ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
इ॒हेव॑ शृण्व एषां॒ कशा॒ हस्ते॑षु॒ यद्वदा॑न् । नि याम॑ञ्चि॒त्रमृ॑ञ्जते ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒हऽइ॑व । शृ॒ण्व॒ । एषा॑म् । कशाः॑ । हस्ते॑षु । यत् । वदा॑न् । नि । याम॑न् । चि॒त्रम् । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् । नि यामञ्चित्रमृञ्जते ॥
स्वर रहित पद पाठइहइव । शृण्व । एषाम् । कशाः । हस्तेषु । यत् । वदान् । नि । यामन् । चित्रम् । ऋञ्जते॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(इहेव) यथाऽस्मिन्स्थाने स्थित्वा तथा (श्रृण्वे) श्रृणोमि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम। (एषाम्) वायूनाम् (कशाः) चेष्टासाधनरज्जुवन्नियमप्रापिकाः क्रियाः (हस्तेषु) हस्ताद्यङ्गेषु बहुवचनादङ्गानीति ग्राह्यम्। (यत्) व्यावहारिकं वचः (वदान्) वदेयुः (नि) नितराम् (यामन्) यान्ति प्राप्नुवन्ति सुखहेतुपदार्थान् यस्मिँस्तस्मिन्मार्गे। अत्र सुपां सुलुग् इतिङेर्लुक्। (चित्रम्) अद्भुतं कर्म (ऋञ्जते) प्रसाघ्नोति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। निरु० ।६।२।२१। ॥३॥
अन्वयः
पुनरेते तैः किंकुर्य्युरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
अहं यदेषां वायूनां कशा हस्तेषु सन्ति प्राणिनो वदान् वदेयुस्तदिहेव श्रृण्वे सर्वः प्राण्यप्राणी यद्यामन् यामनि चित्रं कर्म न्य्रञ्जते तदहमपि कर्त्तुं शक्नोमि ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। पदार्थविद्यामभीप्सुभिर्विद्वद्भर्यानि कर्माणि जडचेतनाः पदार्थाः कुर्वन्ति तद्धेतवो वायवः सन्ति। यदि वायुर्न स्यात्तर्हि कश्चित् किंचिदपि कर्म कर्त्तुं न शक्नुयात्। दूरस्थेनोच्चारिताञ्छब्दान् समीपस्थानिव वायुचेष्टामंतरेण कश्चिदपि श्रोतुं वक्तुं च न प्रभवेत्। वीरा युद्धादिकार्येषु यावन्तौ बलपराक्रमौ कुर्वन्ती तावन्तौ सर्वौ वायुयोगादेव भवतः। नह्येतेन विना नेत्रस्पन्दनमपि कर्त्तुं शक्थमतोऽस्य सर्वदैव शुभगुणाः सर्वैः सदान्वेष्टव्याः। मोक्षमूलरोक्तिः। अहं सारथिना कशाशब्दाञ् च्छृणोमि। अतिनिकटे हस्तेषु तान् प्रहरन्ति ते स्वमार्गेष्वतिशोभां प्राप्नुवन्ति। यामन्निति मार्गस्य नाम येन मार्गेण देवा गच्छन्ति यस्मान् मार्गाद्धलिदानानि प्राप्नुवन्ति। यथा स्माकं प्रकरणे मेघावयवानामपि ग्रहणं भवतीत्यशुद्धास्ति। कुतः। अत्र कशाशब्देन वायुहेतुक नां क्रियाणां ग्रहणाद्यामन्निति शब्देन सर्वव्यवहारसुखप्रापिकस्य कर्मणो ग्रहणाच्च ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे विद्वान् लोग इन पवनों से क्या-२ उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
मैं (यत्) जिस कारण (एषाम्) इन पवनों की (कशाः) रज्जु के समान चेष्टा के साधन नियमों को प्राप्त करानेवाली क्रिया (हस्तेषु) हस्त आदि अङ्गों में हैं इससे सब चेष्टा और जिससे प्राणी व्यवहार संबन्धी वचन को (वदान्) बोलते हैं उसको (इहेव) जैसे इस स्थान में स्थित होकर वैसे करता और (शृण्वे) श्रवण करता हूँ और जिससे सब प्राणी और अप्राणी (यामन्) सुख हेतु व्यवहारों के प्राप्त करानेवाले मार्ग में (चित्रम्) आचर्य्यरूप कर्म को (न्यृञ्जते) निरन्तर सिद्ध करते हैं उसके करने को समर्थ उसीसे मैं भी होता हूँ ॥३॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। वायु पदार्थ विद्या की इच्छा करनेवाले विद्वानों को चाहिये कि मनुष्य आदि प्राणी जितने कर्म करते हैं उन सभों के हेतु पवन हैं जो वायु न हों तो कोई मनुष्य कुछ भी कर्म करने को समर्थ न हों सके और दूरस्थित मनुष्य ने उच्चारण किये हुए शब्द निकट के उच्चारण के समान वायु की चेष्टा के विना कोई भी कह वा सुन न सके और मनुष्य मार्ग में चलने आदि जितने बल वा पराक्रमयुक्त कर्म करते हैं वे सब वायु ही के योग से होते हैं इससे यह सिद्ध है कि वायु के विना कोई नेत्र के चलाने को भी समर्थ नहीं हो सकता इसलिये इसके शुभगुणों का खोज सर्वदा किया करें ॥३॥ मोक्षमूलर साहिब कहते हैं कि मैं सारथियों के कशा अर्थात् चावक के शब्दों को सुनता हूँ तथा अति समीप हाथों में उन पवनों को प्रहार करते हैं वे अपने मार्ग में अत्यन्त शोभा को प्राप्त होते हैं और यामन् यह मार्ग का नाम है जिस मार्ग से देव जाते हैं वा जिस मार्ग से बलिदानों को प्राप्त होते हैं जैसे हम लोगों के प्रकरण में मेघ के अवयवों का भी ग्रहण होता हैं। यह सब अशुद्ध हैं क्योंकि इस मंत्र में कशा शब्द से सब क्रिया और यामन् शब्द से मार्ग में सब व्यवहार प्राप्त करनेवाले कर्मों का ग्रहण है ॥३॥
विषय
फिर वे विद्वान् लोग इन पवनों से क्या-क्या उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
अहं यत् एषां वायूनां कशाः हस्तेषु सन्ति प्राणिनः वदान् वदेयुः तत् इह इव शृण्वे सर्वः प्राण्यप्राणी यत् यामन् यामनि चित्रं कर्म नि ऋञ्जते तत् अहम् अपि कर्तुं शक्नोमि ॥३॥
पदार्थ
(अहम्)=मैं, (यत्)=जिस, (एषाम्) वायूनाम्=वायु के, (कशाः) चेष्टासाधनरज्जुवन्नियमप्रापिकाः क्रियाः= रज्जु के समान प्रयास के साधन नियमों को प्राप्त करानेवाली क्रियायें, (हस्तेषु) हस्ताद्यङ्गेषु बहुवचनादङ्गानीति ग्राह्यम्=हाथों में, (सन्ति)=हैं। (प्राणिनः)=प्राणी, (वदान्) वदेयुः=बोलें, (तत्)=उसको, (इहेव) यथाऽस्मिन्स्थाने स्थित्वा तथा=जैसे इस स्थान में स्थिर होकर, वैसे ही, (शृण्वे) श्रृणोमि=सुनता हूँ। (सर्वः)=समस्त, (प्राण्यप्राणी)=प्राणी और अप्राणी, (यत्) व्यावहारिकं वचः=व्यावहारिक वाणी, (यामन्) यामनि- यान्ति प्राप्नुवन्ति सुखहेतुपदार्थान् यस्मिँस्तस्मिन्मार्गे=जिसमे सुख के हेतुपदार्थ प्राप्त होते हैं, उस मार्ग में, (चित्रम्) अद्भुतं कर्म=अद्भुत कर्म, (नि) नितराम्=अधिकता से, (ऋञ्जते) प्रसाघ्नोति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा=निष्पादित करता है। (तत्)=उसको, (अहम्)=में, (अपि)=भी, (कर्तुम्)=कर, (शक्नोमि)=सकता हूँ ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। वायु पदार्थ विद्या की इच्छा करनेवाले विद्वानों को चाहिये कि मनुष्य आदि प्राणी जितने कर्म करते हैं उन सभों के हेतु पवन हैं जो वायु न हों तो कोई मनुष्य कुछ भी कर्म करने को समर्थ न हों सके और दूरस्थित मनुष्य ने उच्चारण किये हुए शब्द निकट के उच्चारण के समान वायु की चेष्टा के विना कोई भी कह वा सुन न सके और मनुष्य मार्ग में चलने आदि जितने बल वा पराक्रमयुक्त कर्म करते हैं वे सब वायु ही के योग से होते हैं इससे यह सिद्ध है कि वायु के विना कोई नेत्र के चलाने को भी समर्थ नहीं हो सकता इसलिये इसके शुभगुणों का खोज सर्वदा किया करें ॥३॥
विशेष
महर्षिकृत टिप्पणी का भाषानुवाद- मोक्षमूलर साहिब कहते हैं कि मैं सारथियों के कशा अर्थात् चावक के शब्दों को सुनता हूँ तथा अति समीप हाथों में उन पवनों को प्रहार करते हैं वे अपने मार्ग में अत्यन्त शोभा को प्राप्त होते हैं और यामन् यह मार्ग का नाम है जिस मार्ग से देव जाते हैं वा जिस मार्ग से बलिदानों को प्राप्त होते हैं जैसे हम लोगों के प्रकरण में मेघ के अवयवों का भी ग्रहण होता हैं। यह सब अशुद्ध हैं क्योंकि इस मंत्र में कशा शब्द से सब क्रिया और यामन् शब्द से मार्ग में सब व्यवहार प्राप्त करनेवाले कर्मों का ग्रहण है ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(अहम्) मैं (यत्) जैसे (एषाम्) वायु के (कशाः) रज्जु के समान प्रयास के साधन नियमों को प्राप्त करानेवाली क्रियायें, (हस्तेषु) हाथ के अङ्गों में (सन्ति) हैं। (प्राणिनः) प्राणी (वदान्) [जैसे] बोलें (तत्) उसको (इहेव) इस स्थान में स्थित होकर, वैसे ही (शृण्वे) सुनता हूँ। (सर्वः) समस्त (प्राण्यप्राणी) प्राणी और अप्राणी (यत्) व्यावहारिक वाणी (यामन्) जिसमे सुख के हेतुपदार्थ प्राप्त होते हैं, उस मार्ग में (चित्रम्) अद्भुत कर्म (नि) अधिकता से (ऋञ्जते) निष्पादित करता है। (तत्) उस [कर्म] को (अहम्) में (अपि) भी (कर्तुम्) कर (शक्नोमि) सकता हूँ।
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इहेव) यथाऽस्मिन्स्थाने स्थित्वा तथा (शृण्वे) शृणोमि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम। (एषाम्) वायूनाम् (कशाः) चेष्टासाधनरज्जुवन्नियमप्रापिकाः क्रियाः (हस्तेषु) हस्ताद्यङ्गेषु बहुवचनादङ्गानीति ग्राह्यम्। (यत्) व्यावहारिकं वचः (वदान्) वदेयुः (नि) नितराम् (यामन्) यान्ति प्राप्नुवन्ति सुखहेतुपदार्थान् यस्मिँस्तस्मिन्मार्गे। अत्र सुपां सुलुग् इतिङेर्लुक्। (चित्रम्) अद्भुतं कर्म (ऋञ्जते) प्रसाघ्नोति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। निरु० ।६।२।२१। ॥३॥
विषयः- पुनरेते तैः किंकुर्य्युरित्युपदिश्यते।
अन्वयः- अहं यदेषां वायूनां कशा हस्तेषु सन्ति प्राणिनो वदान् वदेयुस्तदिहेव शृण्वे सर्वः प्राण्यप्राणी यद्यामन् यामनि चित्रं कर्म न्यृञ्जते तदहमपि कर्त्तुं शक्नोमि ॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। पदार्थविद्यामभीप्सुभिर्विद्वद्भर्यानि कर्माणि जडचेतनाः पदार्थाः कुर्वन्ति तद्धेतवो वायवः सन्ति। यदि वायुर्न स्यात्तर्हि कश्चित् किंचिदपि कर्म कर्त्तुं न शक्नुयात्। दूरस्थेनोच्चारिताञ्छब्दान् समीपस्थानिव वायुचेष्टामंतरेण कश्चिदपि श्रोतुं वक्तुं च न प्रभवेत्। वीरा युद्धादिकार्येषु यावन्तौ बलपराक्रमौ कुर्वन्ती तावन्तौ सर्वौ वायुयोगादेव भवतः। नह्येतेन विना नेत्रस्पन्दनमपि कर्त्तुं शक्थमतोऽस्य सर्वदैव शुभगुणाः सर्वैः सदान्वेष्टव्याः।
टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः। अहं सारथिना कशाशब्दाञ् च्छृणोमि। अतिनिकटे हस्तेषु तान् प्रहरन्ति ते स्वमार्गेष्वतिशोभां प्राप्नुवन्ति। यामन्निति मार्गस्य नाम येन मार्गेण देवा गच्छन्ति यस्मान् मार्गाद्धलिदानानि प्राप्नुवन्ति। यथा स्माकं प्रकरणे मेघावयवानामपि ग्रहणं भवतीत्यशुद्धास्ति। कुतः। अत्र कशाशब्देन वायुहेतुक नां क्रियाणां ग्रहणाद्यामन्निति शब्देन सर्वव्यवहारसुखप्रापिकस्य कर्मणो ग्रहणाच्च ॥३॥
विषय
हाथ बोलें
पदार्थ
१. गतमन्त्र में 'वाशी' शब्द से वेदवाणी का उल्लेख हुआ है । उस वेदवाणी को प्रस्तुत मन्त्र में 'कशा' शब्द से स्मरण किया गया है । यह वेदवाणी कर्तव्यों का अनुशासन करती है [कश - गतिशासनयोः] । (एषाम्) - इन प्राणसाधना करनेवालों के (हस्तेषु) - हाथों में (यत्) - जब (कशाः) - ये वेदवाणियाँ (वदान्) - बोलती हैं, अर्थात् जब इनका जीवन वेदवाणियों के अनुसार होता है तब (इह इव) - इस जीवनकाल की भाँति जीवन के बाद भी (शृण्वे) - इनका यश सुनाई पड़ता है । ये व्यक्ति कभी मर नहीं जाते, मरने के बाद भी ये जीवित ही रहते हैं, स्थूलशरीर चले जाने पर भी इनका यशशरीर स्थिर रहता है । वेदवाणी को जीवन में अनूदित करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य प्राणों का संयम करे । यह मरुतों का बल ही हमें वैदिक जीवनवाला बनाता है ।
२. ये लोग (यामन्) - इस जीवनमार्ग में अपने को (चित्रम्) - अद्भुतरूप से (नि ऋञ्जते) - निश्चय से वा नितराँ प्रसाधित करते हैं । वैदिक कर्मकलाप करते हुए ये लोग अपने जीवनों को बड़ा सुन्दर बना लेते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - वेदवाणी को हम जीवन में क्रियान्वित करें, जिसके द्वारा हमारे जीवन का अद्भुत अलंकरण हो ।
विषय
वायुओं के दृष्टान्त से वीरों का वर्णन ।
भावार्थ
(एषां) इन वायुओं और प्राणों की (हस्तेषु) हाथ पैर आदि अंगों में विद्यमान (कशाः) विकसित होनेवाली नाना चेष्टाएँ (यत्) जो कुछ भी (वदान्) तत्व बतलाती हैं उसको मैं (इह एव) यहाँ ही इस शरीर में स्थित, यहाँ बैठा ही (शृण्वे) सुन लेता हूं। ये (यामन्) सुखादि प्राप्त करानेवाले मार्ग में (चित्रम्) अति अद्भुत कर्म (निऋञ्जते) किया करते हैं। वीरों के पक्ष में—(एषां हस्ते) इनके हाथों में अर्थात् अधिकारों में (कशाः) नाना वाणियें, आज्ञाएं घोड़े के हांकने वाली हण्टरों के समान (यत् वदान्) जो भी बोलती हैं, जो २ करने को कहतीं हैं उनको मैं (ईह एव श्रृण्वे) इस राष्ट्र भर में श्रवण करूं। ये (यामन्) नियमकारी शासन या राज्य में (चित्रम्) अद्भुत कार्य (नि ऋञ्जते) निरन्तर करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. वायू विद्येची इच्छा बाळगणाऱ्या विद्वानांनी जाणावे की, माणसे जितके कर्म करतात त्या सर्वांचे कारण वायू आहे. जर वायू नसेल तर माणसे कोणतेही कर्म करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. दुरून उच्चारण केलेले शब्द जवळ आल्यासारखे वाटणे वायूच्या गतीशिवाय शक्य होऊ शकत नाही. माणसाकडून मार्ग आक्रमण करण्याचे बल व पराक्रमयुक्त जितके कर्म केले जाते ते सर्व वायूच्या योगेच होते. यामुळे हे सिद्ध होते की, वायूशिवाय कोणीही नेत्राची पापणीही हलवू शकत नाही. त्यासाठी त्याच्या उत्कृष्ट गुणांचा सदैव शोध घ्यावा. ॥ ३ ॥
टिप्पणी
मोक्षमूलर साहेब म्हणतात की, मी सारथ्याचा कशा अर्थात चाबूक असा शब्द ऐकतो व अतिजवळ हातात त्या वायूचे प्रहार करतो ते आपल्या मार्गात अत्यंत शोभायमान दिसतात व यामन् या मार्गाचे नाव आहे. ज्या मार्गाने देव जातात व ज्या मार्गाने बलिदान होते. जसे आमच्या प्रकरणात मेघाच्या अवयवाचे ग्रहण होते, हे सर्व अशुद्ध आहे. कारण या मंत्रात कशा शब्दाने सर्व क्रिया व यामन् शब्दाने मार्गात सर्व व्यवहार प्राप्त करणाऱ्या कर्माचे ग्रहण केलेले आहे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Whatever I hear here wherever I am, whatever the stimulation of the nerves and motions of the muscles in the hands, whatever people speak, whatever varied and wonderful they straighten, realise or obtain in the business of life, all that is by the motion of these winds.$(Research into the energy, power and uses of the winds.)
Subject of the mantra
Then what kind of help those learned people should take from these airs, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(aham)=I, (yat)=which, (eṣām)=of air, (kaśāḥ)=actions that achieve the rules, means of effort like a rope, (hasteṣu)=in hand part,s (santi)=are, (prāṇinaḥ)=living bengs, (vadān)=speak, [jaise]=as, (tat)=to that, (iheva)=located in this place, as well, (śṛṇve)=listen, (sarvaḥ)=all, (prāṇyaprāṇī)=living beings and lifeless, (yat)=practical speech, (yāman)=In the way in which things are obtained for happiness, in that way, (citram)=strange deeds, (ni)=excessively, (ṛñjate)=executes, (tat)=that, [karma] =deed, (aham)=I, (api)=also, (kartum+śaknomi)=can do.
English Translation (K.K.V.)
I can also do that work, like a string of air, the instruments of effort, the activities that achieve the rules, are in the parts of the hand. Being situated in this place, I listen to the living beings as they speak. Practical speech of all living and non-living, in which substances for happiness are obtained, in that path, performs wonderful deeds in abundance.
Footnote
Translation of the comments of Maharshi Dayanand- Max Muller Sahib says that he heard the words of the charioteers "Kasha" meaning whip and strike those winds in very close hands, they are very beautiful in their path and this is the name of the path by which the deities go or the path by which the sacrifices are received. Like in the case of us, the components of the clouds are also eclipsed. All these are incorrect because in this mantra the word “Kasha” contains all the actions and the word “yāman” all the deeds that get the activity on the way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figure of speech in this mantra. Scholars who wish to study the matter of the air should know that there is wind responsible for all the actions performed by human beings etc. If there is no air, then no man would be able to do any work and no one can say or hear the words spoken by a distant person without the effort of the air, similar to the words spoken by the near one. And all the strong and mighty deeds that humans do while walking on the path etc. are all done with the help of air. It is proved from this that without air no one can be able to run the eyes, so always search for its good qualities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they do with these things is taught in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I hear what words are spoken by all living beings (with the help of the air) and I know he regulating actions like the whips or hunters that are in the hands of the winds (so to speak) or that affect all parts of the body. It is with the help of the air that all animate or inanimate things accomplish wonderful acts on the path of happiness or to attain happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
Prof. Maxmuller's translation. "I hear their whips, almost close by, when they crack them in their hands, they gain splendor on their way." (Vedic Hymn Vol. P. 63). Or "Here, close by, I hear what the whips in their hands say, they drive forth the beautiful (chariot) on the road." (V. H. I. P. 64). and the note on Yaman saying "The locative Yaman (यामन) is frequently used of the path on which the Gods move and approach the sacrifice. Hence it some times means as in our passage, in the sky." (V. H. I: P. 72) are wrong and misleading, for here by Kashas are meant the activities caused by the air and by Yaman (यामन) the acts that lead all beings to happiness. ( कशा:) चेष्टासाधनरज्जुवत् नियमप्रापिकाः क्रियाः = The regulating action like the whips or hunters. [यामन्] यान्ति प्राप्नुवन्ति सुखहेतुपदार्थान् यस्मिन् तस्मिन् मार्गे । अत्र सुपां सु लुक् इति लुक् || = On the path or way where one gets all pleasant things.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. Those who are desirous of knowing sciences like Physics should know that what ever actions are done by animate or inanimate things are on account of or with the help of the air. If there were no gases, none could do anything. The words that are spoken from a distant place, can be heard with the help of the air as if they were spoken close by. Without the movement of the air, none can speak or hear anything. Whatever mighty acts are done by the heroes in the battle etc. are all done with the association of the air. Without air, one cannot even twinkle the eye. Therefore every one should always investigate the properties of the air.
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