वैसे (पृथिवी) पृथिवी आदि लोक (यामेषु) अपने-२ चलने रूप परिधि मार्गों में (रेजते) चलायमान होते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई राजा जीर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ रोग वा शत्रुओं के भय से कम्पता है वैसे पवनों से सब प्रकार धारण किये हुए पृथिवी आदि लोक घूंमते हैं। और सूत्र के समान बंधे हुए वायु के विना किसी लोक की स्थिति वा भ्रमण का संभव कभी नहीं हो सकता ॥८॥ मोक्षमूलर साहिब का कथन कि जिन पवनों के दौड़नें में पृथिवी निर्बल राजा के समान भय से मार्गों में कम्पित होती है। संस्कृत की रीति से यह बड़ा दोष है कि जो स्त्रीलिङ्ग उपमेय के साथ पुल्लिङ्ग वाची उपमान दिया है। सो यह मौक्षमू० का कथन मिथ्या है क्योंकि वायु के योग ही से पृथिवी के धारण वा भ्रमण का संभव होकर वायु के भीषण ही से पृथिवी आदि लोकों के स्वरूप की स्थिति होती है तथा यह लिङ्ग व्यत्यय से उपमालङ्कार में दोष नहीं हो सकता, जैसे मनुष्य के तुल्य वायु और वायु के समान मन चलता है, श्येनपक्षी के समान मेना, स्त्री के समान पुरुष वा पुरुष के समान स्त्री, हाथी के समान भैंसी वा हथिनी के समान, चंद्रमा के समान मुख, सूर्य प्रकाश के समान राजनीति, इस प्रकार उपमालङ्कार में लिङ्ग भेद से कोई भी दोष नहीं आ-सकता ॥८॥

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    विषय

    फिर उन पवनों के योग से क्या होता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसः येषां मरुताम् अज्मेषु सत्सु भिया जुजुर्वान् इव वृद्धः विश्पतिः पृथिव्यादिलोकसमूहः यामेषु रेजते कम्पते-चलति   तान् कार्येषु संप्रयुङ्ध्वम् ॥८॥

    पदार्थ

    हे (विद्वांसः)=विद्वान् लोगो !  (येषाम्) महताम्=बडे, (मरुताम्)=पवनों को,  (अज्मेषु) प्रापकक्षेपकादिगुणेषु सत्सु=प्राप्त करने और फेंकने आदि के गुणों में, (सत्सु)=जीवों में, (भिया) भयेन=भय से, (जुजुर्वान् इव) यथा वृद्धावस्थां प्राप्तो मनुष्यः=जैसे वृद्ध अवस्था को प्राप्त मनुष्य, (वृद्धः)=वृद्ध, (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालको राजा=प्रजाओं के पालक राजा,  (पृथिव्यादिलोकसमूहः)=पृथिवी आदि लोक के समूह,  (यामेषु) स्वस्वगमनरूपमार्गेषु=अपने जाने के मार्गों में, (रेजते) कम्पते चलति=चलता है,  (तान्)=उन,  (कार्येषु)=कार्यों में, (संप्रयुङ्ध्वम्)=अच्छी तरह से प्रयोग करो ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई राजा जीर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ रोग वा शत्रुओं के भय से कम्पता है वैसे पवनों से सब प्रकार धारण किये हुए पृथिवी आदि लोक घूंमते हैं। और सूत्र के समान बंधे हुए वायु के विना किसी लोक की स्थिति वा भ्रमण का संभव कभी नहीं हो सकता ॥८॥

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी का भाषानुवाद- मोक्षमूलर साहिब का कथन कि जिन पवनों के दौड़नें में पृथिवी निर्बल राजा के समान भय से मार्गों में कम्पित होती है। संस्कृत की रीति से यह बड़ा दोष है कि जो स्त्रीलिङ्ग उपमेय के साथ पुल्लिङ्ग वाची उपमान दिया है। सो यह मौक्षमू० का कथन मिथ्या है क्योंकि वायु के योग ही से पृथिवी के धारण वा भ्रमण का संभव होकर वायु के भीषण ही से पृथिवी आदि लोकों के स्वरूप की स्थिति होती है तथा यह लिङ्ग व्यत्यय से उपमालङ्कार में दोष नहीं हो सकता, जैसे मनुष्य के तुल्य वायु और वायु के समान मन चलता है, श्येनपक्षी के समान मेना, स्त्री के समान पुरुष वा पुरुष के समान स्त्री, हाथी के समान भैंसी वा हथिनी के समान, चंद्रमा के समान मुख, सूर्य प्रकाश के समान राजनीति, इस प्रकार उपमालङ्कार में लिङ्ग भेद से कोई भी दोष नहीं आ-सकता ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

     हे (विद्वांसः) विद्वान् लोगों !  (येषाम्) बडे, (मरुताम्) पवनों को  (अज्मेषु) प्राप्त करने और फेंकने आदि के गुणों में और (सत्सु) जीवों में (भिया) भय से (जुजुर्वान् इव) जैसे वृद्ध अवस्था को प्राप्त मनुष्य (वृद्धः) वृद्ध (विश्पतिः) प्रजाओं का पालक राजा,  (पृथिव्यादिलोकसमूहः) और पृथिवी आदि लोक के समूह  (यामेषु) अपने जाने के मार्गों में (रेजते) चलते हैं,  (तान्) उनको  (कार्येषु) कार्यों में (संप्रयुङ्ध्वम्) अच्छी तरह से प्रयोग करो ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (येषाम्) महताम् (अज्मेषु) प्रापकक्षेपकादिगुणेषु सत्सु (पृथिवी) भूः (जुजुर्वान् इव) यथा वृद्धावस्थां प्राप्तो मनुष्यः। जॄष वयोहानावित्यस्मात् क्वसुः। #बहुलं छन्दसि इत्युत्वम्। वा छन्दसि सर्वेविधयो भवन्तीति *हलि च इति दीर्घो न। (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालको राजा (भिया) भयेन (यामेषु) स्वस्वगमनरूपमार्गेषु (रेजते) कम्पते चलति ॥८॥ #[अ० ७।१।१०३।]*[अ० ८।२।७७।]
    विषयः- पुनस्तेषां योगेन किं भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे विद्वांसो येषां मरुतामज्मेषु सत्सु भिया जुजुर्वानिव वृद्धो विश्पतिः पृथिव्यादिलोकसमूहो यामेषु रेजते कम्पते चलति तान् कार्य्येषु संप्रयुङ्ध्वम् ॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा जीर्णावस्थां प्राप्तः कश्चिद्राजा रोगैः शत्रूणां भयेन वा कम्पते तथा वायुभिः सर्वतो धारितः पृथिवीलोकः स्वपरिधौ प्रतिक्षणं भ्रमति एवं सर्वे लोकाश्च। नहि सूत्रवद्वेष्टनेन वायुना विना कस्यचिल्लोकस्य स्थितर्भ्रमणं च संभवतीति ॥८॥ 

    टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः 'येषां मरुतां धावने पृथिवी निर्बलराजवद्भयेन मार्गेषु कम्पते, संस्कृतरीत्यायं महान् दोषो यत् स्त्रीलिङ्गोपमेयेन सह पुंल्लिङ्गोपमा न दीयत' इत्यलीकास्ति कुतो वायोर्योगेनैव पृथिव्या धारणभ्रमणे संभूय तद्भीषणेनैव पृथिव्यादीनां लोकानां स्वरूपस्थितिर्भवति नायं लिङ्गव्यत्ययेनोपमालङ्कारे दोषो भवितुमर्हति। मनोवद्वायुर्गच्छति। वायुरिव मनो गच्छति। श्येनवन्मेना गच्छति। स्त्रीवत् पुरुषः पुरुषवत् स्त्री। हस्तीवन्महिषी हस्तिनीवद्वा। चन्द्रवन्मुखम्। सूर्यप्रकाश इव राजनीतिरित्यादिनास्य शोभनत्वात् ॥८॥

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    विषय

    प्राणों का महत्त्व

    पदार्थ

    १. (येषाम्) - जिन प्राणों के (अज्मेषु) - [अज गतिक्षेपणयोः] गति व क्षेपण क्रियाओं के होने पर (पृथिवी) - यह सारा शरीर (रेजते) - उसी प्रकार कम्पित हो उठता है (इव) - जिस प्रकार (जुजुर्वान्) - जीर्णता को प्राप्त हुआ (विश्पतिः) - राजा (यामेषु) - शत्रुओं का आक्रमण होने पर (भिया रेजते) - भय से काँप उठता है । 
    २. जब शरीर में से वाणी, प्राण, चक्षु व श्रोत्र जाते हैं व बाहर फेंके जाते हैं तब मनुष्य गूंगा हो जाता है, सूँघ नहीं पाता, देख नहीं सकता व अधिक - से - अधिक बहिरा हो जाता है; और सब प्रकार से वह ठीक चलता रहता है, परन्तु प्राणों के चलने व बाहर होने की तैयारी होते ही यह सारा शरीर भयभीत हो उठता है, सभी इन्द्रियों के खूँटें उखड़ने लगते हैं और सब ऐसे भयभीत हो उठते हैं जैसे कि एक वृद्ध राजा शत्रुओं के आक्रमण के भय से काँप उठता है ।
    ३. वस्तुतः प्राणों की ही यह महिमा है कि सब आसुरी वृत्तियाँ इनसे टकराकर चकनाचूर हो जाती हैं । इन प्राणों की साधना के अभाव में सब इन्द्रियाँ आसुरवृत्तियों से आक्रान्त होकर पाप में फँस जाती हैं । तब इन इन्द्रियों से प्रभु - स्तवन होना बन्द हो जाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राण के हिलते ही सब हिल जाता है । 
     

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    विषय

    वायुओं के दृष्टान्त से वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (येषाम्) वायुओं के समान अति प्रबल जिन वीर पुरुषों के (अज्मेषु) उथल पुथल कर देने वाले (यामेषु) प्रबल प्रयाण होने पर (पृथिवी) समस्त भूगोल अर्थात् उसके वासी प्रजाजन (जुजुर्वान्) रोग या बुढ़ापे या शत्रु के निरन्तर आक्रमणों से अति जीर्ण, निर्बल (विश्पतिः इव) राजा के समान (भिया) भय से (रेजते) कांपता है। अध्यात्म में—जिन प्राणों के प्रबल वेग से श्वासोच्छ्वासों के होने पर (पृथिवी) भूमि तत्व का बना शरीर बूढ़े दुर्बल राजा के समान नित्य कांपता है। अधिदेव पक्ष में—जिन प्रबल वायुओं के प्रबल वेग से चलने पर भूमण्डल भर कांपता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा एखादा राजा जीर्ण अवस्थेतील रोग किंवा शत्रू यांच्या भयाने कंपित होतो, भयभीत होतो. तसे वायूमुळे सर्व प्रकारे धारण केलेले पृथ्वी इत्यादी गोल फिरतात व सूत्रात बांधल्याप्रमाणे वायूशिवाय कोणत्याही गोलाची स्थिती किंवा भ्रमण कधी शक्य नाही. ॥ ८ ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलर साहेबांचे कथन आहे की, ज्या वायूच्या गतीने पृथ्वी निर्बल राजाप्रमाणे भयाने मार्गात कंपित होते. संस्कृतच्या रीतीने हा मोठा दोष आहे की, जे स्त्रीलिंग उपमेयाबरोबर पुल्लिंगवाची उपमान दिलेले आहे त्यामुळे मोक्षमूलरचे कथन मिथ्या आहे. कारण वायूच्या योगानेच पृथ्वीचे धारण किंवा भ्रमण शक्य होऊन वायूच्या भयंकरतेनेच पृथ्वी इत्यादीची स्थिती असते व या लिंगव्यत्ययाने उपमालंकारात दोष असू शकत नाही. जसा माणसासारखा वायू व वायूप्रमाणे मन चालते, श्येनपक्षाप्रमाणे मेना, स्त्रीप्रमाणे पुरुष किंवा पुरुषाप्रमाणे स्त्री, हत्तीप्रमाणे म्हैस किंवा हत्तीण, चंद्रासारखे मुख, सूर्यप्रकाशाप्रमाणे राजनीती, अशा प्रकारे उपमालंकारात लिंगभेदाने कोणताही दोष येऊ शकत नाही. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as on the stormy movements of a heroic leader’s armies the decrepit ruler of a broken nation shakes with fear and flees, so under the force of the motions of the winds, electric energy of the lord of the universe, the earth moves and goes whirling round and round in orbit.

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    Subject of the mantra

    Then what happens with the combination of those airs, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsaḥ)=learned people!(yeṣām)=big, (marutām)=to winds, (ajmeṣu)=in the qualities of receiving and throwing etc. and, (satsu)=in living beings, (bhiyā)=with fear, (jujurvān iva)= like man reaching old stage, (vṛddhaḥ)=old, (viśpatiḥ)=king the protector of the subjects, (pṛthivyādilokasamūhaḥ)=and the groups of the earth etc., (yāmeṣu)=on their ways, (rejate)=move, (tān)=to them, (kāryeṣu)=in works, (saṃprayuṅdhvam)=use well.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned people! In the qualities of receiving and throwing large airs etc. and in fear of living beings, such as the man who has attained old age, the king who is the protector of old people and the groups of earth and other worlds walk on their way to go, use them well in work.

    Footnote

    Translation of comments by Maharshi Dayanand on Max Muller’s commentary- Max Muller Sahib's statement that the winds in whose running the earth trembles in fear like a weak king. It is a big fault in the tradition of Sanskrit that the feminine subtext subject of a comparison is given with the subtext of the masculine analogy. So this statement of Max Müller is false. Because it is possible to hold or visit the earth with the combination of air only, due to the influence of air, the condition of the nature of the earth etc. worlds takes place and it cannot be a fault in the simile due to gender’s retrograde order. As the wind is like a man, the mind is like the wind, myna bird is like a blackbird, man is like a woman, woman is like a man, elephant is like a buffalo or an elephant, face is like the moon, politics is like sunlight. Thus, there can be no fault due to gender difference in simile.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figure of speech in this mantra. Just as a king who has reached an old state trembles due to disease or fear of enemies, in the same way the earth and other people roam around with all kinds of winds. And without the air tied like a thread, it can never be possible to travel or stay in any world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the result of their association is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, you should properly use the winds whose impetuous approach earth and other worlds move in their proper courses and tremble like an enfeebled king, through diseases or dread of his enemies."

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Prof. Maxmuller while translating the Mantra as- “They at whose racings the earth, like a hoary King, trembles for fear on their ways. Says in his notes-. "“The comparison of the earth (fem) to a King would be considered a grave offence in the later Sanskrit literature." (Vedic Hymns Vol. 1. P. 75). This is wrong. In Upamalankara, this change of genders is not an offence. For instance in even modern Sanskrit such expressions are commonly used." मनोवद् वायुर्गच्छति, वायुरिव मनो गच्छति । श्येवन्मेना गच्छति । स्त्रीवत् पुरुषः । पुरुषवत् स्त्री | हस्तीवन्महिषी | हस्तिनी वद्वा चन्द्रवन्मुखम् सूर्यप्रकाश इव राजनीतिः । = So Prof. Maxmuller's objection is un-tenable. (अज्मेषु) प्रापकक्षेपकादिगुणेषु सत्सु | = In the presence of their attributes like bringing and throwing. ( यामेषु) स्वस्व गमनरूपमार्गेषु = On the paths of their movement.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As an old King trembles on account of some terrible disease or the fear of his enemies; in the same way, this earth upheld from all sides by the air moves in its axis and the same is the case with other worlds. Without this thread-like enveloping air, no world can exist and move.

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