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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वि॒श्ववे॑दसो र॒यिभिः॒ समो॑कसः॒ संमि॑श्लास॒स्तवि॑षीभिर्विर॒प्शिनः॑। अस्ता॑र॒ इषुं॑ दधिरे॒ गभ॑स्त्योरन॒न्तशु॑ष्मा॒ वृष॑खादयो॒ नरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वऽवे॑दसः । र॒यिऽभिः॑ । सम्ऽओ॑कसः । सम्ऽमि॑श्लासः । तवि॑षीभिः । वि॒ऽर॒प्शिनः॑ । अस्ता॑रः । इषु॑म् । द॒धि॒रे॒ । गभ॑स्त्योः । अ॒न॒न्तऽशु॑ष्माः । वृष॑ऽखादयः । नरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्ववेदसो रयिभिः समोकसः संमिश्लासस्तविषीभिर्विरप्शिनः। अस्तार इषुं दधिरे गभस्त्योरनन्तशुष्मा वृषखादयो नरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वऽवेदसः। रयिऽभिः। सम्ऽओकसः। सम्ऽमिश्लासः। तविषीभिः। विऽरप्शिनः। अस्तारः। इषुम्। दधिरे। गभस्त्योः। अनन्तऽशुष्माः। वृषऽखादयः। नरः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे नरो मनुष्या ! यूयं ये समोकसः संमिश्लास इषुमस्तारो वृषखादयोऽनन्तशुष्मा विरप्सिनो विश्ववेदसो रयिभिस्तविषीभिश्च प्रजा गभस्त्योः सूर्य्याग्न्योरिव बलं दधिरे धरन्ति तेषां सङ्गेन विद्याशिक्षायानचालनक्रियाश्च स्वीकुरुत ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (विश्ववेदसः) विश्वानि सर्वाणि वस्तूनि विदन्ति येभ्यस्ते (रयिभिः) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियादिभिः (समोकसः) सम्यगोको निवासार्थं स्थानं येभ्यस्ते (संमिश्लासः) अग्न्यादितत्त्वैः सम्यङ् मिश्राः। अत्र कपिलकादीनां सञ्ज्ञाछन्दसोर्वा रो लमापद्यत इति वक्तव्यम्। (अष्टा०वा०८.२.१८) इति लत्वम्। (तविषीभिः) बलपराक्रमयुक्ताभिः सेनाभिः (विरप्शिनः) महान्तः। विरप्शीति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (अस्तारः) प्रक्षेप्तारः। अत्रास् धातोस्तृन् वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीतीडागमविकल्पः। (इषुम्) बाणम्। प्राप्तिसाधनमिच्छाविशेषं वा (दधिरे) धरन्ति (गभस्त्योः) रश्मियुक्तयोः सूर्य्यप्रसिद्धाग्न्योरिव भुजयोः (अनन्तशुष्माः) अनन्तं शुष्मं बलं येषान्ते (वृषखादयः) ये वृषान् रसवर्षकान् पदार्थान् खादयन्ति ते (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्या वायवो वा ॥ १० ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्नहि विद्वद्भिर्वाय्वादिपदार्थविद्यया च विना परमार्थव्यवहारसुखानि सेद्धुं शक्यन्ते ॥ १० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उक्त पवन किस प्रकार के गुणवाले हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (नरः) विद्या को प्राप्त होनेवाले मनुष्यो ! तुम लोग जो (समोकसः) जिनसे अच्छे प्रकार निवास होता है (संमिश्लासः) अग्नि आदि चार तत्त्वों के साथ अत्यन्त मिले हुए (इषुम्) बाण वा इच्छा विशेष छोड़ते हुए (वृषखादयः) रसों को वर्षानेवाले पदार्थों के खानेवाले (अनन्तशुष्माः) अनन्त बलवान् (विरप्सिनः) बड़े (विश्ववेदसः) सब पदार्थों की प्राप्ति के हेतु होके सब पदार्थों को इधर-उधर चलानेवाले वायु (रयिभिः) चक्रवर्त्तिराज्य की शोभा आदि तथा (तविषीभिः) बल पराक्रम सेना आदि प्रजा और (गभस्त्योः) किरणयुक्त सूर्य्य वा प्रसिद्ध अग्नि के समान भुजाओं में बल को (दधिरे) धारण करते हैं, उनके गुणों को ठीक-ठीक जान कर उनसे विद्या, शिक्षा और यान के चलाने की क्रियाओं को ग्रहण करो ॥ १० ॥

    भावार्थ

    मनुष्य लोग विद्वान् तथा वायु आदि पदार्थविद्या के विना परलोक और इस लोक के सुखों की सिद्धि कभी नहीं कर सकते ॥ १० ॥

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    विषय

    ज्ञान + धन + बल का वर्धन

    पदार्थ

    १. प्राणों की साधना करनेवाले पुरुष (विश्ववेदसः) = सम्पूर्ण ज्ञानोंवाले होते है । इनकी बुद्धि सूक्ष्म होकर इनके ज्ञान का वर्धन होता है । २. (रयिभिः समोकसः) = धनों से ये समान निवासस्थानवाले होते हैं, अर्थात् ये धनों को प्राप्त करनेवाले होते हैं । ३. (तविषीभिः संमिश्लासः) = बलों से ये मिश्रित व युक्त होते हैं और ४. इस प्रकार ज्ञान, धन व बल से सम्पन्न होकर ये (विरप्शिनः) = महान् बनते हैं । (अस्तारः) = [असु क्षेपणे] ये शत्रुओं को सुदूर फेंकनेवाले होते हैं । काम - क्रोधादि को अपने समीप नहीं फटकने देते । (गभस्त्योः) = अपनी दोनों भुजाओं में (इषुम्) = बाण को (दधिरे) = धारण करते हैं । कामादि शत्रुओं को इन बाणों से विद्ध करके दूर भगा देते हैं । भुजाओं में बाणों का संकेत “कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः” - इस मन्त्रभाग में इस प्रकार हुआ है कि दक्षिण हस्त का बाण कृत व पुरुषार्थ है और वामहस्त का बाण जय है । यह सदा पुरुषार्थ में लगा हुआ काम - क्रोधादि शत्रुओं को पराजित कर विजयलाभ करता है । इस विजयलाभ के कारण ही यह महान् है । ४. (अनन्तशुष्माः) = इस प्रकार ‘कृत व जय’ - रूप बाणों को धारण करते हुए ये लोग खूब शक्तिशाली बनते हैं । (वृषखादयः) = [वृषः सोमः खादिः भोजनं येषाम्] सोम इनका भोजन होता है । सोम को ये शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करते हैं और इसलिए (नरः) = नर होते हैं, ‘नृ नये’ - अपने को उन्नतिपथ पर निरन्तर आगे ले - चलते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना हमारे ज्ञान, धन व बल सभी को बढ़ाती है ।

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    विषय

    उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( विश्ववेदसः ) समस्त ऐश्वर्यो और ज्ञानों के स्वामी या विश्व को जानने, उसे और धन रूप में प्राप्त करनेवाले, (रयिभिः) अपने बल पराक्रमों और ऐश्वर्यों से ( समोकसः ) एक समान, या उत्तम स्थान के रहनेवाले, ( संमिश्लासः) परस्पर अच्छी प्रकार सम्मिलित, ( तविषीभिः ) बलों और सेनाओं के द्वारा (विरप्शिनः) गुणों और कार्यों में महान्, (अस्तारः) अस्त्रों के चलानेहारे, (वृषखादयः) वीर्यवर्धक अन्न और जल के खानेवाले, (नरः) वीर पुरुष ( अनन्तशुष्माः ) अनन्त बल से युक्त होकर (गभस्त्योः) बाहुओं में ( इषुं दधिरे ) वाण आदि अस्त्रों को धारण करें । वायुपक्ष में—( विश्ववेदसः ) सब पदार्थों को प्राप्त, उत्तम आश्रय में स्थित (संमिश्लास:) अग्नि आदि तत्वों से युक्त, बलवती क्रिया से महान् पदार्थों के इधर उधर उठा फेंकने वाले, (वृषखादयः) वृष्टि-जलों या मेघों को अपने में लेने वाले, दूसरों को उनका भोग देने वाले, (नरः) गतिशील वायुगण (अनन्तशुष्माः) अनन्त बल वाले होकर (इषुं) प्रेरक बल को (गभस्त्योः) सूर्य और अग्नि दोनों के आश्रय से ( दधिरे ) धारण करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर उक्त पवन किस प्रकार के गुणवाले हैं, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे नरः मनुष्या ! यूयं ये समोकसः संमिश्लासः इषुम् अस्तारः वृषखादयःअनन्तशुष्माः विरप्सिनः विश्ववेदसः रयिभिः तविषीभिः च प्रजा गभस्त्योः सूर्य्याग्न्योः इव बलं दधिरे धरन्ति तेषां सङ्गेन विद्या शिक्षा यानचालनक्रियाः च स्वीकुरुत ॥१०॥

    पदार्थ

    हे (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्या वायवो वा=नेतृत्व करते हुए ले जानेवाले मनुष्यों या पवनों ! (यूयम्)=तुम सब, (ये)=जो, (समोकसः) सम्यगोको निवासार्थं स्थानं येभ्यस्ते=उचित निवासवाले, (संमिश्लासः) अग्न्यादितत्त्वैः सम्यङ् मिश्राः=अग्नि आदि तत्त्वों से उचित रूप से मिले हुए, (इषुम्) बाणम्=बाण के, (अस्तारः) प्रक्षेप्तारः=फेंकनेवाले, (वृषखादयः) ये वृषान् रसवर्षकान् पदार्थान् खादयन्ति ते=रसों को बरसानेवाले पदाथों को खाते हुए, (अनन्तशुष्माः) अनन्तं शुष्मं बलं येषान्ते= अनन्त बलवाले, (विरप्शिनः) महान्तः=महान्, (विश्ववेदसः) विश्वानि सर्वाणि वस्तूनि विदन्ति येभ्यस्ते=समस्त वस्तुओं को जाननेवाले, (रयिभिः) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियादिभिः= चक्रवर्त्ति राज्य की लक्ष्मी आदि से, (तविषीभिः) बलपराक्रमयुक्ताभिः सेनाभिः= बल और पराक्रम युक्त सेना से, (च)=और, (प्रजा)= सूर्य, (गभस्त्योः) रश्मियुक्तयोः सूर्य्यप्रसिद्धाग्न्योरिव भुजयोः=सूर्य की प्रसिद्ध अग्नि अथवा किरणों के समान, (बलम्)= बल को, (दधिरे) धरन्ति=धारण करते हैं, (तेषाम्)=उनके, (सङ्गेन)=साथ से, (विद्या)= विद्या, (शिक्षा)= शिक्षा, (च) =और, (यानचालनक्रियाः) = यान चलाने की क्रिया को, (स्वीकुरुत) =अपनाओ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वान् तथा वायु आदि पदार्थविद्या के विना मनुष्य परमार्थ व्यवहार के सुखों की सिद्धि नहीं की सकते हैं॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (नरः) नेतृत्व करते हुए ले जानेवाले मनुष्यों या पवनों ! (यूयम्) तुम सब (ये) जो (समोकसः) उचित निवासवाले, (संमिश्लासः) अग्नि आदि तत्त्वों से रूप से किये हुए मिश्रण और (इषुम्) बाण के (अस्तारः) फेंकनेवाले हो। (वृषखादयः) रसों को बरसानेवाले पदाथों को खाते हुए, अर्थात् सुखाते हुए, (अनन्तशुष्माः) अनन्त बलवाले, (विरप्शिनः) महान् और (विश्ववेदसः) समस्त वस्तुओं को जाननेवाले हो। (रयिभिः) चक्रवर्त्ति राज्य की लक्ष्मी आदि से (च) और (तविषीभिः) बल और पराक्रम युक्त सेना से (गभस्त्योः) सूर्य की प्रसिद्ध अग्नि अथवा किरणों के समान (बलम्) बल को (दधिरे) धारण करती है। (तेषाम्) उनके (सङ्गेन) साथ से (विद्या) विद्या, (शिक्षा) शिक्षा (च) और (यानचालनक्रियाः) यान चलाने की क्रिया को (स्वीकुरुत) अपनाओ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विश्ववेदसः) विश्वानि सर्वाणि वस्तूनि विदन्ति येभ्यस्ते (रयिभिः) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियादिभिः (समोकसः) सम्यगोको निवासार्थं स्थानं येभ्यस्ते (संमिश्लासः) अग्न्यादितत्त्वैः सम्यङ् मिश्राः। अत्र कपिलकादीनां सञ्ज्ञाछन्दसोर्वा रो लमापद्यत इति वक्तव्यम्। (अष्टा०वा०८.२.१८) इति लत्वम्। (तविषीभिः) बलपराक्रमयुक्ताभिः सेनाभिः (विरप्शिनः) महान्तः। विरप्शीति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (अस्तारः) प्रक्षेप्तारः। अत्रास् धातोस्तृन् वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीतीडागमविकल्पः। (इषुम्) बाणम्। प्राप्तिसाधनमिच्छाविशेषं वा (दधिरे) धरन्ति (गभस्त्योः) रश्मियुक्तयोः सूर्य्यप्रसिद्धाग्न्योरिव भुजयोः (अनन्तशुष्माः) अनन्तं शुष्मं बलं येषान्ते (वृषखादयः) ये वृषान् रसवर्षकान् पदार्थान् खादयन्ति ते (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्या वायवो वा ॥१०॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे नरो मनुष्या ! यूयं ये समोकसः संमिश्लास इषुमस्तारो वृषखादयोऽनन्तशुष्मा विरप्सिनो विश्ववेदसो रयिभिस्तविषीभिश्च प्रजा गभस्त्योः सूर्य्याग्न्योरिव बलं दधिरे धरन्ति तेषां सङ्गेन विद्याशिक्षायानचालनक्रियाश्च स्वीकुरुत ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्नहि विद्वद्भिर्वाय्वादिपदार्थविद्यया च विना परमार्थव्यवहारसुखानि सेद्धुं शक्यन्ते ॥१॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे विद्वान व वायू इत्यादी पदार्थविद्येशिवाय परलोक व इहलोकाच्या सुखाची सिद्धी कधी करू शकत नाहीत. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Heroic men, mighty powers, cosmic energies, Maruts, voracious eaters, excellent and exuberant, who know and rule the world live together with all their wealth together, mix together in equal homes with all their light and power of the elements, hold immense strength in their hands, fix the arrow on the bow and shoot. They are the real men, the Maruts.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Maruts) is taught further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Maruts (heroes) are knowers of all important things dwelling together with wealth of vast government, endowed with strength, great on account of their virtues, repellers of foes, of infinite powers, eaters of nourishing food, leaders of men, hold in their arms which are like the sun and fire, shafts and various weapons or noble desires in their minds. They drive away their enemies with their powerful armies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विरप्शिनः) महान्तः विरप्शीति महन्नाम (निघ० ३.३ ) = Great on account of their virtues. (अस्तार:) प्रक्षेप्तार: । अत्र अस-प्रक्षेपणे इति धातोः स्तृन् ' वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति इडागमविकल्पः । = Throwers or repellers of their foes. (गभस्त्योः) रश्मियुक्तयोः सूर्यप्रसिद्धाग्न्योरिव भुजयोः = In the arms which are like the sun and fire-full of splendour.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men can not attain spiritual and secular happiness without the learned people and the knowledge of the science of the air and other elements.

    Translator's Notes

    (गभस्ती इति बाहुनाम (निघ० २.४) गभस्त्य इति रश्मिनाम (निघ० १.५ ) Though Prof. Max Muller and other. Western Scholars translate the word "Maruts" as storm Gods, yet even they like Prof. Wilson and Griffith have to admit willy nilly that the adjectives used for Maruts and other descriptions clearly point out that they are heroic men. For instances, Prof. Wilson's translation of the above Mantra (10th.) is as follows. “The Maruts who are all knowers. "Who are leaders (of men)." In the translation of the 9th Mantra also Prof. Wilson says-Maruts, who are heroes, etc. Griffith in his translation of the 8th Mantra says. (प्रचेतसः) Exceeding wise they roar like lions mightily-combined as priests. In the translation of the 9th Mantra.(गणश्रियः ) (Heroes) who Match in companies, friendly men. In the translation of the 10th Mantra विरप्शिन: Singers loud of voice-Heroes, of powers infinite,-the archers, they have laid the arrow of their arms. Does all this not corroborate Rishi Dayananda Saraswati's contention that by the word "Marutah" are not meant any "Storm Gods" but brave heroes besides the winds by the way of illustration.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of qualities does the said air has, this matter is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (naraḥ)=humans or winds who lead and carry, (yūyam)=all of you, (ye) =those, (samokasaḥ) =with proper residence, (saṃmiślāsaḥ)= Mixtures made from elements like fire and, (iṣum) =of arrow, (astāraḥ) =are a thrower, (vṛṣakhādayaḥ) =By eating things that exude juices, i.e. by drying them, (anantaśuṣmāḥ)= one with infinite strength, (virapśinaḥ) =great and, (viśvavedasaḥ)=are knowledgeable about all things, (rayibhiḥ) =by wealth etc. of Chakravarti kingdom, (ca) =and, (taviṣībhiḥ) =by an army full of strength and bravery, (gabhastyoḥ) =like the famous fire or rays of the Sun, (balam)= to force, (dadhire) =holds, (teṣām) =their, (saṅgena) =with company, (vidyā) =knowledge, (śikṣā) =education, (ca) =and, (yānacālanakriyāḥ)=act of driving of the vehicles, (svīkuruta) =adopt.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans or winds who lead and carry! All of you, who have proper residence, are the ones who have properly mixed the elements like fire and are the throwers of arrows. By eating the substances that shower the juices, that is, by drying them, you are one with infinite strength, great and knowledgeable about all things. Wealth of the Chakravarti kingdom and the army full of strength and bravery possess the same power as the famous fire or rays of the Sun. Adopt knowledge, education and act of driving of the vehicles with them.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without scholarly knowledge and knowledge of substances like air etc., humans cannot attain the happiness of charitable behaviour.

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