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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
    ऋषि: - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒हेव॑ शृण्व एषां॒ कशा॒ हस्ते॑षु॒ यद्वदा॑न् । नि याम॑ञ्चि॒त्रमृ॑ञ्जते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒हऽइ॑व । शृ॒ण्व॒ । एषा॑म् । कशाः॑ । हस्ते॑षु । यत् । वदा॑न् । नि । याम॑न् । चि॒त्रम् । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् । नि यामञ्चित्रमृञ्जते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इहइव । शृण्व । एषाम् । कशाः । हस्तेषु । यत् । वदान् । नि । यामन् । चित्रम् । ऋञ्जते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (इहेव) यथाऽस्मिन्स्थाने स्थित्वा तथा (श्रृण्वे) श्रृणोमि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम। (एषाम्) वायूनाम् (कशाः) चेष्टासाधनरज्जुवन्नियमप्रापिकाः क्रियाः (हस्तेषु) हस्ताद्यङ्गेषु बहुवचनादङ्गानीति ग्राह्यम्। (यत्) व्यावहारिकं वचः (वदान्) वदेयुः (नि) नितराम् (यामन्) यान्ति प्राप्नुवन्ति सुखहेतुपदार्थान् यस्मिँस्तस्मिन्मार्गे। अत्र सुपां सुलुग् इतिङेर्लुक्। (चित्रम्) अद्भुतं कर्म (ऋञ्जते) प्रसाघ्नोति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। निरु० ।६।२।२१। ॥३॥

    अन्वयः

    पुनरेते तैः किंकुर्य्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    अहं यदेषां वायूनां कशा हस्तेषु सन्ति प्राणिनो वदान् वदेयुस्तदिहेव श्रृण्वे सर्वः प्राण्यप्राणी यद्यामन् यामनि चित्रं कर्म न्य्रञ्जते तदहमपि कर्त्तुं शक्नोमि ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। पदार्थविद्यामभीप्सुभिर्विद्वद्भर्यानि कर्माणि जडचेतनाः पदार्थाः कुर्वन्ति तद्धेतवो वायवः सन्ति। यदि वायुर्न स्यात्तर्हि कश्चित् किंचिदपि कर्म कर्त्तुं न शक्नुयात्। दूरस्थेनोच्चारिताञ्छब्दान् समीपस्थानिव वायुचेष्टामंतरेण कश्चिदपि श्रोतुं वक्तुं च न प्रभवेत्। वीरा युद्धादिकार्येषु यावन्तौ बलपराक्रमौ कुर्वन्ती तावन्तौ सर्वौ वायुयोगादेव भवतः। नह्येतेन विना नेत्रस्पन्दनमपि कर्त्तुं शक्थमतोऽस्य सर्वदैव शुभगुणाः सर्वैः सदान्वेष्टव्याः। मोक्षमूलरोक्तिः। अहं सारथिना कशाशब्दाञ् च्छृणोमि। अतिनिकटे हस्तेषु तान् प्रहरन्ति ते स्वमार्गेष्वतिशोभां प्राप्नुवन्ति। यामन्निति मार्गस्य नाम येन मार्गेण देवा गच्छन्ति यस्मान् मार्गाद्धलिदानानि प्राप्नुवन्ति। यथा स्माकं प्रकरणे मेघावयवानामपि ग्रहणं भवतीत्यशुद्धास्ति। कुतः। अत्र कशाशब्देन वायुहेतुक नां क्रियाणां ग्रहणाद्यामन्निति शब्देन सर्वव्यवहारसुखप्रापिकस्य कर्मणो ग्रहणाच्च ॥३॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर वे विद्वान् लोग इन पवनों से क्या-२ उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    मैं (यत्) जिस कारण (एषाम्) इन पवनों की (कशाः) रज्जु के समान चेष्टा के साधन नियमों को प्राप्त करानेवाली क्रिया (हस्तेषु) हस्त आदि अङ्गों में हैं इससे सब चेष्टा और जिससे प्राणी व्यवहार संबन्धी वचन को (वदान्) बोलते हैं उसको (इहेव) जैसे इस स्थान में स्थित होकर वैसे करता और (शृण्वे) श्रवण करता हूँ और जिससे सब प्राणी और अप्राणी (यामन्) सुख हेतु व्यवहारों के प्राप्त करानेवाले मार्ग में (चित्रम्) आचर्य्यरूप कर्म को (न्यृञ्जते) निरन्तर सिद्ध करते हैं उसके करने को समर्थ उसीसे मैं भी होता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। वायु पदार्थ विद्या की इच्छा करनेवाले विद्वानों को चाहिये कि मनुष्य आदि प्राणी जितने कर्म करते हैं उन सभों के हेतु पवन हैं जो वायु न हों तो कोई मनुष्य कुछ भी कर्म करने को समर्थ न हों सके और दूरस्थित मनुष्य ने उच्चारण किये हुए शब्द निकट के उच्चारण के समान वायु की चेष्टा के विना कोई भी कह वा सुन न सके और मनुष्य मार्ग में चलने आदि जितने बल वा पराक्रमयुक्त कर्म करते हैं वे सब वायु ही के योग से होते हैं इससे यह सिद्ध है कि वायु के विना कोई नेत्र के चलाने को भी समर्थ नहीं हो सकता इसलिये इसके शुभगुणों का खोज सर्वदा किया करें ॥३॥ मोक्षमूलर साहिब कहते हैं कि मैं सारथियों के कशा अर्थात् चावक के शब्दों को सुनता हूँ तथा अति समीप हाथों में उन पवनों को प्रहार करते हैं वे अपने मार्ग में अत्यन्त शोभा को प्राप्त होते हैं और यामन् यह मार्ग का नाम है जिस मार्ग से देव जाते हैं वा जिस मार्ग से बलिदानों को प्राप्त होते हैं जैसे हम लोगों के प्रकरण में मेघ के अवयवों का भी ग्रहण होता हैं। यह सब अशुद्ध हैं क्योंकि इस मंत्र में कशा शब्द से सब क्रिया और यामन् शब्द से मार्ग में सब व्यवहार प्राप्त करनेवाले कर्मों का ग्रहण है ॥३॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. वायू विद्येची इच्छा बाळगणाऱ्या विद्वानांनी जाणावे की, माणसे जितके कर्म करतात त्या सर्वांचे कारण वायू आहे. जर वायू नसेल तर माणसे कोणतेही कर्म करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. दुरून उच्चारण केलेले शब्द जवळ आल्यासारखे वाटणे वायूच्या गतीशिवाय शक्य होऊ शकत नाही. माणसाकडून मार्ग आक्रमण करण्याचे बल व पराक्रमयुक्त जितके कर्म केले जाते ते सर्व वायूच्या योगेच होते. यामुळे हे सिद्ध होते की, वायूशिवाय कोणीही नेत्राची पापणीही हलवू शकत नाही. त्यासाठी त्याच्या उत्कृष्ट गुणांचा सदैव शोध घ्यावा. ॥ ३ ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलर साहेब म्हणतात की, मी सारथ्याचा कशा अर्थात चाबूक असा शब्द ऐकतो व अतिजवळ हातात त्या वायूचे प्रहार करतो ते आपल्या मार्गात अत्यंत शोभायमान दिसतात व यामन् या मार्गाचे नाव आहे. ज्या मार्गाने देव जातात व ज्या मार्गाने बलिदान होते. जसे आमच्या प्रकरणात मेघाच्या अवयवाचे ग्रहण होते, हे सर्व अशुद्ध आहे. कारण या मंत्रात कशा शब्दाने सर्व क्रिया व यामन् शब्दाने मार्गात सर्व व्यवहार प्राप्त करणाऱ्या कर्माचे ग्रहण केलेले आहे. ॥ ३ ॥

    English (1)

    Meaning

    Whatever I hear here wherever I am, whatever the stimulation of the nerves and motions of the muscles in the hands, whatever people speak, whatever varied and wonderful they straighten, realise or obtain in the business of life, all that is by the motion of these winds.$(Research into the energy, power and uses of the winds.)

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